गुप्तों की प्राचीनता और उद्भव (Antiquity and Origin of the Guptas)

गुप्तों की प्राचीनता और उद्भव

गुप्तों की उत्पत्ति-विषयक समस्या का समाधान अभी तक नहीं हो सका है। पुरातात्त्विक स्रोतों से पता चलता है कि सम्राट गुप्तवंश के पूर्व भी कई गुप्तवंशों का उदय हुआ था। एक प्राचीन ब्राह्मी लेख में किसी गुप्तवंश की राजमहिषी का उल्लेख है। शुंगकालीन भरहुत स्तंभ-लेख में राजन विश्वदेव के पुत्र अंगारद्युत को ‘गोतिपुतस’ (गौप्तीपुत्रस्य) कहा गया है। इससे लगता है कि विश्वदेव की महिषी किसी गुप्तकुल की महिला थी। लेख के अनुसार वह शुंगकालीन था (सुगनं रजे रओ गोगी-पुतस विसदेवस)। संभवतः वह विदिशा के किसी उत्तरकालीन शुंग सम्राट का मांडलिक था।

बिहार के दरभंगा जिले के पंचोभ नामक स्थान से प्राप्त एक ताम्रलेख में भी किसी गुप्तवंश का उल्लेख मिलता है। सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र के नासिक गुहालेख में शिवगुप्त नामक गुप्त नामांतधारी पदाधिकारी का उल्लेख है। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि द्वितीय शताब्दी ई.पू. से लेकर तीसरी शताब्दी ई. तक भारत के विभिन्न भागों में कई गुप्तवंश समय-समय पर विद्यमान थे जो किसी न किसी रूप में राजसत्ता से भी संबद्ध थे। किंतु प्रमाणों के अभाव में यह निश्चित करना कठिन है कि इन गुप्तों का सम्राट गुप्तवंश से कोई संबंध था अथवा नहीं।

गुप्तों की उत्पत्ति

यद्यपि गुप्त सम्राटों के अनेक अभिलेख एवं सिक्के प्राप्त हुए हैं, किंतु उनसे गुप्तों की उत्पत्ति (जाति एवं वर्ण) पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता है। इसलिए गुप्तों की उत्पत्ति का प्रश्न विद्वानों के बीच विवाद का विषय बना हुआ है। इतिहासकारों ने गुप्तों को प्रायः चारों ही वर्णों में रखने का प्रयास किया है। काशी प्रसाद जायसवाल के अनुसार इस वंश के शासक निम्नकुल से संबंधित थे। एलन, कृष्णास्वामी आयंगर, अनंतसदाशिव अल्तेकर जैसे इतिहासकार गुप्तों को वैश्य प्रमाणित करते हैं। गौरीशंकर हीराचंद्र ओझा, सुधाकर चट्टोपाध्याय आदि इतिहासकार गुप्तों को क्षत्रिय मानते हैं। हेमचंद्र रायचौधरी एवं क्षेत्रेशचंद्र चट्टोपाध्याय उन्हें ब्राह्मण मानते हैं। यही नहीं, कुछ इतिहासकार गुप्तों को आर्य-वर्णव्यवस्था के बाहर का बताते हैं। यही नहीं, एक इतिहासकार ने गुप्तों को ‘आंध्रभृत्य’ सिद्ध करने का प्रयास किया है।

वर्णव्यवस्था से बहिष्कृत

बी.जी. गोखले का विचार है कि गुप्त प्रारंभ में आर्य-वर्णव्यवस्था से बाहर थे और लिच्छवियों के साथ उनका विवाह-संबंध उन्हें समान जाति का निर्दिष्ट करता है। मनु ने उन्हें ‘व्रात्य’ कहकर सामाजिक ढ़ांचे से बाहर रखा है। गुप्तों द्वारा भारी-भरकम उपाधियों का धारण करना, अनेक यज्ञों का अनुष्ठान करना और पुराणों, स्मृतियों आदि ब्राह्मण-ग्रंथों का विकास करना संभवतः इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि वे भारतीय सामाजिक व्यवस्था में स्थान प्राप्त करने का प्रयास कर रहे थे। अभिलेखों में गोत्र या वर्ण की चर्चा न करने का प्रमुख कारण भी यही रहा होगा।

किंतु लिच्छवियों से वैवाहिक-संबंध स्थापित करने के कारण गुप्त लिच्छवियों की जाति के नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि उस समय अंतर्जातीय विवाह भी हुआ करते थे। यदि गुप्त अभिलेखों में उनकी जाति का कोई उल्लेख नहीं मिलता, तो यह नहीं मान लेना चाहिए कि वे निम्नजातीय थे। गुप्तों द्वारा ब्राह्मण धर्म के समुन्नयन के प्रयास को उच्च वर्णों में स्थान पाने का प्रयास नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि पुष्यमित्र ने भी ब्राह्मण धर्म के समुन्नयन का प्रयास किया था, जो स्पष्ट रूप से ब्राह्मण था।

आंध्रभृत्य

बी. भट्टाचार्य ने ‘कलियुगराजवृतांत’ के आधार पर गुप्तों को आंध्रभृत्य माना है। इस रचना के अनुसार चंद्रगुप्त प्रथम आंध्र-नरेश चंद्रश्री का सेनापति था जिसने चंद्रश्री की भार्या की छोटी बहन से, जो लिच्छवि राजकुमारी थी, विवाह किया और चंद्रश्री की भार्या के साथ मिलकर चंद्रश्री को मार डाला और स्वयं शासक बन गया। इस नरेश की उत्तराधिकार परंपरा में काच, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य आदि नरेश आते हैं। इस प्रकार कलियुगराजवृतांत का चंद्रगुप्त गुप्तवंश का चंद्रगुप्त प्रथम प्रतीत होता है। वह पहले आंध्रों का कर्मचारी था, इसलिए उसे ‘आंध्रभृत्य’ कहा गया है। आंध्रवंश की पहचान सातवाहनों से की जा सकती है और सातवाहन अभिलेखों में कई ‘गुप्त’ नामांत पदाधिकारियों का नाम मिलता है।

किंतु कलियुगराजवृतांत एक अर्वाचीन ग्रंथ है जो अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार ऐतिहासिक दृष्टि से अनुपयोगी है। यद्यपि सातवाहन लेखों में कई गुप्त नामांत पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता हैं, किंतु वे आकस्मिक भी हो सकते हैं और इस आधार पर गुप्तों को ‘आंध्रभृत्य’ नहीं माना जा सकता है।

शूद्र उत्पत्ति का मत

काशीप्रसाद जायसवाल गुप्तों को ‘निम्नकुलोत्पन्न’ मानते हैं। कौमुदीमहोत्सव नाटक को एक ऐतिहासिक ग्रंथ मानते हुए जायसवाल ने नाटक के चंडसेन का समीकरण चंद्रगुप्त से किया है। ‘चंड’ शब्द संस्कृत ‘चंद्र’ का प्राकृत रूपांतर है। राजा बनने पर चंडसेन ने अपने नाम के अंतिम ‘सेन’ शब्द को हटाकर ‘गुप्त’ नाम धारण कर लिया जो उसके पितामह का नाम था। कौमुदीमहोत्सव का चंडसेन लिच्छवियों का संबंधी था और चंद्रगुप्त का विवाह भी लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से हुआ था जिससे पुत्र समुद्रगुप्त उत्पन्न हुआ था। प्रयाग की प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को ‘लिच्छवि-दौहित्र’ कहा गया है। इस गुप्त-लिच्छवि संबंध से चंडसेन और चंद्रगुप्त एक ही व्यक्ति सिद्ध होते हैं।

कौमुदीमहोत्सव में चंडसेन को ‘कारस्कर’ कहा गया है और बौधायन धर्मसूत्र में कारस्कर शब्द का अर्थ नीच बताया गया है। महाभारत में भी कारस्करों को ‘आचारभ्रष्ट’ और ‘विवर्जनीय’ कहा गया है। जायसवाल का मानना है कि चंद्रगोमिन् के व्याकरण में ‘अजयत् जर्तो हूणान्’ सूत्र मिलता है जो गुप्तों के हूण-विजय की ओर संकेत है। इस आधार पर गुप्त शासक जर्त या जाट सिद्ध होते हैं। यदि कौमुदीमहोत्सव और चंद्रगोमिन् के व्याकरण के साक्ष्य को सम्मिलित कर लिया जाये तो गुप्त ‘कारस्कर जर्त’ सिद्ध होते हैं। संभवतः आधुनिक ककक्ड़ जाति ही प्राचीन कारस्कर जर्त का प्रतिनिधित्व करती है।

प्रभावतीगुप्ता के पूना ताम्रलेख में उसका गोत्र ‘धारण’ मिलता है जो निश्चित रूप से उसके पति का गोत्र नहीं था क्योंकि उसका पति रुद्रसेन विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राह्मण था। धारण गोत्र उसके पिता चंद्रगुप्त द्वितीय का ही रहा होगा क्योंकि पति के दिवंगत हो जाने और अपने पुत्रों के अल्पवयस्क होने के कारण वह अपने पिता के ही संरक्षण में शासन कर रही थी। अमृतसर के जाट अपने को ‘धारी’ अथवा ‘धरणि जाट’ कहते हैं। जायसवाल महोदय धारणगोत्रीय गुप्तों का समीकरण इन धरणि जाटों या धारी जाटों से करते हैं। मत्स्य पुराण में भी कहा गया है कि ‘महानंदि के उपरांत शूद्र राजवंश के शासक शासन करेंगे’ (तत्प्रभृति राजानो भविष्यन्ति शूद्रयोनयः)। इस आधार पर भी गुप्त शूद्र सिद्ध होते हैं।

किंतु गुप्तों को निम्न जाति का मानना उचित नहीं है। चंद्रगुप्त तथा चंडसेन को एक ही व्यक्ति नहीं माना जा सकता है। कौमुदीमहोत्सव का चंडसेन सुंदरवर्मा का दत्तक पुत्र था, जबकि चंद्रगुप्त घटोत्कच का पुत्र था। नाटक के अनुसार चंडसेन अपने भाई-बंधुओं सहित युद्धक्षेत्र में मार डाला गया था, किंतु चंद्रगुप्त की वंश-परंपरा उसके बाद कई पीढ़ियों तक चलती रही। चंडसेन का लिच्छवियों से संबंध वैवाहिक ही था, यह स्पष्ट नही है। यह एक राजनीतिक गुटबंदी भी हो सकती है। वैसे भी अधिकांश इतिहासकार कौमुदीमहोत्सव को गुप्तकालीन ग्रंथ नहीं मानते हैं।

चंद्रगोमिन् की कुछ पांडुलिपियों में ‘जर्तो’ के स्थान पर ‘जप्तो’ शब्द भी मिलता है। संभवतः मूल पांडुलिपि में ‘अजयत् गुप्तो हूणान्’ शब्द ही रहा होगा, न कि अजयत् जर्तो हूणान्। इसी प्रकार धारणगोत्रीय गुप्तों की तुलना धारी अथवा धरणि जाटों से करना कल्पनामात्र है। पुराणों का कहना कि ‘महानंदि के बाद सभी राजा शूद्र होंगे’, इतिहासकारों के लिए अश्रद्धेय है क्योंकि नंदोत्तरकाल के कई राजवंश क्षत्रिय और ब्राह्मण थे। इस प्रकार गुप्तों को निम्न जाति का सिद्ध नहीं किया जा सकता है।

क्षत्रिय उत्पत्ति का मत

सुधाकर चट्टोपाध्याय, रमेशचंद्र मजूमदार, गौरीशंकर ओझा जैसे विद्वानों का अनुमान है कि गुप्तवंश क्षत्रिय वंश था। पंचोभ लेख में किसी गुप्तवंश (वंशो गुप्त) का वर्णन मिलता है जिसके नरेश शैव मतावलंबी थे और अपने को पांडव अर्जुन का वंशज मानते थे। संभवतः इस गुप्तवंश का संबंध सम्राट गुप्तवंश से था। इस संभावना का समर्थन जावा से प्राप्त ‘तंत्रीकामंदक’ नामक रचना से भी होता है जिसके अनुसार इक्ष्वाकुवंशी महाराज ऐश्वर्यपाल अपने को समुद्रगुप्त का वंशज मानता था। यदि ‘तंत्रीकामंदक’ को प्रमाणिक रचना माना जाये तो गुप्त क्षत्रिय प्रमाणित होते हैं।

एक मध्यकालीन परंपरा के अनुसार कनाड़ी जिले के कुछ राजकुल अपने को सोमवंशी क्षत्रिय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का वंशज मानते हैं। कनाड़ी जिला प्राचीन कुंतल प्रदेश का प्रतिनिधित्व करता है जहाँ गुप्तों के संबंधी कदंबों का शासन था। परंपरा के अनुसार यह विक्रमादित्य उज्जयिनी और पाटलिपुत्र का अधिपति था। इस विक्रमादित्य की पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से की जा सकती है। दक्षिण भारत में मैसूर प्रांत में धारवाड़ जिले के गुत्तल के गुत्त अपने को ‘उज्जयिनीपुरवराधीश्वर’ एवं ‘पाटलिपुत्रपुरवराधीश्वर’ चंद्रवंशी विक्रमादित्य का प्रतिनिधि मानते हैं। कथासरित्सागर के अनुसार विक्रमादित्य पाटलिपुत्र एवं उज्जयिनी के अधिपति थे। गुत्त लोग किसी गुप्तवंशीय राजकुमार के वंशज हो सकते हैं जो उज्जयिनी का राज्यपाल रहा था। संभवतः शक-विजय के बाद चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जयिनी में अपनी दूसरी राजधानी स्थापित किया था।

गौरीशंकर हीराचंद्र ओझा जैसे कुछ इतिहासकार महाशिवगुप्त के सिरपुर-प्रशस्ति के आधार पर गुप्तों को क्षत्रिय मानते हैं। इस अभिलेख में चंद्रगुप्त नामक सम्राट को नाना प्रशस्त गुणों से संपन्न बताया गया है जो चंद्रवंशी राजमंडल का सिरमौर था। इस चंद्रगुप्त की पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से की जा सकती है। इसके अलावा कौमुदीमहोत्सव के शासक सुंदरवर्मा को क्षत्रिय कहा गया है। यदि इसके दत्तक पुत्र चंडसेन को चंद्रगुप्त प्रथम मान लिया जाये तो भी गुप्त क्षत्रिय प्रमाणित होते हैं क्योंकि सुंदरवर्मा ने अपने सजातीय को ही गोद लिया रहा होगा।

अनेक स्रोतों से ज्ञात होता है कि लिच्छवि क्षत्रिय थे और गुप्तों का लिच्छवियों से वैवाहिक संबंध था। रामायण के अनुसार लिच्छवि सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। नेपाली अभिलेखों और तिब्बती ग्रंथों में भी लिच्छवियों को क्षत्रिय बताया गया है। लिच्छवियों के वैवाहिक संबंध क्षत्रियों से थे, इसलिए गुप्त शासक भी क्षत्रिय रहे होंगे।

किंतु यदि पंचोभ लेख के गुप्तवंशीय राजा सम्राट गुप्तवंश से संबंधित रहे होते, तो इस तथ्य का उल्लेख अपने अभिलेखों में अवश्य करते। लगता है कि यह वंश किसी अन्य गुप्तवंश से संबंधित था जो गुप्तों के पूर्व भारत के विभिन्न भागों में विद्यमान थे। जावा का ग्रंथ ‘तंत्रीकामंदक’ एक मध्यकालीन रचना है जिसकी ऐतिहासिकता और प्रमाणिकता संदिग्ध है। अर्वाचीन होने के कारण कनाड़ी और गुत्तल परंपराएँ भी प्रमाणिक नहीं मानी जा सकती हैं। सिरपुर-प्रशस्ति के चंद्रगुप्त का वंश-वृक्ष गुप्त सम्राटों की वंशावली से भिन्न है, इसलिए इनका संबंध गुप्तों से जोड़ना उचित नहीं है। कौमुदीमहोत्सव कोई ऐतिहासिक ग्रंथ न होकर एक काल्पनिक ग्रंथ है और इसके चंडसेन का समीकरण चंद्रगुप्त से करना मात्र उच्चारण-साम्य पर आधारित है।

लिच्छवियों से संबंध के आधार पर भी गुप्तों को क्षत्रिय सिद्ध नहीं किया जा सकता है क्योंकि मनुस्मृति जैसे ग्रंथों से पता चलता है कि लिच्छवि किसी उच्च वर्ण से संबंधित नहीं थे। वे अपनी राजनीतिक प्रभुसत्ता के कारण स्वयंभू क्षत्रिय थे। पुनः भारतीय संस्कृति में कभी-कभी अनुलोम प्रकार के विवाह भी होते थे जिसके अनुसार कन्या अपने से उच्च वर्ग में ब्याही जाती थी। इस प्रकार लिच्छवियों से वैवाहिक-संबंध के आधार पर गुप्तों को क्षत्रिय प्रमाणित करना कठिन है।

वैश्य उत्पत्ति का मत

एलन, एस.के. आयंगर, अनंत सदाशिव अल्तेकर, रोमिला थापर, रामशरण शर्मा जैसे इतिहासकारों के अनुसार गुप्त लोग वैश्य थे। गुप्तकालीन ग्रंथ विष्णु पुराण में भी कहा गया है कि ब्राह्मण अपने नाम के अंत में शर्मा, क्षत्रिय वर्मा, वैश्य और शूद्र क्रमशः गुप्त एवं दास शब्द जोड़ेंगे-

शर्मेति ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम्।

गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः।

इस श्लोक के आधार पर विद्वानों का मानना है कि गुप्त शासकों के नाम के अंत में ‘गुप्त’ शब्द उनके वैश्य होने का प्रमाण है। वर्णव्यवस्था के शिथिल होने के कारण गुप्तकाल में व्यवसाय का चयन वर्ण के अनुसार नहीं होता था। अनेक ब्राह्मणों ने वैश्य और क्षत्रिय का कार्य करना आरंभ कर दिया था। कदंब और वाकाटक वंश के लोग ब्राह्मण होकर क्षत्रिय का कार्य करते थे। गुप्तों का सामंत मातृविष्णु ब्राह्मण था। स्कंदगुप्तकालीन इंदौर के ताम्रपट में क्षत्रिय अचलवर्मा एवं भृकुंठसिंह को ‘इंद्रपुर का बनिया’ कहा गया है (इंद्रपुरक वणिग्भ्याम्)। गुप्तकालीन रचना मृच्छकटिक के अनुसार ब्राह्मण चारुदत्त वणिक का कार्य करता था (सार्थवाह-वृत्ति)। इस समय अनेक वैश्य क्षत्रिय का कार्य करने लगे थे और यदि गुप्तों ने वैश्य होकर क्षत्रिय का कार्य किया तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

इसके अलावा पूना ताम्रलेख में प्रभावती गुप्ता को ‘धारणसगोत्र’ कहा गया है। धारण गोत्र अग्रवाल वैश्यों का एक गोत्र है। संभवतः वैश्य वर्ग से संबंधित होने के कारण ही गुप्तों ने अपने लेखों में अपने गोत्र या वर्ण की चर्चा नहीं की है।

किंतु गुप्तों को वैश्य नहीं माना जा सकता है। गुप्त राजाओं के नाम का अंतिम ‘गुप्त’ शब्द जाति-सूचक न होकर इस वंश के संस्थापक का नाम था क्योंकि इस वंश के दूसरे शासक घटोत्कच के नाम के अंत में ‘गुप्त’ शब्द नहीं मिलता है। चंद्रगुप्त ने पहली बार अपने कुल के संस्थापक का नाम अपने नाम के अंत में जोड़ा, जिसे बाद के सभी गुप्त नरेश अपने नाम के अंत में धारण करने लगे और यह वंश गुप्तवंश के नाम से प्रसिद्ध हो गया। वस्तुतः ‘गुप्त’ इस वंश के संस्थापक का नाम था और पुराणों में इस वंश को ‘गुप्तवंशजाः’ कहकर इसी तथ्य का ओर इंगित किया गया है।

प्राचीन भारतीय साहित्य और अभिलेखों में कई ‘गुप्त’ नामांत मिलते हैं, जो वैश्य नहीं थे। कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर का एक नरेश मातृगुप्त था जिसने अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर प्रव्रज्या ग्रहण कर लिया था। अफसढ़ और देवबर्णार्क के लेखों में वर्णित राजवंश के शासकों के नाम के अंत में भी ‘गुप्त’ शब्द आता है जिन्हें वैश्य न कहकर ‘सदवंशः’ कहा गया है। विष्णुगुप्त (कौटिल्य) भी वैश्य नहीं था। इस प्रकार ‘गुप्त’ नामांत के आधार पर गुप्तों को वैश्य प्रमाणित करना कठिन है।

ब्राह्मण उत्पत्ति का मत

अनेक इतिहासकारों ने गुप्तों को ब्राह्मण सिद्ध करने का प्रयास किया है। प्रभावतीगुप्ता के पूना एवं रिद्धपुर के ताम्रलेखों से स्पष्ट है कि उसका गोत्र धारण था जो उसके पिता का था क्योंकि उसका पति रुद्रसेन स्पष्टतया विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राह्मण था। इस प्रकार स्पष्ट है कि धारण गोत्र उसके पिता चंद्रगुप्त द्वितीय का ही गोत्रा था। हेमचंद्र रायचौधरी ने गुप्तों के धारण गोत्र को कालीदास के नाटक मालविकाग्निमित्रम् में उल्लखित देवी धारिणी से समीकृत किया है, जो शुंग राजकुमार अग्निमित्र की प्रधान महिषी थी। किंतु धारण और धारणी के उच्चारण साम्य के आधार पर गुप्तवंश को शुंगदेवी की वंश-परंपरा से जोड़ना इतिहासकारों को स्वीकार्य नहीं है। देवी धारिणी नाटक के अनुसार नागकुल की कन्या थी, जबकि समुद्रगुप्त ने नागवंश का उन्मूलन कर गरुड़ को अपनी मुद्राओं पर अंकित करवाया था। नाग और गरुड़ की शत्रुता लोकविदित है।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार प्रभावतीगुप्ता का धारण गोत्र उसके पुरोहित का गोत्र हो सकता है। प्राचीन काल में लोग कभी-कभी अपने पुरोहित का भी गोत्र धारण कर लेते थे। मनुस्मृति के भाष्यकार मेधातिथि के अनुसार राजन्य और वैश्य ही पुरोहित गोत्र धारण करते थे, ब्राह्मण नहीं। ब्राह्मणों का अपना व्यक्तिगत गोत्र होता था। यदि प्रभावतीगुप्ता ब्राह्मणी थी, तो वह पुरोहित का गोत्र क्यों धारण करती? यद्यपि भारतीय परंपरा के अनुसार विवाह के उपरांत स्त्रियों का गोत्र उसके पति के गोत्र द्वारा निर्धारित होता था (विवाहांतर नारी पतिगोत्रेण गोत्रिणी), किंतु कभी-कभी स्त्री अपने पिता का गोत्र भी धारण कर सकती थी। इसलिए बहुत संभव है कि प्रभावतीगुप्ता ने अपने पिता के गोत्र को धारण कर लिया हो। वस्तुतः धारण ब्राह्मणों का ही एक गोत्र है। स्कंदपुराण में ब्राह्मणों के जो चौबीस गोत्र गिनाये गये हैं, उनमें बारहवाँ गोत्र धारण है।

शांतिवर्मा की तालगुंड (मैसूर) प्रशस्ति से पता चलता है कि कदंब नरेश काकुत्स्थवर्मा की पुत्री गुप्तकुल में ब्याही गई थी। इस राजवंश के संस्थापक मयूरशर्मा को अभिलेख में ‘द्विजोत्तम’ कहा गया है (एवमागते कदंबकुले श्रीमान्वभूव द्विजोत्तम), जो कौटिल्य की प्रकृति का ब्राह्मण था। इस वंश की कन्याओं का विवाह वाकाटक और गंग जैसे ब्राह्मण कुलों में ही हुआ था। यदि गुप्त लोग ब्राह्मण न होते तो यह विवाह प्रतिलोम विवाह की कोटि में आता, जो स्मृतियों के अनुसार निंदनीय था। इस प्रकार वैवाहिक संबंधों के आधार पर भी गुप्तों को ब्राह्मण माना जा सकता है।

किंतु गुप्तों को ब्राह्मण मानने में भी कठिनाई है। वाकाटक लेख में प्रभावतीगुप्ता को ‘धारणगोत्रा’ के स्थान पर ‘धारणसगोत्रा’ कहा गया है। इससे लगता है कि धारण गोत्र उसके पिता का नहीं, उसके पुरोहित का ही था। यद्यपि गुप्तों के वैवाहिक संबंध अनेक ब्राह्मण राजवंशों में थे, किंतु उस समय अंतर्जातीय विवाह करने की भी परंपरा थी। यह सही है कि स्मृतियों में प्रतिकूल विवाह की निंदा की गई है, किंतु इससे यह निष्कर्ष निकालना कि गुप्त ब्राह्मण वंश के थे और ब्राह्मण राजवंशों में ही विवाह किये रहे होंगे, उचित नहीं लगता। प्राचीनकाल में अनेक विवाह राजनीतिक आवश्यकता को ध्यान में रखकर भी किये जाते थे, जैसे गुप्त-लिच्छवि संबंध, वर्धन-मौखरि संबंध आदि।

इस प्रकार विभिन्न मत-मतांतरों के बाद भी गुप्तों की उत्पत्ति को असंदिग्ध रूप से निर्धारित करना संभव नहीं है। इतना स्पष्ट है कि गुप्त किसी निम्न वर्ण से संबंधित न होकर ब्राह्मण या वैश्य वर्ण से संबंधित थे। संभव है कि वे ब्राह्मण ही रहे हों।

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