संगम युग में चोल राजवंश (Chola Dynasty in Sangam Age)

संगम युग में चोल राजवंश (Chola Dynasty in Sangam Age)

सुदूर दक्षिण भारत के तमिल प्रदेश में प्राचीनकाल में जिन राजवंशों का उत्कर्ष हुआ, उनमें चोलों का विशिष्ट स्थान है। इनका प्राचीन राज्य चोल देश या चोडमंडलम् पेन्नार और बेल्लारु नदियों के बीच स्थित था। किंतु इस राज्य की भौगोलिक सीमा इस राजवंश के शासकों की शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार समय-समय पर बदलती रही। प्रारंभ में चोलों ने उरगपुर (त्रिचनापल्ली के निकट उरैयूर) में राजधानी स्थापित की, किंतु आगे चलकर क्रमशः कावेरीपट्टनम्, तंजुवुर (तंजोर) तथा गंगैकोंडचोलपुरम् भी इनकी राजधानियाँ बनीं।

चोल राजवंश के ऐतिहासिक स्रोत

चोलों के पुरातन इतिहास-निर्माण के एकमात्र साधन साहित्यिक ही हैं। साहित्यिक स्रोतों में संगम साहित्य महत्वपूर्ण हैं। यद्यपि संगम साहित्य की तिथि विवादग्रस्त है, किंतु इनमें से कुछ रचनाएँ ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों की मानी जाती हैं। ‘शिलप्पदिकारम्’ तथा ‘मणिमेकलै’ जैसी कुछ सुगमयुगीन कृतियाँ परवर्ती काल की हैं, किंतु इनसे पुरातन इतिहास एवं सभ्यता की जानकारी मिलती है। संगम साहित्य में सुदूर दक्षिण में तीन प्रमुख राज्यों- चोल, चेर और पांड्य के उद्भव और विकास का विवरण मिलता है। उत्तर-पूरब में चोल, दक्षिण-पश्चिम में चेर और दक्षिण-पूरब में पांड्यों का राज्य स्थित था। संगम साहित्य में उल्लिखित अनेक तथ्यों की पुष्टि पेरीप्लस तथा टॉलमी के विवरणों से भी होती है।

चोल राजवंश की प्रथम जानकारी कात्यायन के वार्तिक से मिलती है, जहाँ इन्हें पांड्यों के साथ रखा गया है। रामकृष्ण भंडारकर जैसे विद्वान कात्यायन को चतुर्थ शती ई.पू. में रखते हैं। चोलों का प्रथम ऐतिहासिक उल्लेख मौर्य सम्राट अशोक के अभिलेखों में मिलता है, जहाँ इनकी गणना पांड्यों और केरलों के साथ की गई है। लेखों में इनका उल्लेख बहुवचन में है, जिससे लगता है कि अशोक के समय कई चोल राज्य अस्तित्व में थे।

महावंश में चोल राज्य और श्रीलंका के पारस्परिक संबंध के विषय में एक कहानी मिलती है। इसके अनुसार ई.पू. दूसरी शती के मध्य में एक प्रसिद्ध राजवंश में आविर्भूत ऋजु स्वभाव वाला एलार नामक द्रविड़ राजा चोल देश से श्रीलंका जाकर यहाँ के तत्कालीन शासक रसेल को पराजित कर राजसत्ता प्राप्त कर ली। उसने चौवालीस वर्ष तक शासन किया। वह अपनी न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध था और न्याय करते समय शत्रु-मित्र में समभाव रखता था। उसने अपने शयनकक्ष में सिरहाने एक रस्सी सहित एक घंटा लटकवा रखा था, जिसे बजाने के बाद वह उपस्थित हो जाता था। महावंश में एलार के निष्पक्ष न्याय-संपादन से संबंधित अनेक कहानियाँ मिलती हैं। एक कहानी के अनुसार एक दिन राजपुत्र रथ में बैठकर तिष्यवापी जा रहा था। रास्ते में अपनी माँ के साथ एक तरुण गोवत्स विश्राम कर रहा था। अनजाने में पहिये के नीचे आ जाने से गोवत्स की मृत्य हो गई। माता (गो) ने घंटा बजाने की इच्छा से उसे रगड़ना शुरू किया। आवाज सुन कर राजा आया और उसने उसी पहिये से अपने पुत्र का सिर कटवा दिया।

एक बार एक सर्प ने ताड़ के पेड़ पर रहते हुए एक चिड़िये का बच्चा खा डाला। बच्चे की माँ ने राजा के पास जाकर घंटा बजाया। राजा ने सर्प मँगवा कर उसका पेट फड़वा कर उसमें से पक्षी का बच्चा निकलवाया। महावंश के अनुसार यद्यपि राजा बुद्धधर्म से अपरिचित था, किंतु बुद्धधर्म के अनुरूप आचरण करता था। एक बार चेतिय पर्वत से आते समय रथ के जुये के एक भाग से स्तूप का एक कोना टूट गया। अमात्यों ने राजा के पास इसकी शिकायत की। यद्यपि ऐसा अनजाने में हुआ था, फिर भी राजा रथ से उत्तर का मार्ग में लेट गया और रथ के पहिए से सिर काटने के लिए कहा, लेकिन अमात्यों के यह कहने पर कि ‘शास्ता को परहिंसा प्रिय नहीं है, राजा स्तूप की मरम्मत करवा कर प्रायश्चित करे’, उसने उसकी मरम्मत करवा कर अपराध क्षमा करवाया।

महावंश के अनुसार एलार का दुष्टग्रामणी नामक राजा से संघर्ष हुआ। दुष्टग्रामणी जीत गया। उसने अनुराधपुर तक शत्रु का पीछा किया। नगर प्राकार के दक्षिण द्वार पर दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। इसमें एलार मारा गया। दुष्टग्रामणी ने एक योजन तक फैले क्षेत्र के लोगों को बुलाकर एलार की अंतिम क्रिया संपन्न करवाई। महावंश की इस कहानी की तमिल साहित्य में कोई चर्चा नहीं है। इसमें केवल राजा और बछड़े की कथा मिलती है।

संगम युग के कतिपय कवियों ने एक कहानी में मौर्यों (मोरियों) के दक्षिण पर आक्रमण की चर्चा मिलती है। मामूलनार ने लिखा है कि नंदों ने पाटिलपुत्र में गंगा की धारा में अपना कोष छिपा रखा था। इसके अनुसार मोहर राजा के विरोध करने पर भी मौर्य अपनी सेना के साथ दक्षिण आये थे। ‘पेरिप्लस ऑफ द एरीथ्रियन सी’ के अज्ञात लेखक और भूगोलवेत्ता टॉलसी भी प्रसंगतः चोलों का उल्लेख करते हैं। पेरिप्लस का अज्ञात लेखक लिखता है कि कोलची के परे एक दूसरा जिला है, जिसे तटीय प्रदेश कहा जाता है। यह एक खाड़ी पर स्थित है। इसके भीतरी प्रदेश को आर्गरु कहते हैं। इससे लगता है कि चोल देश दो भागों में बँटा हुआ था। एक तटीय भाग था और दूसरा इससे अलग भीतरी भाग। भूगोलवेत्ता टॉलमी ने चोलों की राजधानी उरैयूर (ओर्थुरा रीगिया सोनर्ति) का उल्लेख किया है और इस देश के बंदरगाहों की चर्चा की है। स्रोतों से पता चलता है कि आरंभ में चोलों की राजधानी उत्तरी ‘मलनुर’ थी। कालांतर में वह उरैयूर और तंजावूर हो गई। चोलों का राजकीय चिन्ह बाघ था।

संगमयुगीन चोल शासक

संगमकालीन राज्यों में चोल सबसे शक्तिशाली थे। इस राज्य के अंतर्गत चित्तूर, उत्तरी अर्काट, मद्रास के चित्तलदुर्ग तक का भाग, दक्षिणी अर्काट, तंजौर और त्रिचनापल्ली के क्षेत्र सम्मिलित थे। संगमयुगीन प्रथम चोल शासक इलंजेतचेन्नी था, किंतु उसका पुत्र करिकाल (190 ई.) संगमकालीन चोल राजाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण था।

करिकाल

अनुश्रुतियों में करिकाल को एक ऐसे अज्ञातनामा शासक का वंशज बताया गया है, जो समुद्री हवा को भी अपनी सुविधा के अनुसार अपने अनुकूल कर लेता था। करिकाल इलंजेट्चेन्नि, जो अत्यंत प्रतापी तथा युद्धवीर शासक था और जो अपने सुंदर लड़ाकू रथों के लिए प्रसिद्ध था, का पुत्र था। करिकाल का शाब्दिक अर्थ होता है- करिकाल का अर्थ है- जले हुए टाँगवाला। पोरुनर आर्रुप्पडै से पता चलता है कि बचपन में करिकाल का पाँव जल गया था। नीलकंठ शास्त्री का विचार है कि बाद में करिकाल का अर्थ ‘हाथियों के लिए काल-करिकाल’ हो गया।

करिकाल का प्रारंभिक जीवन विपत्तियों से घिरा था। उसके आरंभिक जीवन के संबंध में पता चलता है कि उसका पैतृक राज्य उसके शत्रुओं ने छीन लिया था। पट्टिनपल्लै के अनुसार व्याघ्रशावक की भाँति करिकाल का भी शारीरिक पौरुष कारागार में दिनोंदिन बढ़ता गया और अंत में जिस प्रकार कोई बड़ी सूड़ वाला हाथी अपनी सूड़ से उस गड्ढ़े के किनारे को, जिसमें फँसा कर उसे पकड़ा जाता है, तोड़कर गड्ढा पार कर वापस निकल कर अपनी प्रियतमा हथिनी से मिलने पुनः आ जाता है, उसी प्रकार करिकाल भी कारागार के सैनिकों को पराजित कर उससे भाग निकला और अपने पैतृक राज्य पर अधिकार कर लिया। करिकाल के शत्रु अत्यंत भयभीत रहते थे और उसकी आज्ञा मानने के लिए विवश रहते थे। यद्यपि करिकाल के संबंध में पट्टिनपल्लै का विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण है, किंतु लगता है कि करिकाल ने अपने पराक्रम के बल पर अपने सभी शत्रुओं को हराकर अपने राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया था।

करिकाल की प्रारंभिक सफलताओं में उसकी वेण्णिविजय का उल्लेख किया जा सकता है। वेण्णि का समीकरण आधुनिक तंजोर के कोविल वेण्णि नामक गाँव से किया जाता है। संभवतः करिकाल ने राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद अपने पुराने शत्रुओं को जीतने के क्रम में वेणि की विजय किया था। जो भी हो, करिकाल की इस विजय से उसके यश और प्रतिष्ठा में वृद्धि हो गई। उसने चोल राज्य के दो बड़े शत्रुओं के एक विशाल संघ को, जिसमें पांड्यों तथा चेरों सहित ग्यारह अन्य राजा थे, पराजित किया था। करिकाल ने इस युद्ध में चेर और पांड्य राजाओं के यश को धूल में मिला दिया। कहा जाता है कि इस युद्ध में घायल चेर शासक ने लज्जा के कारण अपना प्राण-त्याग दिया था। करिकाल द्वारा पराजित चेर शासक पेरुम शेरल आदन था।

वेण्णियुद्ध के अतिरिक्त करिकाल ने वाहैप्परंदलै के युद्ध में नौ शत्रुओं के एक सम्मिलित मोर्चे (संघ) को पराजित किया था। इस युद्ध का उल्लेख कवि परणर ने किया है जो करिकाल और उसके पिता का समकालीन था। करिकाल के समक्ष ओलियरों तथा अरुवालरों ने भी घुटने टेक दिये। नीलकंठ शास्त्री अरुवालरों को अरुद्रवानाड का निवासी मानते हैं जो कावेरी डेल्टा से ठोक उत्तर में पोण्णार की निचली घाटी में रहते थे। ओलियर संभवतः नागवंशीय कोई खानाबदोश जाति थी, जिसे करिकाल ने बसाया था।

करिकाल की उपलब्धियों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है। परवर्ती गाथाओं में करिकाल के बारे में कहा गया है कि उसने उसने हिमालय तक सैनिक अभियान किया और वज्र, मगध तथा अवंति के राजाओं को पराजित कर उन्हें अपना मित्र बना लिया था। जब वह खुले समद्र में जहाज चलाता था, तो हवा भी उसके अनुसार बहने को बाध्य होती थी।

करिकाल के जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना उसके श्रीलंका पर आक्रमण से संबंधित है। कहा गया है कि इस अभियान में उसे निर्णायक सफलता मिली थी और उसने सिंहल से 12,000 युद्धबंदियों को लाकर पुहार के बंदरगाह का निर्माण करवाया था। किंतु इन विजयों की प्रमाणिकता संदिग्ध है।

करिकाल से संबंधित एक अनुश्रुतियों में उसके द्वारा कावेरी नदी की बाढ़ से बचने के लिए बाँध के निर्माण करने, काँची विजय और तोंडैमंडलम् में किसानों की बस्ती बनाये जाने की सूचना मिलती है, किंतु इनका कोई ठोस प्रमाण नहीं है।

करिकाल के व्यक्तिगत जीवन के विषय में अधिक जानकारी नहीं है। पट्टिनप्पलै के अनुसार उसे स्त्रियों और बच्चे बहुत प्रिय थे। एक परवर्ती टीकाकार से पता चलता है कि इसने नांगूर की बेलिर कन्या से विवाह भी किया था। करिकाल की एक पुत्री आदिमंदि का विवाह एक चेर राजकुमार अत्तन अत्ति से हुआ था। कहा जाता है कि वह चेर राजकुमार कावेरी में डूबकर मर गया था, किंतु आदिमंदि ने अपने सतीत्व के बल पर उसे जीवित कर लिया था।

करिकाल वैदिक मत का अनुयायी था। उसने अनेक वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान करवाया था। उसके लिए गरुड़ के आकार की एक वेदी बनाई जाती थी। वह कला, साहित्य का संरक्षक और विद्वानों का आश्रयदाता भी था। पटिनप्पालै के लेखक को उसने 16 लाख मुद्राएँ भेंट की थी। पेरूनानुत्रुपाद में उसे सात स्वरों का ज्ञाता बताया गया है।

करिकाल एक प्रजावत्सल शासक भी था और प्रजा की सुख-सुविधाओं का सदैव ध्यान रखता था। करिकाल ने उद्योगों एवं कृषि के विकास के लिए कावेरी नदी के मुहाने पर पुहार की स्थापना की और सिंचाई के लिए नहरों तथा तालाबों का निर्माण करवाया। इस प्रकार एक विजेता, साम्राज्य निर्माता, धर्मपरायण और प्रजावत्सल शासक के रूप में तमिल इतिहास में करिकाल का विशिष्ट स्थान है। उसके समय में चोल राजधानी उरैयूर से कावेरीपट्टनम् स्थानांतरित गई थी। प्रायः करिकाल का समय दूसरी शती ई. का अंतिम पाद (190 ई.) माना जाता है।

नलंगिल्लि तथा नेडुंगिल्लि : करिकाल के तीन पुत्र नलंगिल्लि, नेडुमुडुक्किलि और मानवत्तान थे। इनमें नलंगिल्लि के संबंध में अपेक्षाकृत अधिक सूचनाएँ मिलती हैं। पुरनानुरु में इससे संबंधित कम से कम चौदह कविताएँ हैं। इसके एक प्रतिद्वंद्वी नेडुंगिल्लि के विषय में सूचना मिलती है, जिसे इसन करियारु के दीर्घकालीन युद्ध में पराजित किया था। करियारु के भीषण संघर्ष का वर्णन मणिमेकलै में भी मिलता है। इस संघर्ष के आधार पर अनुमान है कि चोल इस समय दो प्रतिद्वंद्वी शाखाओं में बँटे थे, जिनमें से एक की राजधानी पुहार और दूसरे की उरैयूर थी।

करिकाल की भाँति समान नलंगिल्लि का भी तमिल राज्यों पर अधिकार था। इसके संबंध में कहा गया है कि इसके शत्रु इसकी आज्ञा का उसी प्रकार अनुगमन करते थे, जिस प्रकार धन और सुख धर्म का अनुसरण करते हैं। यह सदैव विजय स्कंधावारों में ही रहता था। इसके घोड़े पूर्वी समुद्र से चलकर पश्चिमी समुद्र तक निर्वाध पहुँच कर ही विश्राम करते थे। उत्तर के राजा इसके आक्रमण के भय से सदैव भयभीत रहते थे और उन्हें नींद नहीं आती थी। अपनी एक कविता में उसने स्वयं लिखा है कि ‘अनुपम विनय करने वाले को तो यह अपना प्राचीन राज्य भी सहर्ष दे सकता है, लेकिन जो इसके बल तथा आज्ञाओं की उपेक्षा करेगा उसके प्राण लेने में तनिक भी नहीं हिचकेगा।’ करिकाल के दूसरे पुत्र मावलत्तान के विषय में तामप्पलकण्णनार की कविता से थोड़ी-सी सूचना मिलती है, जिसके अनुसार एक बार खेल-खेल में गुस्से में पागल हो जाने पर इसने कवि के ऊपर पासे से प्रहार किया था। कवि ने पहले तो इस अपराध के लिए इसे डांटा-फटकारा, लेकिन बाद में क्षमायाचना के लिए एक कविता लिख डाली।

किल्लवलन

नलंगिल्लि तथा नेडुंगिल्लि पर कविता लिखने वाले कवियों ने किल्विलन नामक एक शासक की भी प्रशंसा की है। इसलिए यह इन्हीं शासकों का समकालीन लगता है। इस राजा की मृत्यु कुलमुर्रम में हुई थी। कोवूकिलार की एक कविता में एक अन्य किल्लिवलन नामक शासक का उल्लेख है, जिसकी मृत्यु कुराप्पलि में हुई थी। कुछ विद्वान दोनों किल्विलन को एक ही मानते हैं। कुराप्पल्लि और कुलमुर्रम एक ही अर्थ है- ‘तालाब का तटबंध’

किल्लिवलन के विषय में कहा जाता है कि इसने करूर पर घेरा डाला था तथा चेरों पर विजय प्राप्त की थी। कहा जाता है कि अलतूर किलार ने करूर को विनाश से बचाने की बड़ी कोशिश की, किंतु उसे सफलता नहीं मिली। अहनानूर में संकलित नक्करर की एक कविता से ज्ञात होता है कि पांड्य सेनापति पलैयन मारन ने मदुरा की दीवालों के नीचे किसी किल्लिवलन को पराजित किया था। नीलकंठ शास्त्री का अनुमान है कि यह किल्लिवलन वही था, जिसकी कुलमुर्रम में मृत्यु हुई थी। किल्लिवलन ने मलाडु के शासक मलैयमान को भी पराजित किया था। इस शासक की पहचान मलैयमान तिरुमुडिक्करि से की जाती है।

कोप्पेरुंजोलन

संगमयुगीन का चोल वंश का एक अन्य शासक कोप्पेरुंजोलन था। इसकी राजधानी उरैयूर में थी। पोल्लसिर एपिर्रियनार की एक कविता में कोप्पेरुंजोलन एवं उसके पुत्रों के बीच गृहकलह का उल्लेख मिलता है। इससे लगता है कि कोप्पेरुंजोलन का अपने पुत्रों से किसी प्रकार का संघर्ष हुआ था और इस मानसिक पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए इसने आत्महत्या कर ली थी। कोप्पेरुंजोलन का आंदैयार और पोत्तियार नामक दो कवियों से अच्छी मित्रता थी। आंदेयार पांड्य देश का निवासी था, जबकि पोत्तियार चोल देश का रहने वाला था और उरैयूर में रहता था।

पेरुनरकिल्लि

संगमयुगीन का एक अन्य चोल राजा पेरुनरकिल्लि था। इस पराक्रमी शासक ने शत्रुओं के देशों में बड़ी तबाही की थी। एक कविता में इसके और चेर शासक मादेरंजेरल इरूपारै के बीच संघर्ष का उल्लेख है। स्वामीनाथ अय्यर चेर राजा की पहचान यानैक्कचेय मंदिजेरलिरुंपोरै से करते हैं। चोल राजाओं में इसी को राजसूय जैसे वैदिक यज्ञ करने का श्रेय दिया गया है।

कोच्चेंगणान अथवा शेण्गणान

संगमयुग के परवर्ती चोल शासकों में एक कोच्चेंगणान अथवा शेण्गणान भी था। इस शासक से संबंधित सूचनाएँ पुरनानूरु तथा कलवलि की कविताओं में मिलती हैं। इससे संबंधित कुछ दंतकथाएँ परवर्ती चोल राजाओं के ताम्रपत्रों में भी वर्णित हैं। अनुश्रुतियों के अनुसार यह अपने पूर्व जन्म में मकड़ा था। कलवलि से पता चलता है कि इसका चेर शासक कणैक्काल से संघर्ष हुआ था, जिसमें चेर शासक पराजित हुआ था और बंदी बना लिया गया था। यह युद्ध कोंगुदेश के करुवूर नामक स्थान के निकट कलुमलस में हुआ था। कहा जाता है कि चेर शासक के चतुर चारण पोयगै ने चोल शासक की प्रशंसा करके इसे छुड़ा लिया था। धार्मिक दृष्टि से शेण्गणान शैव था और इसने सत्तर शिवमंदिरों का निर्माण करवाया था।

इसके साथ ही संगमयुगीन कुछ अन्य छोटे-मोटे चोल राजाओं के संबंध में भी सूचनाएँ मिलती हैं। संभवतः चोल शासकों ने तीसरी-चौथी सदी तक शासन किया। इसके बाद नवीं शताब्दी ई. में विजयालय के नेतृत्व में चोल सत्ता का पुनरुत्थान हुआ।

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