सामाजिक अंतर्विरोध एवं वर्ण व्यवस्था का उद्भव (Social Contradiction and Emergence of Varna System)

सामाजिक अंतर्विरोध

उत्तर-पूर्व से पशुचारी आर्य जनजातियों के भारत में प्रवेश का सिलसिला हड़प्पा सभ्यता के पराभव के कुछ शताब्दियों बाद शुरू हुआ। आर्यों के आगमन से भारत में अनेक सामाजिक और राजनीतिक समस्याएँ उत्पन्न हुईं। आर्यों के उपमहाद्वीप में प्रवेश के समय सिंधुघाटी की नागर सभ्यता भले ही विघटित हो चुकी हो, लेकिन उसकी प्राक्-आर्य आबादी अपने पुरोहितों और आम जनों सहित संभवतः जंगलों और छोटी बस्तियों में बिखर गई थी। आर्यों के साथ उनके संघर्ष और उनकी पराजय के बाद उन्हें दास बनाये जाने के प्रचुर प्रमाण ऋग्वेद में मौजूद हैं। यही नहीं, आगे बढ़ते हुए अन्य अनार्य कबीलों से भी आर्यों के टकराव और उन्हें पराभूत करके अपनी सामाजिक व्यवस्था में घुला-मिला लेने की ओर मिथकीय और भाषा-शास्त्रीय साक्ष्य भी संकेत करते हैं। विजित द्रविड़ जाति के पीछे सभ्यता की एक लंबी पृष्ठभूमि थी, किंतु विजेता आर्य अपने को श्रेष्ठ समझते थे, इसलिए दोनों के बीच एक चौड़ी खाई विद्यमान थी। जो जमीन भी वे जोतने-बोने लगे थे, वह अभी तक कबीले की साझा संपत्ति ही थी। पशुपालन से कृषि की ओर बढ़ते हुए अधिशेष के उत्पादन और श्रम विभाजन के आदि-प्रारूप का धीरे-धीरे विकास हुआ और इसी के साथ समाज में सामाजिक-आर्थिक विभेदीकरण और वर्गों के बनने की प्रक्रिया शुरू हुई और आगे बढ़ी। दान-स्तुतियों में जनजातीय मुखियों के कुछ विशिष्ट समूहों को भेंटस्वरूप दास देने के उदाहरण मिलते हैं। अधीनस्थ श्रम और खाद्य उत्पादन की परिष्कृत तकनीकों के साथ आर्य जनजातियाँ पूरब की ओर दोआब क्षेत्र में आगे बढ़ीं और नई स्थायी बस्तियाँ बसाने लगीं। आर्यों-अनार्यों के परस्पर क्रिया और प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप ही वर्ण-व्यवस्था की शुरुआत हुई। संभवतः यह न तो आर्यों की देन थी और न ही द्रविड़ों की। दरअसल यह अलग-अलग जातियों को एक सामाजिक संगठन के अंदर लाने की एक साझा कोशिश का परिणाम थी।

जाति या वर्ण का आरंभ आर्यों और अनार्यों के भेद से हुआ। प्रारंभ में आर्यों में एक ही वर्ग था और व्यवसायों का बँटवारा नहीं हुआ था। घुमंतू जनजातियों के लिए रक्त की शुद्धता का कोई मतलब नहीं था और आनुवंशिक तौर पर आर्य कोई एक नस्ल नहीं थे, किंतु नृजातीय अर्थों में वे अपनी पृथक अस्मिता के प्रति सचेत अवश्य थे। वर्ण-भेद, जिसका आरंभिक तात्पर्य अनार्यों को आर्यों से अलग करना था, अब स्वयं आर्यों के ज्यों-ज्यों धंधे बढ़े और इनका आपस में बँटवारा हुआ, त्यों-त्यों नये वर्गों ने वर्ण या जाति का रूप धारण किया। इस प्रकार जिस युग में विजेता विजितों को या तो दास बना लेते थे या उन्हें बिल्कुल मिटा देते थे, वर्ण-व्यवस्था ने एक शांतिपूर्ण समाधान प्रस्तुत किया। बढ़ते व्यवसायों के बँटवारे की आवश्यकता ने इसमें सहायता पहुँचाई जिससे समाज में वर्ग स्थापित हुए।

पशुपालन से कृषि और बस्तियाँ बनाने की ओर उन्मुख आर्य जनजातियों के पुरोहित समुदाय के साथ प्राक्-आर्य और अन्य अनार्य जनजातियों के पुरोहितों के घुल-मिल जाने की प्रक्रिया एक अकाट्य तथ्य है और ब्राह्मण वर्ण के उद्गम को इसी प्रक्रिया में देखा जा सकता है। कालांतर में कई विदेशी, विशेषकर, सीथियन पुरोहिती समुदायों के भी ब्राह्मण वर्ण में घुल-मिल जाने (कढ़दा या मग ब्राह्मण) के ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं। किसान जनता में से वैश्य बने, जिसमें किसान, कारीगर और व्यापारी लोग थे। क्षत्रिय वे हुए जो शासन करते थे या युद्ध करते थे। ब्राह्मण वे बने जो पुरोहिती करते थे, विचारक थे, जिनके हाथ में नीति की बागडोर थी और जिनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे जाति के आदर्शों की रक्षा करेंगे। इन तीनों वर्णों से नीचे शूद्र थे, जो मजदूरी करते थे और ऐसे धंधे करते थे, जिनमें किसी विशेष ज्ञान और कौशल की आवश्यकता नहीं होती थी। इस वर्ण-विभाजन में अदला-बदली होती रही और कठोरता के साथ भेद तो बाद में स्थापित हुआ। संभवतः शासन करनेवाले वर्ग को सदैव वही स्वतंत्रता रही, और कोई भी, जो लड़कर या दूसरी तरह शक्ति अपने हाथ में कर लेता था, यदि वह चाहे, तो क्षत्रियों में सम्मिलित हो सकता था और पुरोहितों के माध्यम से अपनी वंशावली तैयार करा सकता था।

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सबसे प्रारंभिक वैदिक साक्ष्यों से आर्य और दास या दस्यु दो वर्णों का उल्लेख मिलता है। आर्यों का पशुधन कबीले की सामुदायिक संपत्ति हुआ करती थी और निजी संपत्ति की परिघटना अभी विकसित नहीं हुई थी। वर्ण (वर्ग नहीं) की दिशा में पहला कदम उस समय उठाया गया, जब आर्यों ने दासों को सामाजिक परिधि से बहिष्कृत किया। संभवतः उन्हें इस बात का भय था कि दासों के साथ घुलने-मिलने से आर्यत्त्व अक्षुण्ण नहीं रह सकेगा। प्रत्यक्ष रूप में यह अंतर मुख्यतः रंग का था-दास काले रंग और भिन्न संस्कृति के थे। जाति के लिए प्रयुक्त होने वाले संस्कृत शब्द ‘वर्ण’ का अर्थ रंग ही होता है। इस संपूर्ण कालावधि में जाति के रंग पर बल दिया जाता रहा क्योंकि उस समय भारत में रहनेवाली आदिवासी जनजातियों के काले रंग की तुलना में आर्य गौरवर्णी थे।

यह मानना कि शूद्र वर्ण का निर्माण आर्य-पूर्व लोगों से हुआ था उतना ही एकांगी है, जितना कि यह समझना कि उस वर्ण में मुख्यतः आर्य ही थे। वस्तुतः आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं के कारण आर्य और आर्येतर, दोनों ही वर्गों में श्रमिक समुदाय का उदय हुआ और यही श्रमिक कालांतर में शूद्र कहलाये। साधारणतया, मान्य समाजशास्त्रीय सिद्धांत है कि वर्ग-विभाजन बराबर सजातीय असमानता से मूलतः संबद्ध होता है। ऋग्वेद में गैर-आर्य जातियों को काली, लाल और चपटी नाकवाली आदि बतलाया गया है और इसके साथ ‘म्लेच्छ’, ‘नीच’, कमीन’, ‘अपराधमना’ और न जाने कितने ही घृणास्पद विशेषणों से इन्हें विभूषित किया गया है। कालांतर में जब समय-प्रवाह में आर्यों तथा गैर-आर्यों में रक्त-संबंध बनते गए तो नृशास्त्रीय अर्थ में ‘आर्य’ शब्द तथा शरीर के रंग के अर्थ में ‘वर्ण’ शब्द पूरी तरह अर्थ-विहीन होकर अपना मूल अर्थ खो बैठे। पुरुषसूक्त (10.90) में चतुर्वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) का सर्वप्रथम उल्लेख स्पष्ट ही बाद के संकलन का द्योतक है। पहले विजेता आर्यों की एक ही जाति थी, किंतु धीरे-धीरे जीवन की संसृष्टता ने वर्ण-व्यवस्था उत्पन्न की। ऋग्वेद के अन्य भागों के संकेत एक ही वर्ण की व्यवस्था के बोधक हैं। जन्, विश्, गण, व्रात, सार्ध आदि जिन इकाइयों का उल्लेख ऋग्वेद में है, वे सभी भईचारा वाले सिद्धांत पर आधारित थीं। यही नहीं, तथाकथित निम्न वर्ग अर्थात् शूद्रों पर किसी भी तरह की अपात्रताएँ नहीं लगाई गईं थीं, अपितु समाज के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया था। कोई भी विशेषाधिकार संपन्न वर्ग नहीं था- यहाँ तक कि राजन् भी संपूर्ण कबीले के अन्य लोगों के समान ही था-यो वः सेनानीर्महतो गणस्य राजा व्रातस्य प्रथमो वभूव।

ऋग्वेद में वर्ण-व्यवस्था के विपरीत विभिन्न व्यवसायों में एक ही परिवार के लगे रहने के उल्लेख मिलते हैं। वर्णों के बीच सामाजिक भेदभाव बतानेवाला एकमात्र पूर्वकालीन संदर्भ अथर्ववेद में पाया जाता है जिसमें यह कहा गया है कि ब्राह्मण को, राजन्य प्राप्त और किसी वैश्य की तुलना में किसी नारी का पहला पति बनने का अधिकार प्राप्त है। सामाजिक उत्पादन में पुरुषों के समान स्त्रियों की निर्बाध भागीदारी के कारण वर्णगत अथवा जातिगत भेदभाव पैदा नहीं हो सके थे। ऋग्वैदिक समाज में सामाजिक शक्ति का भेदभाव था, और अधिशेष उत्पादन के अभाव में वर्गभेद की परिस्थितियों का उदय नहीं हो सका। किंतु लूट का एक बड़ा हिस्सा मुखियों और पुरोहितों को मिलने से स्तर-विभाजन की यह प्रकिया मजबूत होती चलती थी। पुरोहितों का दावा था कि उनके मंत्रोच्चार और प्रार्थनाओं से ही नायकों को सफलता मिलती है और वे ही देवताओं के साथ संवाद स्थापित कर सकते हैं। इससे लगता है कि वर्ण समाज की रूपरेखा ऋग्वेद के अंतिम काल में बनने लगी थी जिसे पुरुषसूक्त जैसे क्षेपकों में देखा जा सकता है।

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यद्यपि ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में आर्य और दास के लिए हुआ है, किंतु इससे किसी ऐसे व्यापक श्रम-विभाजन का संकेत नहीं मिलता, जो परवर्ती काल में समाज के व्यापक वर्गीकरण का आधार हुआ। आर्य वर्ण और दास वर्ण दो बृहद् जनजातीय समूह थे जो सामाजिक वर्गों के रूप में विघटित हो रहे थे। ऋग्वेद के संकलन से आरंभिक अवस्था में सामाजिक वर्गभेद के धीरे-धीरे और क्रमिक रूप से पनपने का आभास मिलता है। उसमें ‘ब्राह्मण’ शब्द का प्रयोग पंद्रह बार और ‘क्षत्रिय’ शब्द का प्रयोग नौ बार हुआ है। युद्ध में अपहरण की गई संपत्ति से जनजाति के नेताओं का ऐश्वर्य और सामाजिक दर्जा अवश्य बढ़ा होगा और उन्होंने मवेशी और दासियों का दान कर पुरोहितों का संरक्षण प्राप्त किया होगा। ऋग्वेद में रथ पर जाते हुए यजमान को ‘धनवान’ दाता और सभाओं में संस्तुत के रूप में चित्रित किया गया है। ऋग्वेद के अन्य कई संदर्भों से पता चलता है कि अपने बांधवों का गला दबाकर भी संपत्ति इकट्ठी करने की प्रवृत्ति कुछ आर्यों में पाई जाती थी। लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपनी संचित संपत्ति में से इंद्र तथा अन्य देवताओं को यज्ञ में धनराशि अर्पित करें, जिससे इस धन में फिर दूसरों को कुछ हिस्सा प्राप्त हो सके। परंतु लूट के माल का अधिकांश जब वे अपने पास रखने लगे तो आर्थिक और सामाजिक विषमता का जन्म हुआ।

ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच विभाजन का एक भौतिक आधार पशुपालन के ही दौर से मौजूद था। पशुपालक कबीलों में प्रायः दो अभिजात श्रेणियाँ उभरती देखी गई हैं- ब्राह्मण और राजन्य। ऋग्वेद की दान-स्तुतियों में भी जो दो समूह एक-दूसरे को प्रतिष्ठा-पद देते हैं, वे ब्राह्मण और राजन्य ही हैं। ब्राह्मण, राजन्य की ओर से देवताओं से प्रार्थना करता है और उसके लिए युद्ध तथा गो-हरण में सफलता सुनिश्चित करता है, और यह सफलता राजन्य को शक्ति और राजनीतिक प्रतिष्ठा से संपन्न करती है। उधर राजन्य, ब्राह्मणों को संपत्ति प्रदान करते हैं, और इस प्रकार उन्हें आय का एक प्रमुख स्रोत उपलब्ध कराते हैं। साथ ही, राजन्यों के लिए सफलता सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में निहित उनकी चमत्कारिक शक्ति को धार्मिक और अंततः वैधानिक स्वीकृति प्रदान करते हैं। कृषि की अवस्था में भी धार्मिक अनुष्ठानों की महत्ता मौजूद थी, देवता बढ़ गये थे और पूजा के रीति-विधान जटिल हो गये थे। साथ ही समाज व्यवस्था संचालन के लिए धार्मिक आचार-संहिता बनाने का महत्व बढ़ गया था। पुरोहिती और वर्ण व्यवस्था को संरक्षण देने के अतिरिक्त कृषि-कार्य के नियमन के लिए पंचांग के महत्व और इस विद्या पर ब्राह्मणों के एकाधिकार ने भी ब्राह्मणों की स्थिति को मजबूत बनाया।

ताम्र-पाषाणिक पशुचारी-कृषक संस्कृतियाँ 

जहाँ तक संपत्ति के पुनर्वितरण का संबंध था, लगता है अब यज्ञों के माध्यम से होनेवाला पुनर्वितरण भी उन्हीं दो सामाजिक समूहों, अर्थात् ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों तक सीमित होकर रह गया था। इस बदली हुई परिस्थिति में जिनके पास संपत्ति थी, उनके और कबीले के बाकी लोगों के बीच अंतर पैदा हो गया होगा।

चातुर्वर्ण्य में घुलने-मिलने की क्रिया केवल ब्राह्मणों के स्तर पर ही नहीं हुई। राजन्य या क्षत्रिय भी इससे उतने ही प्रभावित थे क्योंकि आक्रमणों और विद्रोहों के कारण सशस्त्र शक्ति पर वंशगत एकाधिकार बनाये रख पाना कठिन था। विजित जनजातियों के मुखियाओं को भी कई बार राजन्य वर्ण में शामिल कर लिया जाता था। आगे चलकर नये भूभाग पर (अथवा विद्रोह करके) अपनी सत्ता स्थापित करने वाले कई शूद्र राजा भी क्षत्रिय मान लिये गये। उसके बाद तक बाहर से आक्रमण करके राज्य स्थापित करने वाले शासकों के कालांतर में क्षत्रिय मान लिये जाने के साक्ष्य भी मिलते हैं। पुरोहितों और शासकों को कुछ सुनिश्चित भेंट देकर शूद्रों के स्वतंत्र कृषक बन जाने के भी उदाहरण मिलते हैं।

उत्तर वैदिक काल में पश्चिमी गंगा-घाटी में चावल की खेती का महत्त्व बढ़ने लगा। खेतीबारी के चलते संपत्ति की अवधारणा भी धीरे-धीरे बदल गई। हजारों की तादाद में मवेशियों और घोड़ों के साथ दासियों, रथों और स्वर्ण से आगे बढ़कर आर्थिक मूल्य की वस्तु के रूप में भूमि को भी संपत्ति में शामिल किया जाने लगा। कृषि-कर्म ने मुखिया के लिए शक्ति के एक अलग किस्म के आधार को बढ़ावा दिया जिसमें क्षेत्र की अवधारणा ने परिवर्तित होकर भूमि पर स्वामित्त्व का रूप ले लिया। यह स्थिति शब्दावली में परिवर्तन के रूप में भी अभिव्यक्ति पाती है जहाँ राजन्य अभिशक्त मुखिया होते हुए भी, क्षत्रियों के और भी व्यापक समूह का अंग बन जाता है। ‘क्षत्रिय’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘क्षत्र’ से हुई है जिसका अर्थ है ‘शक्ति’। क्षत्रिय-समूह के सत्ताधारी मुखिया जटिल और आडंबरपूर्ण यज्ञीय अनुष्ठानों की शंृखलाओं के माध्यम से राजतंत्र की दिशा में और भी आगे बढ़ते गये। इन अनुष्ठानों में दैवी-संबंध का अनुमोदन सम्मिलित था, जो इस प्रकार नई व्यवस्था को वैध ठहरानेवाले बन गये और इस प्रक्रिया में प्रसंगवश उन्होंने स्वयं भी अपनी स्थिति सुधार ली एवं सामाजिक पदानुक्रमता के लिए सर्वश्रेष्ठ अनुष्ठान का भी दावा किया। यही नहीं, राजा का पद बहुत बड़ी सीमा तक धार्मिक अनुमोदन पर टिका हुआ था, जैसाकि उर्वरता और समृद्धि के साथ राजपद के संबंधित होने से स्पष्ट होता है। इस संबंध की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति अक्सर राजा को वर्षा करानेवाला मानने के रूप में होती है। इस बात का उल्लेख बार-बार आता है कि अधार्मिक राजा अनावृष्टि के लिए उत्तरदायी है। बहुत-सी कहानियों में उल्लिखित है कि बारह वर्ष के सूखे के बाद वर्षा तब हुइर्, जब सिंहासन उसके न्यायोचित अधिकारी को सौंपा गया।

ग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि ‘क्षत्र’ गोत्र को उसी प्रकार खाते हैं जैसे हिरण फसल को। ‘विश’ या गोत्र स्वयं भी परिवर्तन की एक प्रक्रिया से गुजर चुका था जिसमें कुटुंब का कर्ता अर्थात् ‘गृहपति’ धीरे-धीरे एक स्पष्ट सामाजिक तत्त्व के रूप में उभरकर सामने आ चुका था। बाद के समय में, ‘गृहपति’ का उल्लेख अक्सर ‘वैश्य’ (विश से उत्पन्न) के रूप में होता है और वैश्य के कर्त्तव्य ठीक वही हैं, जिन्हें इससे पहले के काल में गृहपति निभाता था, जैसे- पशुपालन, खेतीबारी एवं व्यापार।

उत्तर वैदिक साहित्य में दान की अवधारणा में भी धीरे-धीरे परिवर्तन परिलक्षित होता है। बदलती हुई अवधारणा की अभिव्यक्ति ‘दक्षिणा’ शब्द के अधिक प्रयोग में होती है। दान की उपयुक्तता तथा जिस श्रद्धा के साथ यह दिया जाता है, उस पर अधिक जोर दिया जाता है। यह काम दक्षिणा के माध्यम से दान देने की क्रिया को यज्ञ कर्मकांड से घनिष्ठतापूर्वक जोड़कर किया जाता है। कहा गया है कि ‘देवता और वेद-विशारद ब्राह्मणः दोनों को प्रसन्न करना चाहिए, देवताओं को यज्ञों से और ब्राह्मणों को दान से।’ इसी काल में दान की उपयुक्त वस्तुओं की सूची में खेतों और भूमि का भी उल्लेख होने लगता है, यद्यपि अब भी ऐसे उल्लेख कम ही होते हैं। हालांकि पशुधन अब भी काफी महत्त्वपूर्ण है, लेकिन कुछ पाठों में दान की वस्तु के रूप में पशुधन स्वीकार करना ठीक नहीं माना गया है और इनमें शायद सोना और भूमि को प्राथमिकता प्रदान की गई है। राजसूय यज्ञ में दान की जाने वाली वस्तुओं की सूची में आये बदलाव इसका संकेत करते हैं। इस काल में पशुओं की संख्या ऋग्वैदिक दान-स्तुतियों में उल्लिखित संख्या से काफी कम है। यज्ञ के समय दक्षिणा के जिस एक और रूप का निर्देश किया गया है, वह है पुरोहित को दिया जानेवाला चतुष्यत क्षेत्र (चार हिस्सोंवाला खेत)। अनुमान है कि यह वह भूमि थी जिसका उपयोग राजसूय के अंग के रूप में राजा द्वारा हल चलाने की विधि संपन्न करने के लिए किया जाता था। उत्तर वैदिक समाज को देखते हुए यह अत्यंत स्वाभाविक लगता है कि राजा से प्राप्त दक्षिणा कर्मकांड करानेवालों की जीविका का बुनियादी स्रोत रही होगी।

दक्षिणा की उगाही अब सिर्फ बड़े-बड़े राजकीय यज्ञों तक ही सीमित नहीं रह गई थी, वरन् ब्राह्मणों ने कर्मकांड की परिधि में सामान्य जन को भी लाने की कोशिश की। इन कर्मकांडों का संपादन उनके कल्याण के लिए आवश्यक माना जाता था। दाता की परिभाषा में एक बिल्कुल ही नये वर्ग को शामिल किया गया जिनसे संस्कार संपादित करने की अपेक्षा की जाती थी। सामाजिक वर्गों की दृष्टि से दाता की विस्तृत होती यह परिभाषा मनु के यहाँ गुणात्मक परिवर्तन की स्थिति में पहुँच जाती है क्योंकि मनु स्पष्ट शब्दों में कहता है कि दान देना गृहस्थ का धर्म है। इस समय दान-विनिमय के लिए ‘इष्ट’ और ‘पूर्त’ के बीच भेद पर जोर दिया गया है। पूर्त बड़ा आयोजन है, जिसमें कुंए, तालाब, मंदिर, बगीचे और भूमि का दान किया जाता है। इस प्रकार की अचल संपत्ति का दान अपेक्षाकृत नई अवधारणा है। पूर्त में जो कुछ भी शामिल किया गया है, उसका अपना महत्त्व है, क्योंकि इससे कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था की स्थापना का स्पष्टतः बोध होता है, जिसमें कुंआ, तालाब, उपवन तथा भूमि का ऐसा महत्त्व है जैसा मुख्यतः पशुपालक अर्थव्यवस्था में नहीं हो सकता था। इष्ट का संपादन केवल कर्मकांडी दृष्टि से शुद्ध व्यक्ति ही कर सकता था, लेकिन पूर्त-दान का, जो आर्थिक दृष्टि से अधिक प्रभावकारी और विशेषरूप से ब्राह्मणों के लिए मंगलकारी था, संपादन शूद्र भी कर सकते थे। इस काल में एक महत्त्वपूर्ण बात और उभरकर सामने आई कि दान देने से भौतिक संपत्ति की अभिवृद्धि होती है।

दान में भूमि देने के चलन तथा अन्य दानों की तुलना में भूमिदान को प्राथमिकता देना कृषि में बढ़ती हुई रुचि का द्योतक है। भूमि अब पशुधन से कहीं अधिक लाभदायक हो गई थी। भूमिदान में उस चीज के अंकुर विद्यमान थे जो बाद में एक नई कृषि-संरचना के रूप में विकसित होनेवाली थी, जिसके आर्थिक एवं सामाजिक संरचनाओं के लिए अपने विशेष फलितार्थ थे। भूमिदान के व्यापक चलन ने दान को एक नया संस्थागत रूप दिया, जो पूर्ववर्ती सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से बहुत दूर निकल आने का द्योतक था और साथ ही दाता तथा प्रतिग्रहीता दोनों के लिए एक नई पहचान के विकास का परिचायक था। इसके माध्यम से वर्ण-व्यवस्था, जो कि सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रतिबिंबन थी, के विकास को सरलता से समझा जा सकता है, साथ ही दोनों के अंतर्संबंधों को भी चिह्नित करने में मदद मिलती है।

ऋग्वैदिक काल की सरल और कबीलाई समाज से उत्तरवैदिक काल की सामाजिक-आर्थिक संरचना में जो अंतर दिखाई देता है उसमें प्रौद्योगिकी के विकास का भी महत्त्वपूर्ण हाथ है। इस दृष्टि से नई सभ्यता का आधार लोहा, व्यापक अश्वपालन, हल-कृषि का विस्तार और पूर्ववर्ती काल की अपेक्षा अधिक परिष्कृत बाजार अर्थव्यवस्था थी। दूसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व के अंतिम चरण में दोआब या पश्चिमी गांगेय मैदान में आदिम कृषकों की छोटी-छोटी बस्तियों के स्थान पर अधिक उन्नत कृषकों की बड़ी-बड़ी बस्तियाँ स्थापित हो गईं, जिन्होंने प्रथम सहस्राब्दी ईसापूर्व के पूर्वार्ध तक धीरे-धीरे लौह प्रौद्योगिकी अपना ली। उससे और पूरब की ओर मध्य गांगेय मैदान और दक्षिण बिहार में लौह-प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को स्पष्टतया एक अलग प्रकार के जनसमूह (कृष्ण-लाल-मृद्भांड संस्कृति) से बल मिला। उत्तर वैदिक साहित्य में वर्णित भौगोलिक क्षेत्र मुख्य रूप से दोआब था और ब्राह्मण साहित्य में उसका निर्देश प्रधानतः आर्यावर्त या आर्यों (विशुद्ध, सम्माननीय लोगों) के देश के रूप में किया गया, जो संस्कृत बोलते थे एवं वर्णधर्म का पालन करते थे। दक्षिण बिहार, जिसमें मगध प्रदेश भी शामिल था, बहुत हद तक ‘असनातनी संप्रदायों’ का प्रवृत्ति-केंद्र था। बौद्ध एवं जैन ग्रंथों में दक्षिण बिहार आर्यावर्त का क्रोड़ क्षेत्र था। अधिक वर्षा होने के कारण उन दिनों गांगेय मैदान घने जंगलों से भरा हुआ था। लौह-प्रौद्योगिकी के आने के पूर्व इन प्रदेशों में किसी खास बड़े पैमाने पर बस्तियाँ बसाना लगभग असंभव था, क्योंकि मानसूनी जंगलों को ताम्र-प्रौद्योगिकी के औजारों से साफ नहीं किया जा सकता था।

आबादी की अभिवृद्धि के साथ-साथ लोहे का प्रयोग आरंभ हुआ, यह बात पुरातात्त्विक सामग्रियों से भी स्पष्ट है। दृढ़ कृषि-अर्थव्यवस्था और फिर कालक्रम से शहरीकरण की पूर्वशर्त के रूप में लौहयुग के आगमन की पुष्टि लोहे का इस्तेमाल करनेवाली संस्कृतियों की अनेक बस्तियों के शहरों के रूप में विकसित होने से भी होती है। आबादी की वृद्धि से गांगेय मैदान में न केवल खेती के लिए अधिकाधिक भूमि को साफ करने में सहायता मिली, बल्कि उससे लौह-प्रौद्योगिकी में परिवर्तन को और खासतौर से हल से की जानेवाली खेती को भी प्रोत्साहन मिला होगा।

लौह-प्रयोक्ता संस्कृतियाँ 

उत्तर वैदिक ग्रंथों में ‘लौह’ के लिए अनेक शब्द प्राप्त होते हैं। ‘यजु’ संहिताओं में सबसे बाद की वाजसनेयि संहिता में ‘श्याम’ शब्द है, जिसकी तिथि लगभग 800 ईसापूर्व हो सकती है, क्योंकि यह संहिता तैत्तिरीय संहिता से बाद की है। अथर्ववेद में ‘श्यामेन’ शब्द और ‘श्याम अयस’ शब्द प्राप्त होते हैं, परंतु अथर्ववेद का उल्लेख संभवतः बाद का है क्योंकि अपने वर्तमान रूप में अथर्ववेद निश्चय ही चारों संहिताओं में सबसे बाद का है।

शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण से बाद के जैमिनि उपनिषद् ब्राह्मण में ‘कृष्णायस’ एवं ‘कार्षणायस’ शब्द मिलते हैं। इस ग्रंथ को 600 ई. पू. के बाद का निर्धारित किया जा सकता है। लगभग 1000-500 ईसापूर्व के स्तरों में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान के समीपवर्ती क्षेत्रों से प्राप्त लोहे की वस्तुओं के आधार पर उनके हस्तशिल्प एवं कृषि में बड़ी सीमा में उपयोग की कल्पना नहीं की जा सकती। इस काल में केवल बाणाग्र तथा भाले के अग्रभाग और कुछ सीमा तक कीलें ही प्राप्त हुई हैं, कुल्हाड़ी, दराँती एवं कुदाल विरल हैं, और हल के फाल लगभग अनुपस्थ्ति हैं। अतरंजीखेड़ा से हल का फाल प्राप्त होने की सूचना है, परंतु यह चित्रित धूसर मृदभांड काल के अंत का है। इससे संबद्ध अन्य पुरातात्त्विक वस्तुओं की तिथि अभी तक निर्धारित नहीं हो सकी है।

प्रौद्योगिकी की दृष्टि से 1000-600 ईसापूर्व का काल आदिम लौह का काल था। परंतु अनेक स्थानों पर तीन से चार मीटर तक गहरे चित्रित धूसर मृदभांड के जमाव इस बात को निस्संदेह प्रकट करते हैं कि बस्तियाँ कम से कम तीन से चार शताब्दियों तक बनी रहीं। इनकी सापेक्षिक स्थिरता और जनसंख्या वृद्धि के द्योतक अनेक संदर्भ इस बात की ओर संकेत करते हैं कि ये कृषक समुदायों की बस्तियाँ थीं। उत्तर वैदिक साहित्य में चार, छह, आठ, बारह और यहाँ तक कि चौबीस बैलों द्वारा खींचे जानेवाले हलों के उल्लेख हैं, जो इस बात के साक्षी हैं कि कठोर भूमि को जोतने के लिए दो से अधिक बैलों को लगाया जाता था। कृषि क्षेत्र के महत्त्व को अब समझा जाने लगा था तथा ‘खदिर’ के हल के फाल से प्रार्थना की जाती थी कि वह लोगों को गाय, बकरी, बच्चा तथा अनाज प्रदान करें। लगता है कि ‘खदिर’ अथवा ‘खैर’ का बना हल का फाल पर्याप्त सीमा तक प्रयोग किया जाता था। शतपथ ब्राह्मण में इसे बहुत कठोर कहा गया है तथा इसकी तुलना हड्डियों से की गई है। परंतु कुछ उत्तर वैदिक ग्रंथों में ‘प्रवीरवंत’ तथा ‘पवीरव’ धातु की चोंच वाले फाल का उल्लेख है, जिसकी व्याख्या बल्लम के समान धातु के फाल से युक्त हल के रूप में की गई है। अतरंजीखेड़ा में चित्रित धूसर मृदभांड स्तरों से जौ के अतिरिक्त चावल और गेहूँ भी प्राप्त हुए हैं। इनका समर्थन उत्तर वैदिक ग्रन्थ भी करते हैं, जिन्हें जौ, चावल (ब्रीहि) उड़द (माष) तथा तिल का ज्ञान था। बाजरे (श्यामाक) का भी उल्लेख प्राप्त होता है। उत्तर वैदिक ग्रंथों में साठ दिनों में पकनेवाली धान की फसल का नाम ‘षष्टिक’ प्राप्त होता है। यह एक प्रकार का साधारण मोटा चावल है, और साठी केे नाम से संपूर्ण उत्तरी भारत में आज भी प्रचलित है। हस्तिनापुर से चावल तथा जंगली किस्म के गन्ने के अवशेष प्राप्त हुए हैं। जाहिर है, उत्तर वैदिक काल में कृषि लोगों का एक मुख्य व्यवसाय बन चुकी थी। यद्यपि उत्पादन का मुख्य उपकरण लकड़ी ही का बना हल का फाल था, तथापि लागों को धातुओं का तुलनात्मक रूप से अच्छा ज्ञान हो चला था। प्राकृतिक गोबर खाद का प्रयोग, खेतों की सिंचाई और ऋतुओं के ज्ञान का कृषि-प्रक्रिया में उपयोग भी तत्कालीन विकसित कृषि प्रणाली का द्योतक है।

छांदोग्य उपनिषद् में अन्न के महत्त्व पर बल दिया गया है। जहाँ ऋग्वेद के मध्य भागों में वर्णित समाज मूलतः पशुचारी था, वहाँ उत्तर वैदिक साहित्य तथा चित्रित धूसर मृदभांड लौह पुरातत्त्व से ज्ञात समाज मूलतः कृषक था। वैदिक ग्रंथ तथा चित्रित धूसर मृदभांड लौह पुरातत्त्व दोनों ही धान तथा अन्य अनेक अनाजों की खेती का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, और ये उत्पाद भरण-पोषण से अधिक उत्पादन की अर्थव्यवस्था के द्योतक कहे जा सकते हैं। कृषक अपने भरण-पोषण की आवश्यकता से कुछ अधिक ही उत्पादन करते थे। इसके परिणामस्वरूप वे पुरोहितों एवम् कर्मचारियों सहित राजाओं जैसी उत्पादन से असंबद्ध इकाइयों का भी भरण-पोषण कर सकते थे, जो ऋग्वेद के पशुचारी समाज में संभव नहीं था।

व्यवस्थित कृषक जीवन, घरों तथा संभवतः भूमि के रूप में संपत्ति के प्रारंभ का कारण बना। मुख्यतः भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति हेतु तथा कुछ सीमा तक स्वर्ग प्राप्त करने के निमित्त अथर्ववेद मेंकृषकों सहित सभी लोगों के लिए बारह यज्ञों (‘सव’) का विधान है। इनमें ब्राह्मण के निमित्त गाय, बछड़े, बैल, स्वर्ण, पका हुआ चावल, झोंपड़ियाँ तथा भली प्रकार बनाये गये व जुते हुए खेत की भेंट की अनुशंसा की गई है। पासे के खेल में गायों, घोड़ों, सम्पत्ति (धन), स्वर्ण और यदा-कदा पत्नियों को दाँव पर लगाया जाता था। ये दो सूचियाँ चल तथा अचल सम्पत्ति के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचना देती हैं। यजुर्ग्रंथों में उल्लिखित लुटेरों व डाकुओं के सरदारों को प्रणाम करने का विधान पर्याप्त मात्रा में चल संपत्ति विद्यमान होने का सूचक है, और इस बात का संकेत है कि संपत्ति की पवित्रता स्थापित करने की प्रक्रिया निर्विघ्न नहीं थी। यह संभव है कि धातुओं पर सामूहिक स्वामित्व की जनजातीय परंपरा कुछ लोगों के लिए अब भी प्रभावशाली रही हो। ये वे लोग थे जो संपत्ति की विकासशील संस्था से सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई का अनुभव कर रहे थे तथा परिणामस्वरूप इन्होंने लूटमार व चोरी का तरीका अपना लिया था।

धीरे-धीरे जटिल हो रही उत्पादन व्यवस्था ने सामाजिक व्यवस्था व संरचना को भी जटिलता प्रदान की। जनजातीय प्रमुख तथा उसके पुरोहित विचारकों के द्वारा अपने समुदाय के व्यक्तियों पर प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित करने के लिए अनुष्ठानों की क्रिया-विधि का विकास किया गया। समुदाय के अधिकतर लोग अब तक कृषक में तब्दील हो चुके थे। अनुष्ठानों का मुख्य उद्देेश्य था- राजा द्वारा कृषकों एवं समुदाय के अन्य व्यक्तियों पर प्रभुत्त्व स्थापित करना, जो आवश्यकता पड़ने पर शक्ति के प्रयोग द्वारा भी स्थापित किया जाता था। इन अनुष्ठानों में दैवी-जगत में कृषक वर्ग के प्रतीक तथा कृषकों अथवा ‘विश’ के देवता मरुतों को रोटियाँ अर्पित की जाती थीं। अनुष्ठान यह भी इंगित करता है कि यदि देवता अपना भाग (भागधेयम्) अथवा यज्ञ की रोटी प्राप्त करते थे, तो वे राजकीय यज्ञकर्ता को अपने समुदाय के लोगों (संजाताः) तथा कृषकों (विश) पर प्रभुत्व स्थापित करने की सामर्थ्य प्रदान करते थे। शतपथ ब्राह्मण के कुछ उल्लेख स्पष्ट करते हैं कि यद्यपि अभिजात अथवा योद्धा उसी नातेदारी के समुदाय के सदस्य थे और ‘विश’ अथवा समुदाय से ही उनका उत्थान हुआ था, तथा वे उसी कृषक समुदाय पर प्रभुत्त्व स्थापित करते थे।

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख तत्त्व 

यह कहा गया है कि राजकीय शक्ति जनों पर दबाव डालती है तथा राजा जनों पर ही आघात करने के लिए प्रवृत्त होता है। कृषकों के अनुरूप वैश्यों को अधीन करने योग्य समझा जाता था। कृषक वर्ग को अभिजात वर्ग के अधीन करने में ब्राह्मणों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अनुष्ठानों द्वारा वह राजा को शक्ति प्रदान करता है, और परिणामस्वरूप नीचे के लोगों से अधिक बलवान बनाता है। उन कृषकों अथवा ‘विश’ की तीव्र भर्त्सना की जाती थी जो राजा को तुच्छ समझते थे, उसकी आज्ञा का पालन नहीं करते थे, तथा विद्रोह करते थे। यह कहा गया है कि जनों को अभिजात वर्ग के ऊपर स्थापित नहीं करना चाहिए तथा वे लोग श्रेष्ठ व्यक्तियों एवं भले व्यक्तियों के बीच भ्रम उत्पन्न करते थे जो विश को अभिजात वर्ग के समान बताते थे और इस प्रकार उन्हें हठीला बनाते थे। इस प्रकार का कोई भी प्रयत्न, जो कृषकों को योद्धा-राजाओं से अथवा योद्धा-राजाओं को कृषकों से अलग करता हो, इस आधार पर निंदनीय है कि वह अव्यवस्था को जन्म देता है और पाप का मार्ग प्रशस्त करता है। अभिजातों और योद्धाओं के लिए कृषकों की तुलना में विशेषाधिकृत स्थान प्राप्त करना सरल नहीं था, क्योंकि विशेषाधिकृत वर्गों की संख्या सदैव कम होती है तथा साधारण जनों की अधिक। तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि वैश्यों की संख्या अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक थी। अनेक वैदिक संदर्भ भी संकेत करते हैं कि अन्य दो वर्णों की तुलना में वैश्य बहुत अधिक थे। परंतु छोटी संख्या के होते हुए भी सैन्य श्रेष्ठता और आनुष्ठानिक समर्थन के कारण अभिजात प्रबल हो गये।

कृषकों पर प्रभुत्त्व स्थापित करने का एक प्रमुख कारण था- समय-समय पर उनसे प्राप्त होनेवाला अंश। राजा को बार-बार ‘कृषकों का भक्षक’ कहा गया है, जो यह प्रदर्शित करता है कि वह उनके श्रम पर जीवित रहता था। यह भी कहा गया है कि ‘मनुष्यों में वैश्य तथा पशुओं में गाय का दूसरों के हितार्थ उपयोग किया जाता है।’ ‘अभिजात वर्ग अन्नदाता है तथा साधारण जन भोजन हैं, यदि अन्नदाता के लिए पर्याप्त भोजन है तो वह राज्य निश्चय ही धन-धान्यपूर्ण है और उन्नति करता है।’ यह कथन शतपथ ब्राह्मण व अन्य अधिकतर ग्रंथों में बार-बार उल्लिखित मिलता है। राज्यसत्ता (राष्ट्र) जनों के आधार पर भोजन प्राप्त करती है, राज्य भक्षक है तथा लोग भक्ष्य हैं, राज्य हरिण है, तोे लोग जौ हैं। इस प्रकार, ब्राह्मण ग्रंथ वैदिक काल के अंतिम चरण में उत्पन्न दस्तकारों तथा चरवाहों सहित कृषक वर्ग एवं योद्धा-राजाओं के पारस्परिक संबंधों के वास्तविक स्वभाव को प्रकट करते हैं। कहा यह गया है कि लोग ‘क्षत्र’ अथवा राजसत्ता के निमित्त पहले ही से एक मुख्य भाग अलग कर देते थे। धारणा यह थी कि जो कुछ भी पास है उसमें प्रमुख का भी हिस्सा ‘भाग’ है।

इस काल में कर इकट्ठा करने की प्रथा की शुरुआत परिलक्षित होती है। कर को ‘बलि’ कहा गया है। पालि ग्रंथों में यह शब्द अनेक बार इस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पुरोहित प्रार्थना करते थे कि राजा अत्यधिक मात्रा में ‘बलि’ प्राप्त करने में समर्थ हो। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पर्याप्त करों के अभाव में राजकाज नहीं चलाया जा सकता था। प्रारंभ में यह स्वेच्छा से दी जानेवाली भेंट थी क्योंकि स्वर्ग में शक्तिशाली लोग निर्बलों से ‘शुल्क’ नहीं प्राप्त करते थे। उत्तर वैदिक काल में यह ‘बलि’ संभवतः अनिवार्य रूप से दिये जानेवाले करों में बदल गई। यह कहा गया है कि इस प्रकार का कर शक्ति के माध्यम से इकट्ठा किया जाता था और जो लोग इसे देते थे, निर्बल समझे जाते थे। तथापि निर्बलों के लिए इस कर से दूसरे जगत् में मुक्ति की संभावना बनती थी। परंतु यह इस बात पर आधारित था कि वे इस संसार में नियमित रूप से कर अदा करते हैं और ब्राह्मणों को अनेक याज्ञिक उपहार देते हैं। परंतु ब्राह्मण को शुल्क से मुक्त घोषित किया गया है तथा उस राज्य की, जो ब्राह्मणों से इसे प्राप्त करने की इच्छा रखता है, अत्यंत कड़े शब्दों में निंदा की गई है।

कुल मिलाकर, संपूर्ण समुदाय द्वारा उपयोग किये जाने के स्थान पर कृषकों से प्राप्त करों और भेंटों में मुख्यतः राजन्यों-क्षत्रियों तथा ब्राह्मणों की ही भागीदारी होती थी। ऋग्वैदिक काल के आरंभिक चरण में लोगों से जो कुछ भी प्राप्त होता था, उसे ‘विदथ’ सहित अनेक जनजातीय सभाओं में वितरण की चर्चा है। निश्चय ही यह परंपरा जनजाति के असमान सामाजिक तथा आर्थिक समूहों में विभाजन की ओर संकेत करती है। परंतु वैदिक काल के अंत तक इस परंपरा को राजन्यों और ब्राह्मणों ने इस प्रकार से प्रभावित कर रखा था कि राजन्यों ने जहाँ एक ओर ‘विश’ अथवा कृषकों को सुरक्षा के अतिरिक्त और कुछ न देकर भी उनसे गैर-धािर्मक भेंट अथवा कर प्राप्त करने का एकाधिकार हासिल कर लिया, वहीं दूसरी ओर राजाओं, अभिजातों तथा कृषकों से प्राप्त आनुष्ठानिक भेंटों पर ब्राह्मणों का एकाधिकार स्थापित हो गया।

ऋग्वैदिक संस्कृति

सामान्य जनों (‘विश’ अथवा कृषकों) से ही कर लिया जाता था। योद्धा वर्ग के प्रतीक ‘सजात’ (राजा के नातेदार) को बलिहृत् ‘वह जो भेंट लाता है, कहा गया है। परंतु वह स्वयं बलि उत्पन्न नहीं करता, वह केवल कृषकों से इकट्ठा करता है। कृषकों के प्रतीक वैश्य को भी बलिहृत् तथा बलिकृत दोनों कहा गया है। स्पष्टतः बलिहृत् भिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। ब्राह्मण अथवा शूद्र पर कर नहीं लगाया जाता है, तथा राजन्य-क्षत्रिय इससे मुक्त प्रतीत होते हैं। अनुष्ठानों को जन्म देकर तथा प्रशंसात्मक कविताओं की रचना करके पुरोहितों ने इस नवीन सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था को अपना नैतिक समर्थन प्रदान किया। बदले में राजा तथा राजन्य ने ब्राह्मण को लूट तथा बलि का एक भाग प्रदान करना स्वीकार कर लिया।

धार्मिक अनुष्ठानों द्वारा ब्राह्मणों तथा राजन्यों का वैश्यों एवं शूद्रों पर प्रभुत्त्व दृढ़ हो गया। परंतु राजाओं एवं पुरोहितों के संबंध सदा ही मधुर नहीं थे। आपसी द्वंद्व की प्रतिध्वनियाँ उत्तर वैदिक ग्रंथों में उपलब्ध हैं। हम सुदास तथा उसके पुरोहित वशिष्ठ के मध्य द्वंद्व की सूचना पाते हैं। श्रृंजय वैतहव्यस तथा उनके पुरोहित भृगुओं के मध्य युद्ध हुआ था जिसके परिणामस्वरूप श्रृंजय वैतहव्यस का नाश हो गया। यज्ञ की दक्षिणा के ऊपर विवाद के कारण श्यपर्णो को उनके यजमान विश्वंतर सौषदमन् ने पौरोहित्य से अलग कर दिया, परंतु अंत में विवाद सुलझ गया और श्यपर्ण राम मार्गवेय को 1,000 गायें दी गईं। हम जनमेजय और उसके पुरोहित असित्मृगस् के मध्य भी विवाद की जानकारी पाते हैं। अनुष्ठानों द्वारा ब्राह्मणों तथा राजन्यों का वैश्यों एवं शूद्रों पर प्रमुख दृढ़ हो गया। राजाओं और पुरोहितों के मध्य लंबे संघर्ष की जो परंपराएँ महाकाव्यों और पुराणों में उल्लिखित हैं, वे संभवतः उत्तरवैदिक काल के संदर्भ में हैं। दूसरी ओर राजाओं का संरक्षण प्राप्त करने के लिए पुरोहितों के परिवारों के मध्य संघर्ष के उदाहरणों तथा तनाव के संकेतों का भी साहित्य में अभाव नहीं है।

शासक वर्ग के दो भागों के मध्य संघर्ष स्वयं को वैचारिक रूप से प्रकट करता है। अर्थववेद के 15वें अध्याय में ब्राह्मणों ने विशेष सुविधाओं का दावा किया है, तथा ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मणों में उन्होंने राज्याभिषेक के अनेक अनुष्ठानों की काल्पनिक व्याख्याएँ प्रस्तुत कर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयास किया है। राजाओं ने संपूर्ण अनुष्ठानों की वैधता पर आक्रमण किया और परमतत्त्व अथवा ब्रह्म की ज्ञान-प्राप्ति को बल प्रदान किया। उनके विचार में ब्रह्म एक प्रकार से कुरु-पंचालों के बढ़ते हुए राजकीय प्रभुत्त्व का प्रतीक था। कुरु-पंचालों ने सभी छोटे जनजातीय प्रमुखों को अपने नियंत्रण में कर लिया था। इसी प्रकार से अनश्वर आत्मा की अवधारणा उस नवीन सामाजिक व्यवस्था को कुछ स्थायित्त्व प्रदान करती थी जो जनजातीय व्यवस्था के दुर्बल हो जाने के परिणामस्वरूप विकसित हो रही थी। उत्तर वैदिक ग्रंथों में कम से कम चार ऐसे क्षत्रिय राजाओं की चर्चा है जो ब्रह्म-विद्या में पारंगत थे तथा ब्राह्मणों को पढ़ाते थे। किंतु उत्तरवैदिक साहित्य में अनेक स्थानों पर उल्लिखित अनुष्ठानों को प्रारंभ करने का श्रेय इन क्षत्रिय राजाओं को नहीं दिया जा सकता है।

वैदिक काल के अंतिम चरणों में जब सामाजिक अधिशेष में भाग लेने की बात पर संघर्ष जोर पकड़ने लगा, तब सबसे बाद के वैदिक ग्रंथ, विशेषतः शतपथ ब्राह्मण, क्षत्रियों और ब्राह्मणों के मध्य एकता तथा सहयोग पर बल देना आवश्यक समझने लगा। यद्यपि परंपराएँ वैश्यों अथवा कृषकों के विरोध का उल्लेख नहीं करतीं, तथापि अनुष्ठान एवं कर्मकांड इस ओर संकेत करते हैं। धार्मिक अधिरचना का वर्चस्व विद्रोहों की संभावना को क्षीण बनाना था। अधिक महत्त्वपूर्ण यह था कि कृषकों से ‘बलि’ और याज्ञिक दक्षिणा प्राप्त करने की निरंतर आवश्यकता तथा शूद्रों की सेवाओं की माँग ने दोनों उच्च सामाजिक वर्गांे को एक साथ खड़ा कर दिया। जनजातीय कृषक वर्ग को दबाये जाने तथा उन्हें नियमित कर देने के लिए विवश करने के प्रयास दिखाई देते हैं।

उत्तर वैदिक संस्कृति 

उत्तर वैदिक सामाजिक संरचनाओं की तुलना एक सीमा तक यूनान और ईरान के आदिम समाजों की व्यवस्थाओं से की जा सकती है। ऋग्वैदिक समाज तथा प्रचलित भारोपीय समाजों के विपरीत इसमें पुरोहित वर्ग का प्रभुत्त्व दिखाई देता है, जो उतना ही महत्त्वपूर्ण था जितना कि अभिजातों और योद्धाओं का प्रभुत्त्व। आंशिक रूप से यह स्रोतों के पौरोहित्य स्वभाव के कारण भी हो सकता है। प्रारंभ में सत्रह प्रकार के पुरोहितों में से एक होकर भी ब्राह्मण ने अन्य सभी को निष्प्रभ बना दिया तथा वह समस्त याज्ञिक दक्षिणा के आधे भाग की माँग करने लगा, और अंत में इस बात पर बल देने लगा कि सभी प्रकार के पुरोहित ब्राह्मण ही होने चाहिए। ब्राह्मण वर्ग के उत्थान और विकास का श्रेय भारोपियों के प्राक्-आर्यों से सम्मिश्रण को दिया जाता है, जिसके लिए कुछ साहित्यिक साक्ष्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

हड़प्पा परंपरा के मृद्भांडों के चित्रित धूसर मृदभांड से परस्पर-व्याप्ति के आधार पर कुछ पुरातात्त्विक समर्थन भी प्रस्तुत किया जा सकता है। चूंकि चित्रित धूसर मृदभांड के प्रयोगकर्ताओं की पहचान आर्यों के एक समूह से की जाती है। यह परस्पर व्यापन अनेक स्थानों पर देखा गया है। प्राक्चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृतियों तथा चित्रित धूसर मृदभांड स्थलों, दोनों ही में अनेक याज्ञिक गढ्ढ़े प्राप्त हुए हैं। इससे लगता है कि अनुष्ठानों का प्राचीन प्रकार चित्रित धूसर मृदभांड लौहकाल, जिसका समीकरण उत्तरवैदिक काल से बिठाया जा सकता है, में भी चलता रहा। आंशिक रूप से प्राक्वैदिक अनुष्ठान वैदिक लोगों के अनुष्ठानों द्वारा बलवान बन गये। भारत-ईरानी काल में सात ऋग्वैदिक पुरोहित-प्रकार में से केवल दो ही देखे जा सकते हैं, शेष भारत भूमि में ही विकसित हुए, और उत्तरवैदिक काल तक यज्ञों की बढ़ती हुई संख्या तथा परिष्कृत विधियों के कारण पुरोहितों की संख्या सत्रह तक पहुँच गई।

भारतीय आर्य कबीलों का ‘महान्’ आदिम साम्यवादी युग ऋत् था। यह पूर्व-वैदिक काल था और इस युग के बारे में वैदिक साहित्य में ऐसे अनेक आसक्तिपूर्ण संदर्भ हैं, जिसमें इस युग को न्याय, सत्य, एकता, समानता और भ्रातृत्व की सर्वोच्च सत्ता के रूप में याद किया गया है। ऋत् समाज में कबीला साथ-साथ काम करता था, सामूहिक श्रम था और श्रमोत्पादन को सभी में समान रूप से बाँट दिया जाता था। इसी के समानांतर, अत्यंत धीमी गति से वर्ग-भेदों का बढ़ना और चातुर्वर्ण्य का रूप लेना आरंभ हुआ जिसका सबसे पहला संदर्भ पुरुषसूक्त, ऋग्वेद के अंतिम सर्ग (मंडल) के लगभग अंत में पाते हैं और इस मंडल को क्षेपक माना जाता है।

चातुर्वर्ण्य एक ऐसी सामाजिक संरचना है, जिसमें वर्णो का विभाजन चार रूपों में हुआ अर्थात् संपूर्ण समाज चार खंडों में विभाजित हुआ। इनमें ब्राह्मण, धर्म और धार्मिक अनुष्ठानों के प्रतिष्ठापक (सामान्य रूप में बुद्धि व्यवसायी), क्षत्रिय वर्ण योद्धा और शासक तथा वैश्य कृषि और पशुपालन करता था। शूद्र उक्त तीनों उच्च वर्णों के सामूहिक दास थे जिनका एक ही काम था, उक्त तीनों उच्च वर्णों की सेवा करना। इस प्रकार प्राचीन भारतीय समाज का चार वर्णों में विभाजन भारतीय दास-प्रथा का एक विशिष्ट रूप था। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ‘द्विज’ थे। द्विज का अर्थ है- दो बार जन्म लेनेवाला। इन तीन द्विज वर्णों में वैश्यों को शूद्रों से ऊँचा स्थान मिला। यद्यपि इनका शोषण शूद्रों जैसा नहीं था, तथापि इस बात में कोई संदेह नहीं कि इन्हें खूब लूटा और उत्पीड़ित किया जाता था। वैश्य वर्ण के पास यज्ञोपवीत और वेद-पाठ का सैद्धांतिक अधिकार होते हुए भी ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों की तुलना में इनकी स्थिति बहुत ही निम्न स्तर की थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया, वैसे-वैसे वैश्यों की स्थिति में निरंतर गिरावट आई। कानून एवं राजनीति के संदर्भ में वर्णक्रम में ब्राह्मणों को पहला, क्षत्रियों को दूसरा, वैश्यों को तीसरा और शूद्रों को चौथा स्थान दिया गया था। ऐसा विभाजन आदर्श के लिए संभव प्रतीत हो सकता है, किंतु यथार्थ में क्षत्रिय, ब्राह्मणों के अधिक निकट थे और शूद्र, वैश्यों के अथवा वैश्य, शूद्रों के। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे उत्तरवैदिक काल में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय- इन दो महत्त्वपूर्ण सामाजिक शक्तियों के बीच राजनैतिक संबंधों का सह-अस्तित्व और महत्त्व प्रकट होता है। इसका परिणाम यह हुआ कि एक तरफ ब्राह्मण-क्षत्रिय तो दूसरी तरफ वैश्य-शूद्र के बीच संघर्ष घनीभूत हुआ। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का उद्भव एवं विकास शूद्रों और वैश्यों पर ब्राह्मण-क्षत्रिय वर्चस्व का सैद्धांतिक आधार था। वर्णों के भीतर अलग उपसमूहों के रूप में जातियों का उद्भव विभिन्न ऐतिहासिक प्रक्रियाओं का परिणाम था। इसका मुख्य भौतिक आधार था-, उत्पादक शक्तियों के साथ क्रमशः जटिल होता श्रम-विभाजन, जिसे सुव्यवस्थित करने के लिए राजनीतिक व्यवस्था के अतिरिक्त धार्मिक आवरण में सुनिश्चित सामाजिक आचार, पदानुक्रम और श्रेणी-विभाजन आवश्यक था।

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