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द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945)
27 अगस्त, 1939 को हिटलर ने ओवरसल्जवर्ग में अपने सेनापतियों को संबोधित करते हुए कहा था, ‘‘मुझे जितनी शक्ति अथवा जर्मन जाति का जो विश्वास प्राप्त है वह अन्य किसी व्यक्ति को प्राप्त नहीं होगा….मुझे समय नहीं खोना चाहिए……युद्ध मेरे अनुकूल अवसर पर होना चाहिए।’’
उपरोक्त कथन हिटलर की प्रबल इच्छाशक्ति और दृढ़-विश्वास के द्योतक हैं। हिटलर को पूर्ण विश्वास हो गया था कि अब वह अपने देश के प्रति किये गये दुर्व्यवहार का बदला ले सकता है। वास्तव में द्वितीय विश्वयुद्ध बदले की भावना पर आधारित था। पेरिस के शांति-सम्मेलन में मित्र राष्ट्रों ने जिस तरह से जर्मनी के साथ राजनीतिक और आर्थिक अन्याय किया था, उससे जर्मनवासी निरंतर स्वयं को अपमानित महसूस करते रहे थे और इस अपमान का प्रतिशोध लेने की आग उनके मनो-मस्तिष्क में सुलग रही थी जो अनुकूल अवसर पाते ही भड़क उठी।
1939 से 1945 तक चलनेवाले इस दूसरे विश्वयुद्ध में पूरा विश्व दो भागों में बँटा हुआ था- मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र। मित्र राष्ट्रों में ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत संघ, संयुक्त राष्ट्र अमरीका तथा उनके अन्य मित्र देश शामिल थे तो धुरी राष्ट्रों की ओर से इस महायुद्ध में जर्मनी, इटली और जापान थे। महायुद्ध में लगभग 70 देशों की थल-जल-वायु सेनाओं ने यूरोप, एशिया, अफ्रीका एवं प्रशांत क्षेत्रों में एक साथ अनेक लड़ाइयाँ लड़ी। यह महायुद्ध मानव इतिहास का सबसे ज्यादा घातक युद्ध साबित हुआ जिसमें जन-धन की भारी हानि हुई। इस विश्वयुद्ध में प्रथम विश्वयुद्ध से भी ज्यादा भयानक परमाणु अस्त्रों का प्रयोग किया गया, जिससे विश्व सभ्यता को छोटे से छोटे परमाणु अस्त्रों से ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुँचाने की युद्ध-कला का ज्ञान हुआ, जो आज संपूर्ण विश्व के लिए एक अभिशाप बन गया है।
द्वितीय विश्व युद्ध के कारण
कोई भी युद्ध अनायास आरंभ नहीं होता- इसकी पृष्ठभूमि पहले से निर्मित होती है। यूरोप के विभिन्न देश प्रथम विश्वयुद्ध से हुई अपनी तबाहियों एवं बर्बादियों की क्षतिपूर्ति करने में लगे थे और कुछ ऐसे राष्ट्र थे जो प्रथम विश्वयुद्ध में पराजित होने के कारण अपने-आपको अपमानित महसूस कर रहे थे और अपने अपमान का बदला लेने के लिए आक्रामक नीतियों का सहारा ले रहे थे। इस प्रकार युद्ध की परिस्थितियाँ धीरे-धीरे बनती जा रही थी।
विश्वयुद्ध का आरंभ 01 सितंबर, 1939 से माना जाता है जब जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण किया और फ्रांस ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। यद्यपि पोलैंड पर आक्रमण युद्ध का तात्कालिक कारण था, किंतु ऐसे बहुत से दूसरे कारण भी थे, जिन्होंने ऐसी स्थिति को उत्पन्न किया, जिसमें युद्ध को टालना असंभव हो गया था। द्वितीय विश्वयुद्ध के कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-
वर्साय की आरोपित संधि
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1919 में होनेवाले पेरिस शांति-सम्मेलन में न्याय, शांति तथा निःशस्त्रीकरण पर आधारित एक आदर्श विश्व-व्यवस्था को स्थापित करने का प्रयास किया गया था, लेकिन वर्साय संधि के रूप में अंततः जो उभर कर आया वह जर्मनी पर थोपी गई शांति-संधि थी। विजयी राष्ट्रों में उद्देश्य की गंभीरता का अभाव था और फ्रांस जर्मनी से अपनी 1871 की पराजय एवं अपमान का बदला लेने पर आमादा था। शांति-सम्मेलन में पराजित जर्मनी को युद्ध के लिए उत्तरदायी मानकर 28 जून, 1919 को दबाव और धमकी देकर वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया गया। जर्मनी को न केवल समुद्रपार के उपनिवेशों से बेदखल कर दिया गया, अपितु यूरोप में भी उसके आकार में पर्याप्त कटौती की गई। जर्मनी की सेना तथा नौसेना में भी भारी कटौती की गई और उसे किसी भी प्रकार की हवाई सेना रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जर्मनी को युद्ध-अपराध दोषी ठहराकर उसे विजयी राष्ट्रों को विशाल युद्ध-हर्जाना अदा करने को कहा गया। इस प्रकार वर्साय संधि के द्वारा जर्मनी को पूरी तरह विकलांग करके अपमानित किया गया। जर्मनी के लोग अनादर एवं अपमान का घूंट पीकर रह गये। फिलिप स्नाडेन ने कहा है कि यह एक शांति-संधि नहीं, वरन् दूसरे युद्ध की घोषणा है।
अपने देश के अपमान के कारण जर्मनी की जनता ने कभी वर्साय की संधि को स्वीकृति नहीं दी और आरंभ से ही इस संधि का विरोध करती आ रही थी। बीस वर्षों के बाद जब जर्मनी में हिटलर का एक शक्ति के रूप में उदय हुआ, तो उसने जर्मनी का नये सिरे से विकास करना शुरू किया। हिटलर ने समय और परिस्थिति के अनुकूल होते ही जर्मनवासियों को वर्साय संधि के अपमान का बदला लेने के लिए नेतृत्व किया। इस प्रकार वर्साय संधि के जुए को उतार फेंकने के प्रयास ने संपूर्ण विश्व को एक और महायुद्ध के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया।
सामूहिक सुरक्षा-व्यवस्था की असफलता
प्रथम विश्वयुद्ध के अंत में विश्व नेताओं ने सामूहिक सुरक्षा-व्यवस्था की शपथ ली थी। कहा गया था कि यदि किसी देश पर आक्रमण होगा तो राष्ट्रसंघ के सदस्यगण हमलावर देश के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध लगाकर या फिर आक्रमण के शिकार देश की सैनिक सहायता या दोनों कार्यवाहियों द्वारा हमलावर देश को युद्ध से हटने के लिए दबाव डालेंगे। किंतु बाद के वर्षों में जब किसी शक्तिशाली देश ने किसी छोटे देश पर आक्रमण कर अधिकार किया, तो राष्ट्रसंघ एक प्रभावहीन संगठन के रूप में मूकदर्शक बना रहा। सभी बड़े-बड़े यूरोपीय देशों में निजी स्वार्थ के कारण किसी मतैक्य का अभाव था, इसलिए राष्ट्रसंघ को बड़े राष्ट्रों का कोई सहयोग नहीं मिल सका।
1931 में जापान ने चीन पर आक्रमण किया और 1932 तक उसने चीन के मंचूरिया प्रांत को जीत लिया और जब लीग सदस्य राष्ट्रों से जापान के विरूद्ध कार्यवाही करने को कहा तो जापान ने लीग की सदस्यता ही छोड़ दी, किंतु विजित क्षेत्र पर अपना नियंत्रण बनाये रखा। 1933 में इटली ने अबीसीनिया के विरुद्ध युद्ध प्रारंभ कर उसे पराजित कर दिया और मई, 1936 में उसे औपचारिक तौर पर इटली साम्राज्य में मिला लिया। संघ ने सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था को लागू करने की कोशिश की, लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ क्योंकि इटली के विरुद्ध कोई सैनिक कार्यवाही नही की गई और इटली अब एक बड़ी शक्ति तथा संघ की कौंसिल का एक स्थायी सदस्य था। इसी प्रकार राष्ट्रसंघ के द्वारा उस समय जर्मनी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गई, जब उसने 1933 में जर्मनी ने सैन्य-सेवा अनिवार्य करके वर्साय संधि की धाराओं का पहली बार उल्लंघन किया। 1936 में जर्मनी ने राइन नदी के तट पर सेना भेजकर राष्ट्रसंघ को दूसरी चुनौती दी और संघ निंदा करने के अलावा कुछ नहीं कर सका। 1938-39 में जर्मनी ने लोकार्नो समझौते का उन्मुक्त तरीके से उल्लंघन किया और चेकोस्लोवाकिया के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया। इसके अलावा, जर्मनी ने राष्ट्रसंघ को ठेंगा दिखाते हुए जापान तथा इटली से, जिन्हें राष्ट्रसंघ ने अपनी सदस्यता से निष्कासित कर दिया था, संधि कर ली और मार्च, 1938 में आस्ट्रिया को हड़प लिया। जर्मनी के विरूद्ध राष्ट्रसंघ कोई कठोर कदम नहीं उठा सका, जिसके कारण यूरोप के अन्य देश असुरक्षा की भावना से ग्रसित होकर एक-दूसरे से संधियाँ करने लगे और पूरा यूरोप गुटबंदी का शिकार हो गया। इस प्रकार सामूहिक सुरक्षा-व्यवस्था की असफलता द्वितीय विश्वयुद्ध का एक महत्वपूर्ण कारण बन गई।
निरस्त्रीकरण की असफलता
वर्साय तथा पेरिस के शांति-सम्मेलन में यह हरसंभव प्रयास किया गया था कि भविष्य में युद्ध न छिड़ने पाये। शांति-सम्मेलन में यह सहमति हुई थी कि विश्व-शांति को तभी सुनिश्चित किया जा सकेगा, जब सभी राष्ट्र अपनी घरेलू सुरक्षा या रक्षा की आवश्यकताओं के अनुरूप अपने हथियारों में कटौती करें। इसका अभिप्राय था कि आक्रामक प्रवृत्ति के सभी हथियारों को नष्ट किया जाये। अनेक राष्ट्रों, विशेषकर फ्रांस ने निरस्त्रीकरण से पूर्व अपनी सुरक्षा पर जोर दिया और आक्रामक हथियारों की पहचान नहीं की जा सकी। फरवरी, 1932 में जनेवा का निशस्त्रीकरण सम्मेलन लंबी वार्ताओं के बावजूद आपसी अविश्वास तथा संदेह के कारण असफल हो गया।
शांति-सम्मेलन में विजयी देशों ने जर्मनी और अन्य पराजित देशों को हथियार-विहीन कर दिया गया था, लेकिन विजयी राष्ट्र हथियारविहीन होने को कौन कहे, अधिक से अधिक हथियार इकट्ठा करने मे लगे रहे। इस दोतरफा नीति के कारण जर्मनी ने 1933 में घोषित किया कि वह निशस्त्रीकरण सम्मेलन और राष्ट्रसंघ दोनों को छोड़ रहा है। बाद में 1935 में जर्मनी ने घोषणा की कि अब वह वर्साय संधि की सैनिक या निशस्त्रीकरण-संबंधी धाराओं को मानने के लिए बाध्य नहीं है। दूसरे देशों के पास पहले से ही विशाल मात्रा में शस्त्र एवं बड़ी सशस्त्र सेनाएँ विद्यमान थी। जर्मनी के निर्णय से व्यापक हथियारों की होड़ प्रारंभ हो गई, जिसके कारण सशस्त्र संघर्ष हुए। इस प्रकार निशस्त्रीकरण की असफलता भी द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए उत्तरदायी थी।
विश्वव्यापी आर्थिक मंदी
द्वितीय विश्वयुद्ध का एक प्रमुख कारण 1929-1932 की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी भी थी। इस आर्थिक मंदी के कारण न केवल इटली और जर्मनी के फासिस्टों के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ, बल्कि यूगोस्लाविया, पोलैंड, पुर्तगाल आदि देशों में भी तानाशाहों का उदय हुआ। जर्मनी, जापान तथा इटली ने इस आर्थिक आपदा को अवसर में बदल दिया और आक्रामक नीतियाँ अपनाने लगे।
वास्तव में अमरीकी वित्तीय घरानों द्वारा यूरोपीय देशों को अचानक आर्थिक सहायता रोक देने के साथ ही 1929 में पूरे विश्व में आर्थिक मंदी छा गई। जर्मनी में इस आर्थिक मंदी का भयानक प्रभाव 1930-32 के दौरान हुआ जब जर्मनी के 7,00,000 लोग बेरोजगार हो गये। जर्मनी को यह घोषणा करने के लिए बाध्य होना पड़ा कि वह अब और युद्ध-हर्जाने की अदायगी नहीं करेगा। आर्थिक असुरक्षा की भावना और अत्यधिक बेरोजगारी के कारण जर्मनी और इटली के जनसाधारण में उदारवादी और लोकतांत्रिक शासन के प्रति विद्वेष की भावना में वृद्धि हुई और वे निरंकुशता और फासीवाद की ओर आकर्षित होने लगे। आर्थिक संकट के कारण ही जर्मनी में एडोल्फ हिटलर और नाजीवाद का तथा इटली में मुसालिनी और फासीवाद का उदय हुआ। 1933 में जर्मनी का चांसलर बनते ही हिटलर ने लोकतंत्र को नष्ट कर दिया और अपनी तानाशाही की स्थापना कर दी। अंततः हिटलर के फासीवादी गठबंधन ने संपूर्ण विश्व को महायुद्ध के समीप लाकर खड़ा कर दिया।
निरंकुश राजतत्रों की स्थापना
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद की गई संधियों से अनेक राष्ट्र असंतुष्ट थे। इन असंतुष्ट राष्ट्रों को लगता था कि वे अपने सम्मान की वापसी बलप्रयोग के द्वारा ही कर सकते हैं। यही कारण है कि धीरे-धीरे इटली, जापान तथा जर्मनी जैसे देशों में गणतंत्र के प्रति विश्वास समाप्त हो़ता गया और निरंकुशता के प्रति विश्वास बढ़ता गया। इस विश्वास को उस समय और बल मिला जब इटली में मुसोलिनी, जर्मनी में हिटलर और जापान में निरंकुश शासकों का उत्थान हुआ। जब इन तीनों शक्तियों ने एंटी कामिन्टर्न समझौता किया तो उसे साम्यवाद की विरोधी संधि कहा गया, जबकि इस संधि का मुख्य उद्देश्य तीनों देशों को अपनी तानाशाही की आवश्यकताओं की पूर्ति करना था। इसका उदाहरण 1937 में तब देखने को मिला जब स्पेन के गृहयुद्ध में इटली और जर्मनी की सहायता से जनरल फ्रैंकों ने निरंकुश शासन की स्थापना की। अंततः यही निरंकुश शासक द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण बने।
दो विचारधाराओं का संघर्ष
द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व दो प्रकार की विचारधाराएँ प्रचलित थीं- जनतंत्रात्मक और एकतंत्रात्मक। जनतंत्रात्मक विचारधारा इंग्लैंड, फ्रांस और अमेरिका में प्रचलित थी, जबकि इटली, जर्मनी और जापान एकतंत्रात्मक विचारधारा के समर्थक थे। शीघ्र ही इन दोनों विचारधाराओं में संघर्ष आरंभ हो गया। इन दोनों विचारधाराओं में संघर्ष होना निश्चित था जिसका एक मात्र रास्ता युद्ध ही था। इटली में मुसोलिनी ने तानाशाही के जरिये एक नये प्रकार की शासन-व्यवस्था कायम की, जिसे फासिज्म कहा जाता है। एक बार मुसोलिनी ने कहा था, ‘‘दोनों विचारधाराओं के संघर्ष में समझौता होना असंभव है। इस संघर्ष के कारण या तो हम रहेंगे अथवा वे रहेंगे।’’ इटली की भाँति जर्मनी में हिटलर का उदय हुआ, जिसने नाजीवाद की स्थापना कर निःशस्त्रीकरण की नीति को त्यागकर सैनिकवाद की नीति अपनाई। इन अधिनायकवादियों के आक्रामक तेवर ने ही विश्व को एक अन्य महायुद्ध की ज्वाला में झोंक दिया। इन दो यूरोपीय देशों के अलावा एक एशियाई राष्ट्र जापान ने भी अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपनी सैन्य-शक्ति में वृद्धि की और संयुक्त राज्य अमेरिका को द्वितीय विश्वयुद्ध में घसीट लिया।
इंग्लैंड और फ्रांस की तुष्टीकरण की नीति
इंग्लैंड और फ्रांस की तुष्टीकरण की नीति ने भी द्वितीय महायुद्ध के आरंभ होने में निर्णायक भूमिका निभाई। इंग्लैंड की तुष्टीकरण पर आधारित विदेश नीति से फासिस्टों और नाजियों को प्रोत्साहन मिला। वास्तव में ब्रिटेन की विदेश नीति का आधार शक्ति-संतुलन का सिद्धांत था। ब्रिटेन को लगता था कि शक्तिशाली फ्रांस यूरोप के शक्ति-संतुलन में बाधा डाल सकता था, इसलिए उसने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के वर्षों में फ्रांस के विरुद्ध जर्मनी की सहायता की। इसके अलावा, ब्रिटेन साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव से चिंतित था। उसे न केवल सोवियत संघ को प्रभावशाली ढंग से चुनौती देनी थी, अपितु फ्रांस तथा स्पेन में तथाकथित लोकप्रिय मोर्चे को भी नष्ट करना था। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटेन ने हिटलर और मुसोलिनी के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनाई। फलतः जर्मनी द्वारा सैनिकों की भर्ती अनिवार्य करने, राइनलैंड पर सेना भेजने जैसे अवैधानिक कार्यों पर ब्रिटेन ने कोई आपत्ति नहीं की। फ्रांस ने भी शीघ्र ही ब्रिटेन की नीति का अनुसरण किया। तुष्टीकरण का प्रारंभ बाल्डविन ने किया था, लेकिन 1938 में नोविल चेम्बरलेन ने इसको गहनता से जारी रखा। अबीसीनिया युद्ध के दौरान और म्युनिख सम्मेलन में ब्रिटेन और फ्रांस ने मुसोलिनी और हिटलर के सम्मुख पूरी तरह समर्पण कर दिया। म्युनिख समझौते के बाद चेम्बरलेन ने बड़े गर्व से कहा था कि वह शांति का उपहार लाया है। वास्तव में चेम्बरलेन को लगता था कि साम्यवादी रूस के विरूद्ध इन तानाशाही शक्तियों का प्रयोग किया जा सकता है। इसलिए उसने इटली द्वारा अबीसीनिया, जापान द्वारा मंचूरिया और जर्मनी द्वारा आस्ट्रिया को अधिकृत किये जाने कुछ नहीं किया और इन मुसोलिनी और हिटलर की भूख बढ़ती गई। स्पेन के गृहयुद्ध में जर्मनी और इटली द्वारा दी जानेवाली सहायता पर भी किसी ने कोई आपत्ति नहीं की। इंग्लैंड और फ्रांस की तुष्टीकरण की नीति से त्रस्त होकर रूस 1939 में जर्मनी के साथ ‘अनाक्रमण समझौता’ कर बैठा, जिससे जर्मनी की स्थिति और मजबूत हो गई। इस प्रकार ब्रिटेन तथा फ्रांस की तुष्टीकरण की नीतियों ने विश्वयुद्ध के लिए एक आधार तैयार कर दिया।
रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी
द्वितीय विश्वयुद्ध की पूर्व संध्या पर भी यूरोप दो शत्रुतापूर्ण खेमों में विभाजित था। इस दिशा में सबसे पहले फ्रांस ने जर्मनी के चारों ओर के छोटे-छोटे राष्ट्रों को मिलाकर एक गुट बनाया था। इस गुट के विरोध में जर्मनी और इटली ने मिलकर एक दूसरे गुट का निर्माण कर लिया था। जर्मनी और इटली द्वारा बनाये गये इस गुट में 1936-37 के दौरान कामिन्टर्न-विरोधी समझौते के माध्यम से जापान भी शामिल हो गया। फासीवादी ताकतों के इस साम्यवाद-विरोधी गठजोड़ को सामान्यतः ‘रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी’ कहा जाता है।
धुरी राष्ट्रों के इस गठबंधन ने युद्ध का गुणगान किया और खुले तौर पर झगड़ों के शांतिपूर्ण निबटारे का तिरस्कार किया। इन्होंने पश्चिमी देशों को धमकाया और चीन, आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया, अल्बानिया तथा पोलैंड जैसे छोटे देशों को उत्पीडित किया। इनके द्वारा किये गये युद्धों और आक्रमणों के लिए इनको दंडित नहीं किया गया। धुरी शक्तियों के व्यवहार से चिंतित होकर इंग्लैंड तथा फ्रांस एक दूसरे के समीप आये और एक आंग्ल-फ्रांसीसी-सोवियत मोर्चा बनाने का असफल प्रयास किया। यद्यपि फ्रांस तथा सोवियत संघ का गठबंधन था, लेकिन जब फ्रांस और इंग्लैंड ने अपनी तुष्टीकरण की नीति के कारण सोवियत संघ की अवहेलना की तो सोवियत संघ ने 1939 में जर्मनी के साथ गैर-आक्रमण समझौता कर पूरी दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया। इससे प्रत्यक्ष रूप में पोलैंड पर जर्मन आक्रमण का मार्ग प्रशस्त हो गया और यही द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण बन गया।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की समस्या
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद होनेवाली शांति-संधियों के परिणामस्वरूप यूरोप में कई नये राष्ट्र-राज्यों के निर्माण हुआ था, लेकिन इन समझौतों में बड़ी संख्या में राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की स्थिति की कोई परवाह किये बगैर उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया गया था। संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्रपति विल्सन ने आत्मनिर्णय के सिद्धांत की वकालत की थी। लेकिन इस सिद्धांत को उचित तरीके से लागू नहीं किया गया, जैसे- विशाल जर्मन अल्पसंख्यकों को पोलैंड तथा चेकोस्लोवाकिया में गैर-जर्मनों की संगत में छोड़ दिया गया था, पोलैंड और रूमानिया में रूसी अल्पसंख्यक थे। पेरिस शांति-सम्मेलन के बाद होनेवाली अल्पसंख्यक संधियों के बावजूद 7,50,000 जर्मन विदेशी शासन के अधीन थे। हिटलर ने इस स्थिति का लाभ उठाया और चेकोस्लोवाकिया एवं पोलैंड में जर्मन अल्पसंख्यकों के अधिकारों के हनन के नाम पर आक्रमण की तैयारी की। उसने आस्ट्रिया को जर्मनी अधीन कर लिया, चेकोस्लोवाकिया को नष्ट और अस्तित्वविहीन कर दिया और अंततः पोलैंड को रौंद डाला। इस प्रकार अल्पसंख्यकों की समस्या एक महत्वपूर्ण प्रश्न और युद्ध के लिए एक बड़ा बहाना बन गया।
तत्कालीन परिस्थितियाँ
यह निर्विवाद है कि द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रमुख कारण वर्साय की संधि ही थी, जिससे जर्मनी सर्वाधिक प्रभावित और अपमानित हुआ था। यदि वर्साय की संधि में थोड़े-बहुत परिवर्तन कर जर्मनी को कुछ छूट दे दी गई होती तो संभव है कि जर्मनी के घावों पर कुछ मरहम लग जाता। लेकिन फ्रांस जर्मनी को किसी भी प्रकार की छूट देने के पक्ष में नहीं था, इसलिए जर्मनी को लगता था कि उसे अपने अपमान का बदला लेने के लिए स्वयं ही कुछ करना होगा और यह शांति से तो नहीं ही होगा। हिटलर ने जब जर्मनी की सत्ता सँभाली तो विश्वयुद्ध की भूमिका तैयार होने लगी, यद्यपि सिंहासनारूढ होते ही उसने घोषणा की कि वह शांति का पक्षपाती है। यूरोप को विश्वास में लेने के लिए हिटलर ने 1934 में पोलैंड से और 1935 में इंग्लैंड से संधि भी की। इसके बाद धीरे-धीरे वह अपने उद्देश्यों की पूर्ति करता रहा।
जब विश्व राजनीति में हिटलर के पाँव जमने लगे तो उसने राइनलैंड पर अपनी सेना भेजकर अपनी मंशा जाहिर करनी शुरू कर दी। आस्ट्रिया पर अधिकार करने के बाद भी जब कोई विरोध नहीं हुआ और म्यूनिख समझौते द्वारा चेकोस्लावाकिया के सुडेटनवर्ग पर अधिकर कर लिया तो उसकी भूख और बढ़ गई और उसने यह मान लिया कि अब वह जो भी चाहेगा, प्राप्त कर लेगा, अन्यथा युद्ध तो अंतिम हथियर है ही। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हिटलर ने पोलैंड और ब्रिटेन से की गई संधियों को भी ठुकरा दिया और युद्ध के लिए बहाना ढूढने लगा। शीघ्र ही हिटलर को यह बहाना भी मिल गया।
तात्कालिक कारण
हिटलर ने पोलैंड से डेंजिंग और पोलिश कारीडोर की माँग की ताकि वह जर्मनी के लिए एक मोटर एवं रेलगाड़ी के लिए रास्ता बना सके। यही माँग द्वितीय विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण बन गई। इसके अलावा, हिटलर ने समाचारपत्रों के माध्यम से इस बात को प्रचारित करना शुरू किया कि पोलिश लोग वहाँ निवास करनेवाले जर्मन लोगों पर निर्मम अत्याचार कर रहे हैं। इस प्रकार हिटलर ने पोलैंड को इस बात के लिए विवश कर दिया कि वह या तो उसकी माँगें स्वीकार करे या युद्ध के लिए तैयार हो जाये। जब पोलैंड ने जर्मनी की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया, तो हिटलर ने 1939 में स्टालिन के साथ एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध न करने के लिए गैर-आक्रामण समझौता कर लिया। यह बिलकुल भी अपेक्षित नहीं था क्योंकि नाजी जर्मनी और सोवियत संघ के बीच कई वर्षों तक केवल घृणा विद्यमान थी। अब जर्मनी तथा सोवियत संघ दोनों पोलैंड का विभाजन करने के लिए उत्सुक थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रारंभ और प्रमुख घटनाएँ
द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ होने के कुछ माह पहले ब्रिटेन तथा फ्रांस दोनों ने पोलैंड को आश्वस्त करते हुए यह गारंटी दी थी कि यदि पोलैंड पर आक्रमण होता है, तो ब्रिटेन और फ्रांस उसकी हर संभावित सहायता करेंगे। किंतु जब जर्मनी ने 1 सिंतंबर, 1939 को पोलैंड पर पश्चिम की ओर से आक्रमण कर दिया और युद्ध टालने तथा पोलैंड की रक्षा के सभी प्रयास असफल हो गये, तो ब्रिटेन और फ्रांस ने 3 सितंबर, 1939 को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, यद्यपि ये घोषणाएँ प्रतीक मात्र थीं क्योंकि ब्रिटेन एवं फ्रांस अभी युद्ध की तैयारियों में व्यस्त थे, जबकि पोलैंड को नष्ट किया जा रहा था।
पोलैंड का बँटवारा
पोलैंड की सेनाओं ने जर्मन सेनाओं का वीरतापूर्वक सामना किया, किंतु जब रूस की सेनाओं ने 17-18 सितंबर, 1939 को पोलैंड पर पूरब की ओर से आक्रमण किया, तो पोलैंड पराजित हो गया और 28 सितंबर, 1939 की मित्रता-संधि द्वारा जर्मनी एवं सोवियत संघ ने पोलैंड का बँटवारा कर लिया।
इसी बीच स्टालिन ने नाजी-सोवियत समझौते के तहत तीन बाल्टिक राष्ट्रों- लातविया, लिथुआनिया तथा इस्टोनिया को अपने संघ गणराज्यों के रूप में सोवियत संघ में सम्मिलित होने के लिए बाध्य किया। बाद में सोवियत संघ को फिनलैंड पर आक्रमण करने के कारण राष्ट्रसंघ से निष्कासित कर दिया गया।
फ्रांस पर आक्रमण
आरंभिक विजय के बाद हिटलर ने अपने सेनापतियों को संबांधित करते हुए कहा था, ‘‘मैं एक भयानक जुआ खेल रहा हूँ। मुझे विजय और विनाश में से किसी एक को चुनना है।’’
1940 के प्रारंभ में जर्मनी ने डेनमार्क तथा नीदरलैंड पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने वर्साय का बदला लेने के लिए बेल्जियम होते हुए फ्रांस पर आक्रमण कर दिया। डन्किर्क के युद्ध में जर्मन सेना ने फ्रांस व इंग्लैंड की सेनाओं को बुरी तरह पराजित किया। फलतः 22 जून, 1940 को फ्रांस ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस विजय से फ्रांस के विस्तृत भूभाग पर जर्मनी का अधिकार हो गया।
महायुद्ध में इटली प्रवेश
जिस समय फ्रांस पराजय और आत्मसमर्पण के कगार पर था, उसी समय 10 जून, 1940 को इटली फ्रांस के सेवाय, नीस, कोर्सिका आदि पर अधिकार करने के इरादे से मित्र राष्ट्रों के विरूद्ध जर्मनी की ओर से युद्ध में शामिल हो गया और युद्ध यूनान और उत्तरी अफ्रीका तक फैल गया। जर्मन सेना की सहायता से इटली ने यूनान पर अधिकार भी कर लिया।
ब्रिटेन पर आक्रमण और बमबारी
महाद्वीपीय यूरोप का बड़ा भाग अपने अधीन करने के बाद अगस्त, 1041 में जर्मनी ने इंग्लैंड पर पूरी शक्ति के साथ आक्रमण किया और 7 सितंबर, 1940 से मई, 1941 तक लंदन पर बमबारी अभियान चलाया। ब्रिटेन के लंदन और अन्य बड़े नगरों पर की गई बमबारी में हजारों लोग मारे गये और अपार संपत्ति का नुकसान हुआ। इतना होने पर भी इंग्लैंड ने साहस नहीं छोड़ा। चर्चिल ने जनता का उत्साह बढ़ाते हुए कहा था कि, ‘‘हम घुटने नहीं टेकेंगे, हम अंत तक लड़ेंगे, हम समुद्रतटों पर लड़ेंगे, हम मैदानों में, सड़कों पर, पहाडि़यों पर लड़ेंगे, हम कभी नहीं झुकेंगे।’’ ब्रिटेन ने भी मुँहतोड़ जवाब देते हुए जर्मनी के जहाजों को नष्ट करना शुरू किया। यद्यपि अमेरिका अभी तक तटस्थता की नीति अपना रहा था, लेकिन वह मित्र राष्ट्रों की हरसंभव मदद कर रहा था। इसी वर्ष चर्चिल और अमेरिका के राष्ट्रपति रुजवेल्ट के बीच एटलांटिक संधि हुई।
सोवियत संघ पर आक्रमण
इंग्लैंड के विरूद्ध आशातीत सफलता न मिलने पर 22 जून, 1941 को नाजी तानाशाह ने 1939 की गैर-आक्रमण संधि का उल्लंघन करते हुए बिना सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया। दरअसल हिटलर को लगा कि रूस ने इंग्लैंड और अमरीका ने संधि कर ली है और रूस जर्मनी पर कभी आक्रमण कर सकता है। इसलिए हिटलर ने इंग्लैंड को पराजित करने के पूर्व रूस को कुचलना जरूरी समझा। वैसे भी हिटलर और साम्यवादी रूस परिस्थितिवश एक-दूसरे का साथ दे रहे थे। रूस पर आक्रमण के दौरान हिटलर ने मुसोलिनी को लिख था कि, ‘‘सोवियत संघ के साथ मैत्री निभाना बहुत कष्टप्रद हो गया था। इससे मुझे अत्यधिक मानसिक क्लेश हो रहा था। अब मैं शांति का अनुभव कर रहा हूँ।’ लेकिन रूस पर आक्रमण हिटलर की भूल साबित हुई। रूसी सेना ने अपनी वीरता के बल पर जर्मनी को अपने उद्देश्य में सफल नहीं होने दिया। हिटलर के आक्रमण से सोवियत संघ मित्र राष्ट्रों के खेमों में चला गया और जुलाई, 1941 में लंदन तथा मास्को के बीच एक सैनिक समझौते पर हस्ताक्षर भी हो गये।
महायुद्ध में जापान और अमेरिका का प्रवेश
जापान 1937 से ही चीन के विरुद्ध युद्ध की स्थिति में था और कुछ समय तक तटस्थ बना रहा। किंतु दिसंबर, 1941 में जापान ने अमरीका के मध्य प्रदेश पर्ल हार्बर (हार्बर द्वीप) में स्थित नौसेना के अड्डे पर बमवर्षा कर संयुक्त राज्य अमरीका और ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
संयुक्त राज्य अमेरिका की नीति
संयुक्त राज्य अमरीका का जनमत उसके युद्ध में उलझने का विरोधी था और 1937 में अमरीकी कांग्रेस ने तटस्थता अधिनियम को पारित कर भविष्य के युद्ध में हथियारों की बिक्री पर रोक लगा दी थी। किंतु जब वास्तव में युद्ध आरंभ हो गया, तो नवंबर, 1939 में कैश एवं कैरी अधिनियम पारितकर अमरीकी हथियारों को युद्ध में शामिल देशों को कुछ शर्तो पर खरीदने की अनुमति दे दी गई। इस प्रकार अमेरिका ने ब्रिटेन तथा चीन जैसे अपने मित्र राष्ट्रों को हथियारों की आपूर्ति प्रारंभ कर दी।
जापान के साथ अमरीकी रिश्ते कभी-भी सौहार्दपूर्ण नहीं रहे थे और अमरीका में लगी जापानी संपत्ति को पहले से ही जब्त कर लिया गया था। 6 दिसंबर, 1941 को राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने शांति बनाये रखने के लिए जापानी सम्राट जनरल तोजो से व्यक्तिगत आग्रह किया था, किंतु अगले ही दिन 7 दिसंबर, 1941 को जापानी सैनिकों ने शांति के बजाय पर्ल हार्बर पर भारी बमबर्षा की, जिससे बाध्य होकर 8 दिसंबर, 1941 को संयुक्त राज्य अमरीका को भी मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध में शामिल होना पड़ा। चर्चिल और रूजवेल्ट ने एटलांटिक चार्टर की घोषणा की। इस दौरान जापान ने हांगकांग, गुआम, वेक द्वीप समूह, सिंगापुर और ब्रिटिश मलाया पर हमला कर दिया।
धुरी ताकतों की पराजय की शुरूआत
1942 में उत्तरी अफ्रीका में आगे बढ़ती धुरी सेनाओं ने मिस्र, अल्जीरिया, त्रिपोली आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लिया, लेकिन 1943 में मित्र राष्ट्रों पर लगाम तब लगी, जब पहले तो जापान सिलसिलेवार कई नौसैनिक झड़पें हार गया और उत्तरी अफ्रीका में धुरी ताकतें पराजित हो गई। 1943 में जर्मनी पूर्वी यूरोप में कई युद्धों में पराजित हुआ। विश्वयुद्ध में निर्णायक मोड़ उस समय आया जब जर्मनी को 1 फरवरी, 1943 को स्तालिनग्राड में पराजित होकर आत्मसमर्पण करना पड़ा।
मित्र राष्ट्रों का इटली पर आक्रमण
10 जुलाई, 1943 को मित्र देशों ने इटली पर हमला बोल दिया और शीघ्र ही संपूर्ण इटली पर अधिकार कर लिया। 25 जुलाई, 1943 को इटली के राजा की पूरी शक्ति लौट आई और मुसोलिनी का पतन हो गया। दूसरी ओर अमेरिका ने भी प्रशांत महासागर में जीत दर्ज करनी शुरु कर दी, जिसके कारण धुरी राष्ट्रों को सभी मोर्चों पर पीछे हटना पड़ा। 28 अप्रैल, 1945 को मुसोलिनी अपने ही देशवासियों द्वारा पकड़ लिया गया और मार दिया गया।
जर्मनी की पराजय और हिटलर का पतन
इटली को पराजित करने के बाद मित्र राष्टों ने 1944 में नार्वे पर अधिकार कर लिया और फ्रांस को जर्मनी से मुक्त करा लिया। इंग्लैंड और अमेरिका की वायु सेना ने जर्मनी पर भीषण आक्रमण किये, जिससे जन-धन का भारी नुकसान हुआ। इसके बाद इंग्लैंड और अमेरिका की सेनाओं ने पश्चिम की ओर से तथा सोवियत संघ ने पूरब की ओर से जर्मनी और उसके सहयोगी देशों पर हमला बोल दिया। अप्रैल-मई, 1945 में सोवियत और पोलैंड की सेनाओं ने बर्लिन पर अधिकार कर लिया। 23 अप्रैल, 1945 को हिटलर ने आत्महत्या कर ली। अंततः 7 मई, 1945 को जर्मनी की सेना ने बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया, जिससे यूरोप में दूसरे विश्वयुद्ध का अंत हो गया।
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जापान की पराजय और आत्मसमर्पण
जापान अभी भी युद्ध में व्यस्त था, लेकिन 1944 और 1945 के दौरान अमेरिका ने कई युद्धों में जापानी नौसेना को पराजित किया और पश्चिमी प्रशांत के कई द्वीपों पर अधिकार कर लिया। 29 जुलाई, 1945 को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने जापान को चेतावनी दी कि यदि उसने आत्मसमर्पण नहीं किया, तो जापान को तबाह कर दिया जायेगा, लेकिन जापान ने युद्ध जारी रखा। फलतः अमेरिका ने 6 अगस्त, 1945 को जापान के हिरोशिमा नगर पहला परमाणु बम (कूट नाम ‘लिटिल बॉय’) गिराया, जिसमें लगभग 1,40,000 लोग मारे गये। जापान सरकार से ओर कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर 9 अगस्त, 1945 को एक दूसरा परमाणु बम (कूट नामफैटमैन) नागासाकी पर गिराया गया, जिसमें लगभग 80,000 लोग मारे गये। परमाणु हमले की तबाही से जापान का साहस टूट गया, फलतः 14 अगस्त, 1945 को जापान ने अमेरिका की सभी शर्तें मान ली और आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार 15 अगस्त, 1945 को एशिया में भी दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हो गया। जापान ने 2 सितंबर, 1945 को आत्मसमर्पण के औपचारिक दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिया।
द्वितीय विश्वयुद्ध का स्वरूप
उद्भव और घटनाओं की दृष्टि से द्वितीय विश्वयुद्ध प्रथम विश्वयुद्ध से पूरी तरह भिन्न था। प्रथम विश्वयुद्ध के उत्तरदायी कारणों की पहचान आज भी विवादग्रस्त है, किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए उत्तरदायी एक मात्र देश जर्मनी और एक मात्र व्यक्ति हिटलर था। वास्तव में यदि आरंभ में ही पश्चिमी मित्र राष्ट्र हिटलर की आक्रामक और अनैतिक गतिविधियों पर अंकुश लगाये होते, तो हो सकता है कि विश्व इस विनाशकारी युद्ध के दौर से बच जा़ता। हिटलर की अनैतिक और आक्रामक गतिविधियों को बढ़ावा देने में इंग्लैंड और फ्रांस की ही मुख्य भूमिका रही। स्टालिन के साथ हिटलर के समझौते ने यथार्थ में युद्ध को अनिवार्य कर दिया था।
द्वितीय विश्वयुद्ध में सम्मिलित देशों ने क्रूरता, निदर्यता और बर्बरता की सार सीमाओं को तोड़ दिया। एक अनुमान के मुताबिक इस युद्ध में लगभग 12 मिलियन सैनिक मारे गये और 24 मिलियन लोग घायल और विकलांग हो गये। संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा जापान पर बम गिराने के कारण 1,60,000 की जन-हानि हुई। यही नहीं, करीब 25 मिलियन लोग भूख, बीमारी, विस्थापन आदि कारणों से मारे गये। वास्तव में दूसरे विश्व युद्ध के समय हताहत लोगों की वास्तविक संख्या कभी नहीं जानी जा सकती क्योंकि इनमें बहुत-सी मौतें तो बम ब्लास्ट, नर-संहार, भूख और युद्ध से जुडी अन्य गतिविधियों के कारण हुई थीं। धन और संपत्ति की दृष्टि से जर्मनी, रूस और इटली की अधिक क्षति हुई, किंतु सर्वाधिक जन-हानि रूस की हुई। एक अनुमान के अनुसार इस युद्ध में लगभग 1000 बिलियन डॉलर खर्च हुए थे, जिसमें केवल अमेरिका ने 350 बिलियन डॉलर खर्च किये थे। इस प्रकार दूसरा विश्वयुद्ध मानव जाति के लिए विनाशकारी युद्ध सिद्ध हुआ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रमुख परिणाम
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप का राजनीतिक भूगोल परिवर्तित हो गया। यूरोपीय प्रभुत्व का अंत हो गया और पूरा विश्व दो गुटों- पूँजीवादी और साम्यवादी में बँट गया। संयुक्त राज्य अमेरिका पूँजीपतियों का नेतृत्व कर रहा था, जबकि रूस साम्यवाद का नेतृत्व कर रहा था। विश्वयुद्ध के पश्चात् अमेरिका और रूस में शीतयुद्ध शुरू हो गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध का सर्वाधिक विनाशकारी परिणाम परमाणु के विशाल शक्ति के ज्ञान का था। अमरीका ने 6 और 9 अगस्त, 1945 को जापान के नगरों- हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम का विस्फोट कर जो तबाही मचाई, उससे विश्व को परमाणु बम की विनाशकारी शक्तियों का ज्ञान हुआ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रभाव कुछ क्षेत्रों में लाभकारी भी रहे, जैसे-परमाणु के ज्ञान से संपूर्ण विश्व के देश विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास हुआ। एशिया तथा अफ्रीका के औपनिवेशिक देशों को 1940 से लेकर 1960 के दशकों में मिलनेवाली स्वतंत्रता द्वितीय विश्वयुद्ध के ही परिणाम थे। विश्व के प्रत्येक भाग में नव स्वतंत्रता प्राप्त देशों में राष्ट्रवादी भावना का विकास द्वितीय विश्वयुद्ध की ही देन है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संपूर्ण विश्व में विकसित तथा विकासशील देशों के मध्य आर्थिक उत्थान की प्रक्रिया को लेकर तीव्र प्रतिस्पर्धा शुरू हुई। इस प्रक्रिया को नवउपनिवेशवाद या नवसाम्राज्यवाद की संज्ञा दी जाती है।
विश्वयुद्ध के कारण प्रत्येक राष्ट्र ने अपनी अर्थव्यवस्था को उन्मुक्त करने का प्रयास आरंभ किया और विश्व-व्यापार संधियाँ होने लगीं। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध स्वरूप और परिणाम की दृष्टि से प्रथम विश्वयुद्ध से एकदम भिन्न था।
प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर द्वितीय विश्वयुद्ध का बीजारोपण हुआ, वहीं द्वितीय विश्वयुद्ध ने सभी युद्धरत देशो को यह शिक्षा दी कि युद्ध का मतलब विनाश है और युद्धों से दूर रहकर ही विकास किया जा सकता है।
इस महायुद्ध का सबसे सुखदायी परिणाम था संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना। 24 अक्टूबर, 1945 को ‘संयुक्त राष्ट्रसंघ’ की स्थापना करके और उसे समस्त प्रशासनिक और कानूनी अधिकार देकर अंतर्राष्ट्रीय संगठन का स्वरूप दिया गया।
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