अंग्रेजों की औपनिवेशिक नीतियाँ और भारतीय रियासतें
अंग्रेजों ने भारत पर औपनिवेशिक सत्ता स्थापित करने के लिए जो नीतियाँ अपनाईं, उनके परिणामस्वरूप भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग एक-चौथाई हिस्से पर भारतीय राजाओं और महाराजाओं का शासन बना रहा। इन रियासतों की संख्या 565 थी, जो छोटी-बड़ी सभी प्रकार की थीं। हैदराबाद, मैसूर और कश्मीर जैसी रियासतें आकार में कई यूरोपीय देशों के बराबर थीं, जबकि कुछ रियासतों की जनसंख्या मात्र कुछ हजार थी। भारतीय रियासतों के उदय के मुख्य कारण वही थे, जिन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी को शक्तिशाली बनाया। उत्तर-मुगल काल में कई रियासतें स्वायत्त या अर्ध-स्वायत्त इकाइयों के रूप में उभरीं।

भारतीय रियासतों के प्रति ब्रिटिश नीति
1857 के विद्रोह से पहले अंग्रेज भारतीय रियासतों को हड़पने का कोई अवसर नहीं चूकते थे। लेकिन 1857 के विद्रोह के बाद उन्होंने अपनी नीति बदल दी। इस विद्रोह के दौरान कई रियासतों ने न केवल अंग्रेजों के प्रति वफादारी दिखाई, बल्कि विद्रोह को दबाने में सक्रिय सहायता भी की। वायसराय केनिंग ने कहा था कि ये राजा तूफान में ‘तरंगरोधकों’ की तरह थे। विद्रोह के अनुभव ने ब्रिटिश अधिकारियों को विश्वास दिलाया कि जनता के विरोध या विद्रोह की स्थिति में ये रियासतें उनके लिए कारगर सहयोगी हो सकती हैं। इसलिए इन रियासतों को साम्राज्य के आधार के रूप में बनाए रखना ब्रिटिश नीति का सिद्धांत बन गया। हालाँकि, ब्रिटिश सरकार ने रियासतों के विलय की नीति को त्याग दिया था, लेकिन इसके बदले में रियासतों को अंग्रेजी सत्ता की ‘सर्वोच्चता’ स्वीकार करनी पड़ी। अंग्रेजों ने इन रियासतों को आंतरिक और बाहरी खतरों से सुरक्षा की गारंटी दी थी।
अधिकांश भारतीय रियासतों में निरंकुश और स्वेच्छाचारी शासन प्रचलित था। राजा-महाराजा अपनी विलासिता के लिए राजकोष का मनमाना उपयोग करते थे। कई रियासतों में वैभव और विलासिता के नाम पर धन का अपव्यय होता था। किसान दमन का शिकार थे और ब्रिटिश शासन की तुलना में रियासतों में मालगुजारी और कर अत्यधिक और असहनीय थे। कई रियासतों में भू-दास प्रथा, गुलामी और बेगार प्रचलित थीं। शिक्षा का कोई विशेष प्रबंध नहीं था; स्वास्थ्य और अन्य सामाजिक सेवाएँ अत्यंत पिछड़ी थीं, और प्रेस की स्वतंत्रता, कानूनी शासन तथा नागरिक अधिकारों का कोई सम्मान नहीं था। इस प्रकार अधिकांश रियासतें आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी थीं। हालाँकि इस स्थिति के लिए केवल रियासतें ही जिम्मेदार नहीं थीं। इस दुर्दशा के लिए अंग्रेजी हुकूमत भी काफी हद तक उत्तरदायी थी। पहले के इतिहास में आंतरिक विद्रोह और बाहरी आक्रमणों ने राजाओं की मनमानी पर कुछ हद तक अंकुश रखा था, लेकिन ब्रिटिश शासन ने उन्हें इन खतरों से सुरक्षित कर दिया, जिसके बाद वे अपने शासन का दुरुपयोग करने लगे।
कभी-कभी रियासतों के राजा ब्रिटिश भारत की राजनीति में रुचि लेते थे। उदाहरण के लिए 20वीं सदी के शुरुआती वर्षों में अलवर और भरतपुर के राजा हिंदू राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक थे। अलवर के राजा जयसिंह इतने कट्टर देशभक्त थे कि वे यूरोपियनों से बिना दस्ताने पहने हाथ तक नहीं मिलाते थे। भरतपुर में वित्तीय अनियमितताओं के आरोप में राजा को हटाए जाने के बाद आर्य समाज, कांग्रेस और जाट महासभा के गठजोड़ ने इस क्षेत्र को राजस्थान में राष्ट्रवाद का प्रमुख केंद्र बना दिया। कुछ दूरदर्शी शासक अपनी रियासतों में प्रशासनिक सुधार लागू करते थे और जनता की भागीदारी का ध्यान रखते थे। फिर भी, अधिकांश राजा-महाराजा अंग्रेजी राज के प्रति वफादार थे। ब्रिटिश सरकार इनका उपयोग राष्ट्रीय एकता को बाधित करने और उभरते राष्ट्रीय आंदोलन का मुकाबला करने के लिए करती थी।
20वीं सदी के पहले दशक में जब गरमपंथ और हिंसा का प्रभाव बढ़ा और फिर दूसरे दशक में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हुआ, तो राजाओं और महाराजाओं ने युद्धकोष में उदारतापूर्वक दान दिया, सैनिक सेवाएँ प्रदान कीं और अपनी रियासतों में सैनिक भर्ती को प्रोत्साहित किया। इसके बाद जब असहयोग आंदोलन ने उपमहाद्वीप को झकझोरा, तो इन राजाओं ने अपने क्षेत्रों में इस आंदोलन को रोकने में ब्रिटिश सरकार की सहायता की। 1921 में जब कांग्रेस ने प्रिंस ऑफ वेल्स के दौरे का बहिष्कार किया, तो राजाओं के उत्साहपूर्ण स्वागत के कारण ही वह दौरा कुछ हद तक सम्मानजनक रहा।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद रियासतों की माँगें
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारतीय रियासतों ने अपनी सेवाओं के बदले अधिक संवैधानिक स्वतंत्रता, ब्रिटिश भारत की राजनीतिक उथल-पुथल से सुरक्षा और साम्राज्य की सलाह-मशविरा प्रक्रिया में अधिक भागीदारी की माँग की। फलस्वरूप फरवरी 1921 में 120 सदस्यों वाला ‘नरेंद्र मंडल’ (चैंबर ऑफ प्रिंसेज) स्थापित किया गया, ताकि राजा-महाराजा एक साथ मिलकर ब्रिटिश मार्गदर्शन में अपने साझा हितों पर विचार-विमर्श कर सकें। इससे रियासतें अंग्रेजी साम्राज्य की अनुग्रहीत इकाइयाँ बन गईं और उन्हें साम्राज्य का स्वतंत्र अंग स्वीकार किया गया। हालाँकि इस चैंबर ने राजाओं के भौतिक और राजनीतिक अलगाव को तोड़ा, लेकिन ‘सर्वोच्चता’ की भावना और राजनीतिक परंपराओं के बढ़ते प्रभाव के कारण वे चिंतित भी होने लगे।
देसी रियासतों में राजनीतिक चेतना
देसी रियासतें ब्रिटिश भारत से पूरी तरह कटी हुई नहीं थीं और उनकी सीमाएँ कभी अभेद्य नहीं रहीं। इनमें ब्रिटिश भारत से राष्ट्रवादी राजनीति और सांप्रदायिक तनाव लगातार प्रवेश करते थे। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रसार ने रियासतों में भी लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों और उत्तरदायी शासन के प्रति जागरूकता बढ़ाई। 20वीं सदी के पहले और दूसरे दशक में ब्रिटिश भारत से भागकर रियासतों में आए क्रांतिकारियों ने जनता में राजनीतिक चेतना जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1920 के असहयोग आंदोलन ने रियासतों को सबसे अधिक प्रभावित किया। उदाहरण के लिए मेवाड़ में बिजौलिया आंदोलन और सिरोही में मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में भील आंदोलन गांधीजी से प्रेरित थे। मोतीलाल को ‘स्थानीय गांधी’ कहा गया, हालाँकि गांधीजी ने इस आंदोलन से दूरी बना ली थी।
20वीं सदी के तीसरे दशक तक लगभग सभी रियासतों में ‘प्रजामंडलों’ के रूप में जन-आंदोलन उभरे, जो संवैधानिक परिवर्तन, जनतांत्रिक अधिकार और लोकप्रिय सरकार की माँग कर रहे थे। मैसूर, हैदराबाद, उड़ीसा, त्रावणकोर, इंदौर, ग्वालियर और काठियावाड़ जैसी रियासतों में राजनीतिक गतिविधियों के समन्वय के लिए ‘स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस’ का गठन हुआ। बाद में यह संगठन ‘ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस’ से जुड़ गया, जिसकी स्थापना 1927 में हुई थी और जिसका मुख्यालय बंबई में था। इस संगठन ने लोकतांत्रिक अधिकारों और संवैधानिक सुधारों की माँग उठाई। अधिकांश रियासतों ने इन माँगों का जवाब दमन और प्रतिशोध से दिया, लेकिन बड़ौदा, मैसूर, त्रावणकोर और कोचीन जैसी कुछ रियासतों ने सीमित दायरे में सुधार शुरू किए।
कांग्रेस की रियासतों में अहस्तक्षेप नीति
मैसूर और त्रावणकोर जैसी कुछ रियासतों में कांग्रेस की राजनीति ने गहरी पैठ बना ली थी, फिर भी 1920 के दशक तक कांग्रेस रियासतों के मामलों में हस्तक्षेप से बचती रही और राजाओं के परंपरागत प्रभुसत्ता के अधिकारों को मान्यता देती रही। 1920 में नागपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार रियासतों के प्रति अपनी नीति स्पष्ट की। एक प्रस्ताव पारित कर रियासतों के राजाओं से उत्तरदायी सरकार के गठन की माँग की गई और रियासतों की जनता को कांग्रेस की सदस्यता लेने की अनुमति दी गई। साथ ही, यह हिदायत दी गई कि रियासतों में कांग्रेस के नाम पर कोई राजनीतिक गतिविधि शुरू नहीं की जाएगी। लोग व्यक्तिगत रूप से या स्थानीय संगठनों के माध्यम से ही ऐसी गतिविधियों में भाग ले सकते थे।
कुछ इतिहासकारों ने कांग्रेस की इस अहस्तक्षेप नीति को राष्ट्रीय आंदोलन के लिए लाभकारी माना है। उनका तर्क है कि ब्रिटिश भारत और देसी रियासतों के राजनीतिक हालात भिन्न थे और प्रत्येक रियासत की स्थिति भी एक-दूसरे से अलग थी। रियासतों में नागरिक स्वतंत्रता का अभाव था, संगठन बनाने का अधिकार नहीं था और जनता अत्यधिक गरीबी व पिछड़ेपन से ग्रस्त थी। सबसे महत्वपूर्ण यह कि कानूनी रूप से ये रियासतें स्वायत्त थीं। वास्तव में, कांग्रेस जानबूझकर राजाओं की प्रभुसत्ता को बनाए रखने के लिए अहस्तक्षेप की नीति अपनाए रही।
1928 में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव के माध्यम से राजाओं से प्रतिनिधिक संस्थाओं पर आधारित उत्तरदायी शासन लागू करने का आग्रह किया और रियासतों की जनता के वैध व शांतिपूर्ण संघर्षों के प्रति सहानुभूति व समर्थन व्यक्त किया। 1929 के लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू ने घोषणा की: “देसी रियासतें शेष भारत से अलग नहीं रह सकतीं। उनकी तकदीर का फैसला केवल वहाँ की जनता ही कर सकती है।” बाद के वर्षों में भी कांग्रेस ने रियासतों में जनता के मौलिक अधिकारों की बहाली की माँग उठाई। लेकिन यह मौखिक समर्थन रियासतों की जनता और कांग्रेस की गुप्त शाखाओं के लिए अधिक मायने नहीं रखता था। जब सविनय अवज्ञा आंदोलन से प्रेरित होकर राजकोट, जयपुर, कश्मीर, हैदराबाद और त्रावणकोर जैसी रियासतों में जन-संघर्ष शुरू हुए, तो भावनगर, जूनागढ़ और काठियावाड़ जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर अंग्रेजों के समर्थक राजा-महाराजा कांग्रेसी गतिविधियों का दमन करने में उतने ही विश्वसनीय रहे। कई राजाओं ने सांप्रदायिकता का सहारा लिया; जैसे, हैदराबाद के निज़ाम ने जन-आंदोलनों को ‘मुस्लिम-विरोधी’, कश्मीर के महाराजा ने ‘हिंदू-विरोधी’ और त्रावणकोर के महाराजा ने ईसाइयों से प्रेरित करार दिया।
इन वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने राजाओं को राष्ट्रवादी शक्तियों के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। लेकिन जब राष्ट्रवादी नेताओं ने राजाओं की आंतरिक स्वतंत्रता को चुनौती दी, तो वे बौखला उठे। इसका एक कारण यह भी था कि अंग्रेज अधिकारी ‘सर्वोच्चता’ की सीमाओं को लगातार बढ़ाते रहे। 1928 में सर हारकोर्ट बटलर की अध्यक्षता में गठित ‘इंडियन स्टेट्स कमेटी’ ने 1929 की अपनी रिपोर्ट में राजाओं को केवल यह आश्वासन दिया कि उनकी सहमति के बिना ब्रिटिश भारत में लोकतांत्रिक सरकार को सर्वोच्चता नहीं हस्तांतरित की जाएगी, लेकिन साथ ही असीमित सर्वोच्च सत्ता पर बल दिया। इससे सर्वोच्चता का सिद्धांत पहले से कहीं अधिक विस्तृत हो गया। दो पाटों के बीच फँसकर राजा-महाराजा राजनीति में रुचि लेने लगे और नरमपंथी नेताओं से संपर्क बढ़ाने लगे।
संघीय योजना और देसी रियासतें
1930 के दशक के मध्य में दो परस्पर जुड़े घटनाक्रमों ने रियासतों की स्थिति को प्रभावित किया। पहला था 1935 का भारत सरकार अधिनियम, जिसने रियासतों को ब्रिटिश भारत के साथ जोड़कर संघीय ढाँचा बनाने का प्रस्ताव दिया। इसकी शुरुआत 1928 की नेहरू रिपोर्ट में हुई थी। संघ का विचार रियासतों को ब्रिटिश सर्वोच्चता से मुक्ति और आंतरिक स्वतंत्रता की रक्षा का अवसर प्रतीत हुआ। लेकिन सभी राजा इस पर सहमत नहीं थे, और पटियाला के महाराजा इस समूह के नेता थे। 11 मार्च 1932 को दिल्ली समझौता हुआ, जिसे 1 अप्रैल 1932 को ‘चैंबर ऑफ प्रिंसेज’ ने अनुमोदित किया। संघ की माँग को संवैधानिक रूप दिया गया, लेकिन इसमें कुछ शर्तें थीं, जैसे ऊपरी सदन में सभी राजाओं के लिए अलग-अलग सीटें, संधियों से प्राप्त अधिकारों की रक्षा और संघ से अलग होने का अधिकार, जिन्हें अंग्रेज और राष्ट्रवादी दोनों अस्वीकार करते।
अंग्रेजों को संघ का विचार पसंद था, क्योंकि राजा राष्ट्रवादी नेताओं की काट करते थे, लेकिन उनका संघ राजाओं के विचार से भिन्न था। 2 अगस्त 1935 को भारत सरकार अधिनियम को शाही स्वीकृति मिली, पर यह राजाओं के बहुमत को संतुष्ट नहीं कर सका। रियासतों से प्रतिनिधि चुनने का अधिकार राजाओं को दिया गया, जिनकी संख्या संघीय विधानमंडल की एक-तिहाई थी। कांग्रेस, स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस और अन्य जन-संगठनों ने माँग की कि जनता स्वयं अपने प्रतिनिधि चुने, क्योंकि राजाओं के एजेंट जनता का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते थे। अंततः यह योजना लागू नहीं हुई।
1937 में ब्रिटिश भारत के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस की शानदार जीत ने राजाओं को बौखला दिया। इससे रियासतों की जनता में नई चेतना जागी और राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हुईं। कई रियासतों में उत्तरदायी शासन और सुधारों के लिए आंदोलन शुरू हुए। जहाँ जन-संगठन नहीं थे, वहाँ प्रजामंडल बने। कांग्रेस अब सत्ता में थी और पड़ोसी रियासतों को प्रभावित कर सकती थी, लेकिन वह अभी भी अहस्तक्षेप की नीति पर कायम थी। जयपुर, कश्मीर, राजकोट, पटियाला, हैदराबाद, मैसूर, त्रावणकोर और उड़ीसा में प्रजामंडलों ने बड़े आंदोलन चलाए, लेकिन ब्रिटिश रेजिडेंट्स के संरक्षण में राजाओं ने दमन किया और कांग्रेस चुपचाप देखती रही।
कांग्रेस की हस्तक्षेपवादी नीति
1930 के दशक के उत्तरार्ध में नेहरू और बोस जैसे समाजवादी नेता रियासतों को ब्रिटिश भारत के साथ जोड़ने के लिए हस्तक्षेप की वकालत करने लगे। अक्टूबर 1937 में कांग्रेस कार्यसमिति ने रियासतों के जन-आंदोलनों को नैतिक और भौतिक समर्थन देने का निर्णय लिया। 1938 के हरिपुरा सत्र में अहस्तक्षेप की नीति त्यागकर जन-आंदोलनों के समर्थन का प्रस्ताव पारित हुआ। हालाँकि संगठनात्मक सहायता नहीं दी गई, लेकिन नेताओं को व्यक्तिगत रूप से भाग लेने की अनुमति थी। कांग्रेस ने देखा कि रियासतों की जनता जागरूक और संघर्ष के लिए तैयार थी। समाजवादी और वामपंथी गुट पहले से ही इसके लिए दबाव डाल रहे थे। 25 जनवरी 1938 को ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को दिए साक्षात्कार में गांधीजी ने कहा: “रियासतों में हस्तक्षेप न करने की नीति तब सही थी, जब जनता जागरूक नहीं थी। अब, जब जनता जागरूक और संघर्ष के लिए तैयार है, पुरानी नीति अपनाना कायरता होगी।” 1938 में कांग्रेस ने अपनी स्वाधीनता की परिभाषा में रियासतों की स्वतंत्रता को शामिल किया। फरवरी 1939 में नेहरू ने ‘ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस’ के लुधियाना अधिवेशन की अध्यक्षता की, और त्रिपुरी कांग्रेस ने रियासतों के आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की योजना को मंजूरी दी। इससे ब्रिटिश भारत और रियासतों के आंदोलन एकजुट हो गए, जिससे पूरे भारत में एकता की नई चेतना फैली।
1938 के अंत और 1939 की शुरुआत में कांग्रेस के समर्थन से प्रजामंडलों और ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के नेतृत्व में मैसूर, जयपुर, राजकोट, त्रावणकोर, कश्मीर और हैदराबाद में तीव्र जन-आंदोलन हुए। मैसूर और राजकोट जैसी छोटी-मझोली रियासतें इस उभार के लिए तैयार नहीं थीं, इसलिए उन्होंने कुछ रियायतें दीं। लेकिन बड़ी रियासतों ने कड़ा विरोध किया और बाद में उन्हें अंग्रेजों का समर्थन मिला। राजकोट में गांधीजी ने नेतृत्व किया, लेकिन जब प्रदर्शन हिंसक हो गए, तो अप्रैल 1939 में उन्होंने आंदोलन वापस ले लिया।
1939 तक राजाओं को लगने लगा कि कांग्रेस अपना असली रंग दिखा रही है। जनवरी 1939 में लिनलिथगो के संशोधित प्रस्ताव को ‘चैंबर ऑफ प्रिंसेज’ ने जून में अस्वीकार कर दिया। अगस्त 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के शुरू होने से राजनीतिक माहौल बदल गया और भारत सचिव जेटलैंड ने संघ की योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
द्वितीय विश्वयुद्ध और देसी रियासतें
नवंबर 1939 में कांग्रेसी सरकारों के इस्तीफे और ‘भारतीय प्रतिरक्षा कानून’ के लागू होने से रियासतों में राजनीतिक गतिविधियाँ ठप हो गईं। लेकिन 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन ने रियासतों में भी स्वतंत्रता की भावना जगा दी। रियासतों में ‘भारत छोड़ो’ के नारे गूँजे और उन्हें भारत का अभिन्न अंग बनाने की माँग उठी।

1945-47 में हैदराबाद, त्रावणकोर, कश्मीर और पटियाला में जन-आंदोलनों ने जोर पकड़ा, जिसमें अधिक राजनीतिक अधिकार और संविधान सभा में प्रतिनिधित्व की माँग की गई। नेहरू ने 1945 में उदयपुर और 1947 में ग्वालियर में अखिल भारतीय राज्य जन-सम्मेलन की अध्यक्षता की और चेतावनी दी कि संविधान सभा में शामिल न होने वाली रियासतों के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया जाएगा।
सत्ता-हस्तांतरण और देसी रियासतें
सत्ता-हस्तांतरण के समय 565 रियासतों का भविष्य जटिल समस्या बन गया। ब्रिटिश सम्राट ने संधियों के तहत रियासतों की रक्षा का वचन दिया था। 1946 में कैबिनेट मिशन ने घोषणा की कि सत्ता-हस्तांतरण के साथ ‘सर्वोच्चता’ समाप्त हो जाएगी और रियासतें स्वतंत्र होंगी। इस घोषणा ने राजाओं को स्वतंत्रता का भ्रम दिया। माउंटबेटन की ‘बाल्कन योजना’ ने भी इसे स्पष्ट नहीं किया। बाद में माउंटबेटन ने राजाओं को समझाया कि वे रक्षा, विदेशी मामले और संचार जैसे क्षेत्रों में अधिकार त्यागकर भारत में शामिल हों। सरदार पटेल, जो नए राज्य विभाग के प्रमुख थे, इस योजना से सहमत हुए, बशर्ते सभी रियासतें शामिल हों। लेकिन भोपाल, त्रावणकोर, कश्मीर और हैदराबाद ने स्वतंत्रता की इच्छा जताई।

सरदार वल्लभभाई पटेल और रियासतों का विलय
माउंटबेटन ने दबाव डालकर अधिकांश रियासतों को रक्षा, विदेशी मामले और संचार पर अधिकार त्यागकर भारत में शामिल होने के लिए राजी किया। 15 अगस्त 1947 तक अधिकांश रियासतें विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर चुकी थीं। लेकिन कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ ने स्वतंत्रता चुनी। जूनागढ़ के नवाब के पाकिस्तान भागने के बाद भारतीय सेना ने वहाँ नियंत्रण स्थापित किया। कश्मीर में पाकिस्तानी हमले के बाद हरिसिंह ने अक्टूबर 1947 में भारत में विलय किया। हैदराबाद में ‘ऑपरेशन पोलो’ के तहत सितंबर 1948 में भारतीय सेना ने नियंत्रण स्थापित किया।

सरदार पटेल और वी.पी. मेनन की रणनीतियों से रियासतों का एकीकरण संभव हुआ। छोटी रियासतों का प्रजातंत्रीकरण कर उन्हें प्रांतों या संघीय केंद्र में शामिल किया गया। राजाओं को विशेषाधिकार, पेंशन और औपचारिक पद देकर हटाया गया।
रियासतों के विलय का औचित्य
रियासतों के विलय पर इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ ने ब्रिटिश संधियों के उल्लंघन और माउंटबेटन के रवैये की आलोचना की, तो कुछ को पटेल के तरीकों की वैधता संदिग्ध लगती है। लेकिन अधिकांश मानते हैं कि निरंकुश रियासतों का अंत ऐतिहासिक रूप से अपरिहार्य था, क्योंकि वे नए भारत में प्रासंगिक नहीं थे। दो अलग भारतों का विरोधाभास समाप्त होना अनिवार्य था।










