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शाहजहाँ की मध्य एशियाई नीति
मुगलों का मूल निवास-स्थान मध्य एशिया में ट्रांस-ऑक्सियाना में था। इसलिए इस वंश के प्रारंभिक शासक अपनी पैतृक भूमि पर शासन करने की इच्छा रखते थे। बाबर ने अपने महान् पूर्वज तैमूर की राजधानी समरकंद पर अधिकार करने का तीन बार प्रयास किया था, किंतु वह अधिक समय तक समरकंद को अपने अधिकार में नहीं रख सका। बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूँ में दृढ़-चरित्र और इच्छा-शक्ति अभाव था, जिसके कारण वह बदख्शाँ तक की विजय के बावजूद उससे आगे नहीं बढ़ सका था। अकबर भी मध्य एशिया के स्वदेश को जीतना चाहता था, किंतु इसके लिए उसे समय नहीं मिल सका। विलासी जहाँगीर ने हिंदूकुश को पार करके इस दुर्गम क्षेत्र को जीतने का साहस ही नहीं किया।
शाहजहाँ एक महत्त्वाकांक्षी मुगल बादशाह था और अपने पूर्वजों की भाँति मध्य एशिया के पुराने राज्यों को पुनः जीतने के स्वप्न देखा करता था। शाहजहाँ के समक्ष कोई विशेष कठिनाई भी नहीं थी। उसके दरबारी भी उसे बार-बार मध्य एशिया में मुगल सत्ता की स्थापना करने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। अब्दुल हमीद लाहौरी के अनुसार ‘अपने शासन के प्रारंभ में ही शाहजहाँ की हार्दिक इच्छा थी कि बल्ख और बदख्शाँ की विजय की जाए, जो उसकी वंशानुगत संपत्ति, समरकंद विजय की कुंजी और उसके महान पूर्वज तैमूर का निवास-स्थान और राजधानी थी।’
शाहजहाँ का बल्ख अभियान (1646 ई.)
अपने स्वप्न को पूरा करने के लिए शाहजहाँ ने पहले बल्ख और बदख्शाँ पर आक्रमण करने की एक योजना बनाई। यद्यपि बल्ख और बदख्शाँ पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न मूर्खतापूर्ण था, क्योंकि उसके पूरा होने की कोई भी संभावना नहीं थी, फिर भी, शाहजहाँ ने अपने पूर्वजों की भूमि को जीतकर उनकी इच्छाओं को पूरा करने का प्रयास किया।
राजनीतिक परिस्थितियाँ
बल्ख और बदख्शाँ के प्रांत वर्तमान अफगानिस्तान के उत्तर आक्सस नदी और हिंदूकुश पर्वत श्रेणी के बीच स्थित थे। अब्दुल्ला उजबेग की मृत्यु के बाद की अनिश्चितता के दौर के उपरांत 1611 ई. में इमामकुली, जो शैबानी वंश से भिन्न शाखा का था, बल्ख और बुखारा का शासक हुआ। किंतु उदारता की झोंक में उसने बल्ख और बदख्शाँ अपने भाई नजर मुहम्मद को सौंप दिया और बुखारा को अपने नियंत्रण में रखा। कालांतर में नजर मुहम्मद इन दोनों प्रदेशों का लगभग स्वतंत्र शासक बन बैठा। 1621 ई. में इमामकुली की माँ और नूरजहाँ के बीच औपचारिक स्तर पर दूतों और उपहारों का आदान-प्रदान हुआ था।
जहाँगीर की मृत्यु के बाद इमामकुली उजबेग के मना करने के बाद भी उसके भाई नजर मुहम्मद ने 1628 ई. में काबुल पर आक्रमण किया। उसने नगर पर अधिकार कर लिया और किले पर घेरा डाल दिया। किंतु मुगल बादशाह शाहजहाँ के आदेश पर महाबत खाँ जैसे मुगल सेनापतियों के सेना सहित पहुँचते ही नजर मुहम्मद भाग खड़ा हुआ।
मुगल बादशाह शाहजहाँ ने नजर मुहम्मद पर अंकुश लगाने और उसे इमामकुली से अलग-थलग करने के लिए कूटनीति का सहारा लिया। एक ओर उसने इमामकुली से मैत्री करने के लिए 3 नवंबर, 1628 ई. को अपने दूत हकीम हाजिक को बुखारा भेजा, तो दूसरी ओर नजर मुहम्मद को भयभीत करने के लिए मई, 1629 ई. में बामियान की हश्तरखानी चौकी पर अधिकार कर लिया।
मुगल बादशाह की सक्रियता के कारण नजर मुहम्मद आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सका। उसने मुगल सेनाओं को दूर रखने के लिए जुलाई, 1632 ई. में अपने दूत बक्कास हाजी को बहुमूल्य उपहारों के साथ मुगल दरबार में भेजा। इसके बाद अगले छह वर्षों तक मुगल बादशाह और बल्ख तथा बुखारा के शासकों के बीच अकसर पत्र-व्यवहारों के साथ-साथ उपहारों का आदान-प्रदान होता रहा और तीनों शासक एक-दूसरे के प्रति सद्भावना प्रकट करते रहे। इस प्रकार मुगल साम्राज्य तथा दो मध्य एशियाई शक्तियों के बीच कुछ समय तक शक्ति-संतुलन बना रहा।
फरवरी, 1639 ई. में जब सीमांत प्रदेशों की कबायली अफगान जातियों ने उपद्रव किया, तो शाहजहाँ काबुल पहुँच गया और उसे सईद खाँ को कहमर्द के किलेदार यलिंगतोश तथा कबायली अफगान जातियों के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही करने का आदेश दिया। शाहजहाँ की सैन्य-कार्यवाही से भयभीत होकर नजर मुहम्मद और इमामकुली ने पुनः अपने राजदूतों को मुगल बादशाह शाहजहाँ के पास भेजा और अनुरोध किया कि यदि वह ईरान को विजित करना चाहे, तो वे उसे अपना पूरा सहयोग देने के लिए तैयार हैं। चूंकि शाहजहाँ की अभी ऐसी कोई योजना नहीं थी, इसलिए वह राजदूतों को ससम्मान विदा करके अगस्त, 1639 ई. में लाहौर लौट आया।
इसके कुछ समय बाद तूरान की राजनीति में परिवर्तन हो गया। बुखारा का शासक इमामकुली नेत्ररोग के कारण अंधा हो गया और उसके भाई नजर मुहम्मद की महत्त्वाकांक्षाएँ हिलोरें मारने लगीं। थोड़ी-बहुत लड़ाई के बाद नजर मुहम्मद ने अपने पुत्र अब्दुल अजीज की सहायता से बुखारा तथा समरकंद पर अधिकार कर लिया और 31 अक्टूबर, 1641 ई. को अपना नाम खुतबे में पढ़वाया। विवश होकर इमामकुली भागकर पहले ईरान और बाद में मक्का चला गया। इस प्रकार बल्ख के शासक नजर मुहम्मद का सारी उजबेग खानत (सल्तनत) पर अधिकार हो गया।
किंतु नजर मुहम्मद दंभी और निरंकुश शासक सिद्ध हुआ। उसने प्रशासन को चुस्त-दुरूस्त करने का प्रयास किया और बहुत से आलिमों को दी गई राजस्व-मुक्त भूमि वापस ले ली। यही नहीं, उसने प्रादेशिक विस्तार की नीति भी अपनाई और ख्वारिज्म पर अधिकार करने की कोशिश की। अभी वह अपने सैनिक अभियानों में व्यस्त था कि ख्वारिज्म और खोवा के अमीरों ने विद्रोह कर दिया। नजर मुहम्मद के पुत्र अब्दुल अजीज को विद्रोहियों का दमन करने के लिए भेजा गया, किंतु अब्दुल अजीज ने विद्रोहियों से समझौता करके 1645 ई. में स्वयं को बुखारा का ‘खान’ (सुल्तान) घोषित कर दिया। उसने आरतिया में अपने नाम को खुतबे में पढ़वाया और वहाँ से समरकंद पहुँच गया।
इस संकटपूर्ण स्थिति में नजर मुहम्मद ने भागकर बल्ख के दुर्ग में शरण ली और अपने पुत्र के भय से हिसार तथा चारजू के दुर्गों की रक्षा के लिए अपने दूसरे पुत्र सुभानअली तथा दीवान अब्दुर्रहीम को नियुक्त किया। इन घटनाओं से उत्साहित होकर होकर शाहजहाँ ने मार्च, 1645 ई. में बदख्शाँ जीतने का निर्णय लिया और मुगल सेना ने कहमर्द के दुर्ग पर अधिकार कर किया। किंतु अगस्त, 1645 ई. में असालत खाँ और अक्टूबर, 1645 ई. में जगतसिंह के हरसंभव प्रयासों के बावजूद मुगल सेना को बदख्शाँ विजित करने में सफलता नहीं मिल सकी।
अगले तीन वर्षों में नजर मुहम्मद और उसके पुत्र अब्दुल अजीज के बीच संबंध और भी खराब हो गये और दोनों ही पक्ष युद्ध के लिए उतावले थे। किंतु बल्ख के कुछ प्रमुख अमीरों की मध्यस्थता से पिता-पुत्र में समझौता हो गया, जिसके अनुसार अब्दुल अजीज को बुखारा का और उसके पिता नजर मुहम्मद को बल्ख का शासक मान लिया गया। यद्यपि इस संधि से पिता-पुत्र के बीच युद्ध का संकट टल गया और दोनों अपने-अपने राज्यों में चले गये, किंतु नजर मुहम्मद को अपने पुत्र के आश्वासन पर विश्वास नहीं था। वह इस बात को लेकर भयभीत था कि कहीं उसका पुत्र उसके साथ उसी प्रकार का व्यवहार न करे, जिस प्रकार उसने अपने भाई इमामकुली के साथ किया था। फलतः आत्म-सुरक्षा के लिए नजर मुहम्मद ने शाहजहाँ से सहायता की याचना की।
बल्ख और बदख्शाँ पर आक्रमण
शाहजहाँ ने तत्परता से नजर मुहम्मद की अपील को स्वीकार किया और उसे संदेश भिजवाया कि वह उसकी सहायता के लिए तैयार है। शाहजहाँ ने लाहौर से काबुल पहुँचकर 1646 ई. में शहजादा मुराद को पचास हजार घुड़सवारों, बंदूकचियों तथा तोपचियों सहित दस हजार पैदल सैनिकों और राजपूतों की एक टुकड़ी को नज़र मुहम्मद की सहायता के लिए भेज दिया। शाहजहाँ ने मुराद को हिदायत दी थी कि नज़र मुहम्मद से आदर से पेश आये और यदि वह विनम्रता का व्यवहार करे तो उसे बल्ख वापस दे दे। इसके अलावा, उसे यह भी निर्देश दिया गया था कि यदि नजर मुहम्मद समरकंद और बुखारा पर फिर से अधिकार करना चाहे, तो वह उसे हर तरह की सहायता दे। इस प्रकार स्पष्ट था कि शाहजहाँ बल्ख और बुखारा में ऐसा मित्र शासक चाहता था, जो आवश्यकता पडने पर मुगलों की सहायता कर सके।
यद्यपि मुराद के नेतृत्व में मुगल सेना ने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए फरवरी, 1646 ई. में बदख्शाँ पर अधिकार कर लिया, किंतु मुराद के उतावलेपन से सारी योजना पर पानी फिर गया। उसने नजर मुहम्मद के निर्देश की प्रतीक्षा किये बिना सीधे बल्ख पर आक्रमण कर दिया और अपने सैनिकों को बल्ख के किले में प्रवेश करने का आदेश दे दिया। यही नहीं, उसने नजर मुहम्मद को सख्त आदेश भिजवाया कि वह शहजादे की सेवा में स्वयं उपस्थित हो। नजर मुहम्मद की समझ में नहीं आ रहा था कि शाहजादे को उसकी सहायता के लिए भेजा गया है या उसके राज्य को जीतने के लिए। अंततः नजर मुहम्मद भागकर ईरान के शाह की शरण में चला गया। नजर मुहम्मद के पलायन की खबर से पूरे शहर में अफरा-तफरी और लूटमार मच गई। मुगल सेना ने अगले दिन नजर मुहम्मद की संपत्ति और उसके परिवार की रक्षा की। 7 जुलाई, 1646 ई. को शहजादा मुराद ने बल्ख पर अधिकार कर लिया और कुछ ही दिनों बाद तिरमीज का दुर्ग भी जीत लिया गया।
यद्यपि बदख्शाँ और बल्ख की विजय शाहजहाँ की महान उपलब्धि थी, क्योंकि इस कार्य को उसके पूर्वज बाबर और अकबर भी नहीं कर सके थे। किंतु हिंदुकुश और औक्सस नदी के बीच के इन दुर्गम क्षेत्रों पर अधिकार बनाये रखना असंभ्सव था। नजर मुहम्मद का कोई विकल्प भी नहीं मिल रहा था।
अब्दुल अजीज ने मावरा-उन्-नहर में उजबेग कबीलों को मुगलों के खिलाफ भड़का दिया और 1,20,000 की सेना एकत्र करके आमू दरिया के उस पार डट गया। इस बीच बल्ख की कष्टकर जलवायु और अन्य अनेक कठिनाइयों के कारण 1646 ई. में शाहजादा मुराद बादशाह की इच्छा के विरूद्ध भारत लौट आया। शाहजहाँ ने नाराज होकर मुराद को कुछ समय के लिए उसके मनसब तथा मुल्तान की जागीर से वंचित करके उसे दंडित किया। वजीर सादुल्ला खाँ को प्रशासनिक समस्याओं के समाधान के लिए बल्ख भेजा गया। किंतु वह भी मुगल और राजपूत सरदारों का रुख नहीं बदल सका और बल्ख की प्रशासनिक व्यवस्था ठीक करके काबुल लौट आया।
किंतु सादुल्ला खाँ के लौटते ही स्थानीय उपद्रवियों ने विद्रोही गतिविधियाँ आरंभ कर दी और मुगल सैनिकों का जीना हराम कर दिया। अतः अगले वर्ष शाहजहाँ ने अमीर-उल-उमरा अलीमर्दान खाँ के साथ औरंगजेब को एक विशाल सेना के साथ बल्ख भेजा। मार्ग में छापामार युद्धों का सामना करते हुए औरंगजेब 6 मई, 1647 ई. को बल्ख पहुँचा। यद्यपि उसने आमू दरिया पार करने की कोई कोशिश नहीं की, किंतु उसने सामरिक महत्त्व के सभी ठिकानों पर मजबूत सैनिक दल तैनात कर दिये और तोपखाना सहित मुख्य सेना को अपने पास रखा, ताकि जिस स्थान पर भी संकट आये, वहाँ वह जल्दी से पहुँच सके।
अब्दुल अज़ीज़ आमू दरिया पार करके बल्ख की ओर बढ़ा, किंतु उसने सामने औरंगजेब की सेना को तैनात देखा। 1647 ई. में बल्ख के प्रवेश-द्वार के बाहर मुगल तोपखाने की सहायता से औरंगजेब ने उजबेगों को बुरी तरह पराजित करके खदेड़ दिया।
उजबेग सैन्य-बल के पलायन करने के बाद नजर मुहम्मद के पुत्रों- अब्दुल अजीज और सुभानअली के लिए मुगलों के विरूद्ध युद्ध जारी रखना असंभव हो गया। अब्दुल अजीज ने औरंगजेब के पास यह प्रस्ताव भेजा कि बुखारा उसके छोटे भाई सुभानकुली को दे दिया जाए। औरंगजेब ने अब्दुल अजीज को बताया कि उसका प्रस्ताव बादशाह की स्वीकृति के लिए भेज दिया जा रहा है, किंतु अजीज को लगा कि उसका प्रस्ताव स्वीकृत नहीं होगा, इसलिए वह स्वदेश लौट गया।
इसी समय नजर मुहम्मद को ईरान के शाह की सहायता मिल गई और वह ईरानी सैनिकों के साथ बल्ख की ओर बढ़ा। उसे उजबेगों के भी सद्भावनापूर्ण संदेश मिले, जिसके कारण उसने ईरानी सैनिकों का साथ छोड़कर मर्व शहर के निकट पड़ाव डाल दिया और स्वयं मुगल सैनिकों को बल्ख के निकटवर्ती चौकियों से निकालने का प्रयास करने लगा, किंतु प्रत्येक बार उसे पराजय का ही सामना करना पड़ा। अपनी पराजय से निराश नजर मुहम्मद ने शाहजहाँ के पास अपना दूत भेजकर अनुरोध किया कि वह उसके पुत्र सुभानकुली को बुखारा दे दे।
बल्ख की विजय और उजबेगों के बिखराव से शाहजहाँ यदि यह चाहता तो समरकंद और बुखारा पर आक्रमण कर सकता था। इससे पहले शाह अब्यास द्वितीय के नाम अपने एक पत्र में शाहजहाँ ने कहा था कि बल्ख की जीत समरकंद और बुखारा की विजय का आरंभिक पड़ाव है, साथ ही उसने शाह से अनुरोध किया था कि वह नजर मुहम्मद को मक्का जाने दे ताकि वह बल्ख में मुगलों के रास्ते का कांटा न बने। शाहजादा मुराद को बल्ख में डटे रहने पर राजी करने के लिए शाहजहाँ ने उसे समरकंद और बुखारा का सूबेदार नियुक्त करने का भी वचन दिया था।
किंतु लगता है कि शाहजहाँ की मध्य एशिया की प्रतिकूल परिस्थिति, स्थानीय जनता के शत्रुतापूर्ण रवैये, उजबेगों के निरंतर प्रतिरोध और मुगल तथा राजपूत सरदारों की बल्ख में रहने की अनिच्छा के कारण बल्ख में एक मित्र शासक को पदस्थापित करने की अपनी पुरानी नीति पर वापस आ गया था। अतः काफी सोच-समझ कर शाहजहाँ ने नजर मुहम्मद के पक्ष में फैसला किया और औरंगजेब को संदेश भेजा कि वह नजर मुहम्मद के आत्म-समर्पण और क्षमा-याचना के बाद उसे बल्ख सौंपकर लौट आये। यह एक गलती थी, क्योंकि अभिमानी उजबेग शासक स्वयं को इस तरह गिरायेगा, इसकी संभावना नहीं थी, विशेष रूप से तब जब वह जानता था कि मुगलों के लिए बल्ख में लंबे समय तक टिके रहना असंभव है। नजर मुहम्मद अस्वस्थता का बहाना करके शहजादे के सामने उपस्थित नहीं हुआ। इधर शीतकाल के आरंभ होने और मुगल सैनिकों के लिए रसद की कमी होने के कारण औरंगजेब को निरंतर कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। अंततः नजर मुहम्मद और अब्दुल अजीज के मौखिक रूप से अधीनता के संदेश को पर्याप्त समझा गया और नजर मुहम्मद के पौत्र अब्दुल कासिम को बल्ख सौंपकर औरंगजेब स्वयं 3 अक्टूबर, 1647 ई. को काबुल लौट आया।
शाहजहाँ की मध्य एशियाई नीति की असफलता के कई कारण थे। एक, अधिकांश मुगल कर्मचारी इतने दूर और कष्टकर जलवायु में रहना नहीं चाहते थे। दूसरे, स्थानीय जनता के शत्रुतापूर्ण रवैये के कारण बल्ख पर स्थायी रूप से नियंत्रण बनाये रखना संभव नहीं था। तीसरे, हश्तरखानियों एवं चगताइयों में परंपरागत वैमनस्य था, जिसके कारण मुगल सेना को एक कबीले के सशस्त्र प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। इस प्रकार मुगल साम्राज्य के धन और जन की विशाल हानि हुई।
मध्य एशियाई नीति का परिणाम और समीक्षा
शाहजहाँ की मध्य एशियाई नीति, विशेषकर बल्ख अभियान को लेकर आधुनिक इतिहासकारों के बीच काफी विवाद रहा है। उसकी मध्य एशियाई नीति के संबंध में जे.एन. सरकार ने लिखा है कि, ‘समस्त दर्रों को पार करने में शाही सैनिकों को लगभग दस हजार जीव-जंतुओं की हत्या करनी पड़ी, जिनमें पाँच हजार मनुष्य और शेष जीव-जंतु थे। बहुत-सी संपत्ति बर्फ में दबी रह गई। इस प्रकार शाहजहाँ के बल्ख के मूर्खतापूर्ण युद्ध अंत हुआ, जिसमें शाही खजाने से दो वर्ष में करोड़ों खर्च हुए, जबकि विजित क्षेत्र से केवल साढ़े बाइस लाख रुपया कर के रूप में वसूल किया जा सका। एक इंच भूमि पर अधिकार नहीं हुआ और न ही कोई राजवंश परिवर्तित हुआ।’ इस प्रकार अधिकांश इतिहासकारों ने शाहजहाँ की तूरान नीति की कड़ी आलोचना की है और उसकी तूरान विजय की योजना को केवल एक दंभी व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षा का फल बताया है, जिसमें वह पूर्ण रूप से असफल रहा।
वास्तव में शाहजहाँ मुगल सरहद को तथाकथित ‘वैज्ञानिक सीमा’ अर्थात् आमू दरिया तक ले जाने की कोशिश नहीं कर रहा था। आमू दरिया कोई रक्षणीय सीमा भी नहीं थी। यह सही है कि शाहजहाँ समरकंद और बुखारा पर आक्रमण करने और इस प्रकार अपने ‘वतन’ पर फिर से अधिकार करने का विचार मन में पाल रहा था, किंतु उसने इसके लिए कभी गंभीर प्रयत्न नहीं किया। बल्ख अभियान के पीछे अतिरिक्त प्रदेश जीतने की लालसा भी नहीं थी। बल्ख के आसपास का इलाका तो उपजाऊ था, किंतु बदख्शाँ पर्वतीय प्रदेश था, जिसमें बीच-बीच में पड़नेवाली संकरी घाटियों की रक्षा करना कठिन था। इसके अतिरिक्त, इन दोनों प्रदेशों से इतना राजस्व भी नहीं मिलता था कि उसके कारण मुगल उनकी ओर आकृष्ट होते। बदख्शाँ की आमदनी एक बड़े मुगल सरदार के वेतन के लिए भी नहीं थी।
समकालीन मुगल इतिहासकारों ने शाहजहाँ के बल्ख अभियान का औचित्य इस आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि अतीत में उजबेगों के कारण काबुल और गजनी खतरे में पड़ गया था और शाही प्रदेश अर्थात् काबुल पर हमला करने की ‘धृष्टता’ करने के लिए नजर मुहम्मद को सबक सिखाना जरूरी था। यह तर्क भी दिया गया है कि शाहजहाँ बल्ख और बदख्शाँ के लोगों को उन अलमान खानाबदोश कबीलों के विरूद्ध संरक्षण सुरक्षा देना चाहता था, जिन्होंने अब्दुल अजीज की ओर से उस क्षेत्र में लूट-पाट मचा रखी थी।
जो भी हो, यह सही है कि शाहजहाँ मूलतः काबुल- कंधार सीमा रेखा की रक्षा करने की नीति से प्रेरित था, क्योंकि संयुक्त और शक्तिशाली उजबेग खानत (सल्तनत) उसके लिए खतरा बन सकती थी। उजबेगों के बीच भड़के गृह-युद्ध में नजर मुहम्मद को उसके पुत्र के विरूद्ध सहायता देकर उजबेगों में फूट डालने का सुनहरा अवसर था। इसके अतिरिक्त, इसके एक आनुषंगिक परिणाम के रूप में मुगल बादशाह बदख्शाँ पर अधिकार करने की आशा करता था, जो बहुत महत्त्वपूर्ण तो नहीं था, लेकिन उपेक्षणीय भी नहीं था। इस प्रकार शाहजहाँ की नीति यथार्थ राजनीति पर आधारित थी। मुगल सैन्य-बल की सफलता से उसके मन में बल्ख को मुगल साम्राज्य का अंग बनाने की इच्छा तो हुई थी, किंतु कटु यथार्थ से सामना होते ही वह फिर अपनी पुरानी नीति पर लौट गया।
सैनिक दृष्टि से बल्ख अभियान को सफल माना जाना चाहिए। मुगलों ने बल्ख को जीत लिया और वहाँ से मुगलों को भगाने के उजबेगों के सारे प्रयत्न नाकाम हो गये। यद्यपि इससे मुगलों को कोई राजनीतिक लाभ तो नहीं हुआ, किंतु कुछ समय के लिए मुगलों की सैनिक प्रतिष्ठा बढ़ गई। बल्ख क्षेत्र में भारतीय सेना की यह पहली विजय थी और इस पर शाहजहाँ का उत्सव मनाना अनुचित भी नहीं था। जो भी हो, यह सही है कि ईरानियों के मूक विरोध और स्थानीय जनता की शत्रुता के कारण स्थायी रूप से बल्ख में अपना प्रभाव बनाये रखना मुगलों के वश की बात नहीं थी और यदि शाहजहाँ ने इतनी मेहनत से अकबर द्वारा खड़ी की गई काबुल-गजनी कंधार रक्षापंक्ति को सुदृढ़ किया होता, तो मनुष्यों तथा अन्य संसाधनों की अनावश्यक क्षति से बचा जा सकता था।
फिर भी, बल्ख अभियान को विफल कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। उजबेकों के बीच विभाजन होने से काबुल की सुरक्षा सुनिश्चित हुई और जब तक नजर मुहम्मद जीवित रहा, मुगलों और उसके बीच दूत-मंडलों का आदान-प्रदान बराबर चलता रहा। भारत नादिरशाह के उदय के पूर्व लगभग सौ वर्षों तक बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित रहा।
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