शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध (War of Succession Among Shah Jahan’s sons)

शाहजहाँ के चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ थीं। उसकी सबसे बड़ी पुत्री जहाँआरा थी। दाराशिकोह शाहजहाँ का सबसे बड़ा पुत्र था, जो उसके पास ही रहता था। शाहशुजा शाहजहाँ का दूसरा पुत्र था, जो बंगाल में था। रोशनआरा सम्राट शाहजहाँ की दूसरी पुत्री थी। औरंगजेब शाहजहाँ का तीसरा पुत्र था, जो दक्षिण का शासन-कार्य देखता था। मुरादबख्श शाहजहाँ का सबसे छोटा पुत्र था, जो गुजरात का शासन देखता था। शाहजहाँ की तीसरी पुत्री गौहरआरा थी जो मुमताज की चौदहवीं संतान थी। शाहजहाँ की बीमारी के समय दाराशिकोह की आयु तैंतालीस वर्ष, शाहशुजा की इक्तालीस, औरंगजेब की उन्तालिस और मुरादबख्श की तैंतीस वर्ष थी।

Table of Contents

दाराशिकोह

शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध
दाराशिकोह

दाराशिकोह पंजाब का सूबेदार था और अधिकतर शाहजहाँ के पास राजधानी में ही रहता था। शाहजहाँ दाराशिकोह पर विश्वास करता था और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। दाराशिकोह में विद्यानुराग और धार्मिक उदारता के गुण विद्यमान थे। अपने उदार स्वभाव तथा पंडितोचित प्रवृत्ति के कारण दाराशिकोह सभी दर्शनों के सार का संग्रह करना चाहता था। उसने वेदांत, तालमुद एंव बाईबिल के सिद्धांतों तथा सूफी लेखकों की रचनाओं का अध्ययन किया था।

दाराशिकोह ने ब्राह्मण पंडितों की मदद से अथर्ववेद एवं उपनिषदों का फारसी में अनुवाद करवाया। वह सुलह-ए-कुल की नीति का समर्थक था। दाराशिकोह का लक्ष्य था सभी धर्मों के बीच सामंजस्य का आधार खोजना, जिसके कारण उसके कट्टर सहधर्मी उसके विरुद्ध हो गये।

परंतु दाराशिकोह पांखडी नहीं था और उसने कभी इस्लाम के सारभूत सिद्धांतों का परित्याग नहीं किया। उसने केवल सूफियों की, जो इस्लाम-धर्मावलंबियों की एक स्वीकृत विचारधारा थी, सर्वदर्शन सार संग्रहकारी प्रवृत्ति दिखाई।

शाहशुजा

शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध
शाहशुजा

बुद्धिमान शाहशुजा बहुत महत्वाकांक्षी शहजादा था। उसको बंगाल का सूबेदारी मिली थी। वह वीर, साहसी और कुशल प्रशासक था, किंतु आरामतलब होने के कारण वह दुर्बल, आलसी, असावधान था।

औरंगजेब

शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध
औरंगजेब

औरंगज़ेब का जन्म 3 नवंबर 1618 को दाहोद, गुजरात में हुआ था। वह शाहजहाँ और मुमताज़ महल की छठी संतान और तीसरा बेटा था। अपने पिता के काल में वह गुजरात का सूबेदार था। औरंगजेब असाधारण उद्योग और गहन कूटनीतिक तथा सैनिक गुणों से संपन्न था। उसमें शासन करने की असंदिग्ध रूप में योग्यता थी और एक उत्साही सुन्नी मुसलमान के रूप में उसे कट्टर सुन्नियों का समर्थन प्राप्त था। धूर्त एंव बुद्धिमान औरंगजेब की बराबरी में दाराशिकोह तुच्छ था। शाहशुजा और मुरादबख्श भी औरंगजेब के सेनापतित्व एवं चतुराई के समक्ष कुछ नहीं थे।

मुरादबख्श

शाहजहाँ का सबसे छोटा पुत्र मुरादबख्श कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसको गुजरात की सूबेदारी दी गई थी, परंतु वह बहुत बड़ा पियक्कड़ था, इसलिए उसमें नेतृत्व के आवश्यक गुणों का विकास नहीं हो सका था।

शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध
मुरादबख्श

शाहजहाँ की बीमारी

सितंबर 1657 ई. में शाहजहाँ गंभीर रूप से बीमार पड़ गया और अफवाह फैल गई की शाहजहाँ का निधन हो गया। चारों भाइयों में केवल ही दाराशिकोह आगरे में था, इसलिए बीमारी के समय शाहजहाँ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र दाराशिकोह को साम्राज्य का भार सौंप दिया। दाराशिकोह के तीनों अनुपस्थित भाइयों को संदेह हुआ कि उनका पिता वास्तव में मर चुका है और दाराशिकोह ने गद्दी पर अधिकार करने के लिए समाचार को दबा दिया है।

उत्तराधिकार-युद्ध के कारण

शाहजहाँ के जीवित रहते ही उसके चारों पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के लिए संघर्ष छिड़ गया। किंतु बादशाह के जीवित रहते उत्तराधिकार के लिए लड़ा गया यह युद्ध मुगल काल का पहला उदाहरण था। उत्तराधिकार-युद्ध में भाग लेनेवाले सभी शहजादे एक ही माँ मुमताज की संतान थे। शाहजहाँ के पुत्रों के बीच होनेवाले इस उत्तराधिकार-युद्ध के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे-

उत्तराधिकार के निश्चित नियम का अभाव

दिल्ली के सुलतानों की तरह मुगलों में भी उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था और तलवार के बल पर शासन प्राप्त किया जा सकता था। सम्राट की मृत्यु होने पर उत्तराधिकार के लिए युद्ध होना एक परंपरा बन गई थी। इसलिए शाहजहाँ के पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के लिए युद्ध होना कोई नई बात नहीं थी।

शाहजहाँ के पुत्रों की महत्वाकांक्षा

शाहजहाँ के सभी पुत्र अत्यधिक महत्वाकांक्षी थे और राजसिंहासन को प्राप्त करने के लिए उत्सुक थे। उसके पुत्रों में वीरता और संसाधन की कमी नहीं थी क्योंकि वे किसी न किसी क्षेत्र के शासक के रूप में कार्य कर रहे थे। इतना ही नहीं, शाहजहाँ के सभी पुत्रों के पास अपनी-अपनी सेनाएँ भी थीं और वे किसी भी स्थिति में अपने को कमतर नहीं मानते थे।

चारित्रिक भिन्नता और परस्पर द्वेष

शाहजहाँ के चारों पुत्र भिन्न-भिन्न स्वभाव के थे। चारित्रिक भिन्नता के कारण शाहजहाँ के पुत्रों में परस्पर द्वेष और ईर्ष्या की भावना थी। शाहजहाँ अपने बड़े पुत्र दाराशिकोह को अधिक प्यार करता था, जिससे कारण उसके भाई उससे और भी ईष्र्या करते थे। जब शाहजहाँ ने दाराशिकोह को साम्राज्य का प्रभार सौंपा, तो अन्य भाइयों का विश्वास और भी पक्का हो गया कि शाहजहाँ दाराशिकोह को ही सम्राट बनाना चाहता है।

शाहजहाँ द्वारा दाराशिकोह की नियुक्ति

शाहजहाँ दाराशिकोह को बहुत प्यार करता था। अपने बीमार होने पर शाहजहाँ ने दाराशिकोह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के लिए अपने विश्वसनीय अमीरों के समक्ष प्रस्ताव रखा। उसने दारा की मनसबदारी 40,000 से बढ़ाकर 60,000 कर दी और यह घोषणा की कि दाराशिकोह को सम्राट का सम्मान दिया जाए। स्वाभाविक था कि इस एकतरफा और पक्षपातपूर्ण निर्णय के विरूद्ध अन्य पुत्रों में प्रतिक्रिया होती।

दारा का संदिग्ध आचरण और प्रभार

दाराशिकोह शाहजहाँ के प्रेम और रोशनआरा के समर्थन के कारण मनमानी करने लगा था। जब शाहजहाँ बीमार पड़ा तो दाराशिकोह ने किसी को भी शाहजहाँ से मिलने पर रोक लगा दी और बंगाल, गुजरात तथा दक्षिण में बीजापुर जाने के सारे मार्ग बंद कर दिये ताकि शाहजहाँ के बीमारी की सूचना अन्य भाइयों को न मिल सके। दाराशिकोह के इस संदिग्ध व्यवहार के कारण उसके भाइयों में संदेह पैदा हुआ और वे उत्तराधिकार के यद्ध में कूद पड़े।

आंतरिक षड्यंत्र और गुटबंदी

शाहजहाँ की तीनों पुत्रियाँ जहाँआरा, रोशनआरा तथा गौहरआरा बहुत चालाक और षड्यंत्र रचने में माहिर थीं। जहाँआरा दाराशिकोह का पक्ष लेती थी और उसको मुगल सम्राट बनाना चाहती थी, जबकि रोशनआरा औरंगजेब का समर्थन करती थी। गौहरआरा मुरादबख्श को पादशाह के रूप में देखना चाहती थी।

मुगल दरबार के अमीरों और सरदारों ने भी अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए संघर्ष की स्थिति पैदा कर दी थी। कट्टर सुन्नी मुसलमान एक ओर औरंगजेब को भड़काते थे तो उदारवादी लोग दाराशिकोह का समर्थन करते थे। शिया मुसलमान शाहशुजा को बादशाह के रूप में देखना चाहते थे। इस प्रकार मुगल दरबार षड्यंत्रों का अड्डा बन गया था और उत्तराधिकार का युद्ध अनिवार्य हो गया था।

उत्तराधिकार-युद्ध की घटनाएँ

शाहजहाँ की बीमारी और दाराशिकोह के उत्तराधिकारी होने की सूचना मिलने पर मुराद ने सबसे पहले 5 सिंतंबर 1657 ई. को अहमदाबाद में अपने को बादशाह घोषित कर दिया। इसी प्रकार शाहशुजा ने बंगाल की तत्कालीन राजधानी राजमहल में अपने को बादशाह घोषित किया और सेना लेकर आगरे की ओर प्रस्थान किया।

किंतु इस समय औरंगजेब ने बड़ी सतर्कता और कूटनीतिक तरीके से मुराद और शाहशुजा को अपनी ओर मिलाने की चेष्टा की। औरंगजेब ने दोनों भाइयों- मुरादबख्श और शाहशुजा को पत्र लिखा कि दारा को पराजित करने के बाद राज्य को आपस में बाँट लिया जायेगा।

बहादुरपुर का युद्ध

शाहशुजा की गतिविधियों पर नियंत्रण लगाने के लिए शाहजहाँ ने दाराशिकोह के पुत्र सुलेमानशिकोह, मिर्जा राजा जयसिंह एवं दिलेर खाँ को नियुक्त किया। बनारस के निकट पहुँचने पर बहादुरपुर में 24 फरवरी 1658 ई. को शाहशुजा और शाही सेना के बीच युद्ध हुआ, जिसमें शाहशुजा पराजित हुआ और उसको बंगाल लौटने पर विवश होना पड़ा।

मुराद-औरंगजेब के बीच संधि

मुरादबख्श ने 5 दिसंबर, 1657 ई. को अहमदाबाद में अपना राज्याभिषेक कर लिया था। मालवा में औरंगजेब ने मुरादबख्श से एक समझौता किया और विजय के बाद साम्राज्य को बाँटने का निर्णय किया। औरंगजेब और मुरादबख्श के बीच जो अहदनामा (समझौता) हुआ था, उसमें दारा को रईस-एल-मुलाहिदा (अपधर्मी शहजादा) कहा गया था। औरंगजेब और मुरादबख्श का ‘अहदनामा’ (समझौता) अल्लाह एवं पैगंबर के नाम पर स्वीकृत किया गया था जिसके अनुसार-

  1. लूट के माल का एक तिहाई भाग मुरादबख्श को तथा दो तिहाई भाग औरंगजेब को मिलेगा।
  2. विजय के बाद पंजाब, अफगानिस्तान, कश्मीर और सिंध मुरादबख्श को मिलेंगे, जहाँ वह अपने सिक्के चलायेगा और बादशाह के रूप में अपना नाम घोषित करेगा।

इस प्रकार मुरादबख्श और औरंगजेब ने शाही सेना का सामना करने के लिए संयुक्त योजना बनाई।

दाराशिकोह ने अपने भाइयों की विरोधी गतिविधियों की सूचना मिलने पर जोधपुर के राजा जसवंत सिंह और कासिम खाँ को उनके दमन के लिए नियुक्त किया।

धरमत का युद्ध

शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध
धरमत का युद्ध

औरंगजेब और मुरादबख्श की संयुक्त सेनाओं ने 15 अप्रैल, 1658 ई. को धरमत के युद्ध में जोधपुर के राजा जसवंत सिंह और कासिम खाँ की शाही सेना को हरा दिया। जसवंत सिंह जोधपुर भाग आया, जहाँ उसकी पत्नी ने उसके रणक्षेत्र से भागने के कारण उसके लिए दुर्ग के द्वार बंद करवा दिये। धरमत के युद्ध से औरंगजेब की प्रतिष्ठा बढ़ गई और दारा की कमजोरी उजागर हो गई।

सामूगढ़ का युद्ध

धरमत के युद्ध में शाही सेना के पराजय की सूचना मिलने पर दाराशिकोह एक विशाल सेना लेकर आगरे के दुर्ग से आठ मील पूरब सामूगढ़ पहुँच गया। औरंगजेब और मुरादबख्श की संयुक्त सेनाओं ने सामूगढ़ के मैदान में 29 मई 1658 ई. को दाराशिकोह की शाही सेना को पराजित कर दिया।

सामूगढ़ के युद्ध और दारा की पराजय ने शाहजहाँ के पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के युद्ध का व्यावहारिक रूप से निर्णय कर दिया। दरअसल हिंदुस्तान के राजसिंहासन पर औरंगजेब का अधिकार सामूगढ़ में प्राप्त उसकी विजय का तर्कसंगत परिणाम था।

औरंगजेब का आगरे पर अधिकार

सामूगढ़ की विजय के बाद औरंगजेब सेना लेकर आगरे पहुँचा और 8 जून को आगरे पर अधिकार कर लिया। औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को बंदी बनाकर जेल में डाल दिया और उससे बादशाह के समस्त अधिकार छीन लिये। आगरे पर अधिकार कर लेने के बाद 13 जून, 1658 ई. को औरंगजेब दाराशिकोह का पीछा करने के लिए दिल्ली की ओर चला।

मुराद का अंत

औरंगजेब ने मुरादबख्श से छुटकारा पाने का भी उपाय किया। औरंगजेब ने मुरादबख्श को घोड़े तथा 20 लाख रुपया भेजकर उसे मथुरा में भोज पर आमंत्रित किया। मथुरा के निकट रूपनगर में जब मुरादबख्श औरंगजेब के साथ भोजन कर रहा था तो औरंगजेब ने उसे नशे की हालत में बंदी बना लिया। जनवरी, 1659 ई. में मुरादबख्श को ग्वालियर के किले में लाया गया, जहाँ 4 दिसंबर, 1661 ई. को दीवानअली नकी की हत्या के आरोप में फाँसी पर लटका दिया गया। औरंगजेब ने 21 जुलाई, 1658 ई. को बादशाह के रूप में दिल्ली के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया।

खजवा का युद्ध

बहादुरपुर के युद्ध में पराजित होकर शाहशुजा बंगाल भाग गया था। औरंगजेब जब दाराशिकोह का पीछा करते हुए पंजाब की ओर बढा, तो शाहशुजा आगरे पर अधिकार करने के लिए खजवा नामक स्थान पर सैनिक तैयारियाँ करने लगा। सूचना पाकर औरंगजेब ने 5 जनवरी, 1659 ई. को इलाहाबाद के निकट खजवा में शाहशुजा को पराजित कर दिया।

मीर जुमला ने खजवा में पराजित शाहशुजा का मई, 1660 ई. में पश्चिम बंगाल से ढाका तक और वहाँ से अराकान तक पीछा किया। शायद अराकानियों ने शाहशुजा की परिवार सहित हत्या कर दी। औरंगजेब का ज्येष्ठ पुत्र शाहजादा मुहम्मद, मीर जुमला से लड़कर कुछ समय के लिए शाहशुजा से मिल गया था, परंतु इसका दंड उसे आजन्म (1676 ई. में मृत्यु) कारावास के रूप में मिला।

सुलेमान शिकोह का अंत

दारा का पुत्र सुलेमान शिकोह एक स्थान से दूसरे स्थान को भागता फिर रहा था। अंत में सुलेमान शिकोह ने अपने परिवार और अनुगामियों के साथ गढ़वाल की पहाड़ियों में एक हिंदू राजा के यहाँ शरण ली।

गढ़वाल के राजा ने औरंगजेब के दबाव में 27 दिसंबर, 1660 ई. को सुलेमान को धोखे से शत्रुओं के हाथ में सौंप दिया। अंत में मई, 1662 ई. में सुलेमान शिकोह को परलोक भेज दिया गया।

देवराई का युद्ध

दाराशिकोह औरंगजेब द्वारा आगरे की विजय करने और शाहजहाँ के बंदी बनाये जाने के बाद दिल्ली से लाहौर होता हुआ गुजरात पहुँच गया। दाराशिकोह को जसवंत सिंह ने, जिसे औरंगजेब ने पहले ही अपने पक्ष में कर लिया था, सहायता देने का वादा करके अजमेर की ओर बढ़ने के लिए बुलाया, किंतु राजपूत नायक अपने वादों से मुकर गया। फलतः दाराशिकोह को औरंगजेब के साथ देवराई की घाटी में तीन दिनों तक (12-14 अप्रैल, 1659 ई.) युद्ध करना पड़ा।

देवराई के युद्ध में दाराशिकोह पराजित हुआ और उसे भागकर अपनी रक्षा करनी पड़ी। जून, 1659 ई. में दाराशिकोह ने दादर के अफगान नायक जीवन खाँ से शरण की प्रार्थना की।

अविश्वासी अफगान नायक ने दाराशिकोह, उसकी दो पुत्रियों और दूसरे पुत्र सिपिह शिकोह को बहादुर खाँ, जिसे दारा की पीछा करने के लिए औरंगजेब ने नियुक्त किया था, को सौंप दिया। बहादुर खाँ दाराशिकोह और उसके परिवार को बंदी बनाकर 23 अगस्त, 1659 ई. को दिल्ली ले आया। औरंगजेब ने 29 अगस्त को दाराशिकोह को एक गंदे हाथी पर बिठाकर संपूर्ण नगर में घुमाया और अपमानित किया।

दाराशिकोह का अंत

न्यायाधीशों के एक कोर्ट ने 30 अगस्त को दाराशिकोह पर काफिर होने का आरोप लगाकर उसे मृत्युदंड दिया। दाराशिकोह के सिर को काटकर उसके शव को दिल्ली की सङकों पर घुमाया गया और अंत में उसे हुमायूँ के मकबरे में दफना दिया गया। दारा के साथ हुए इस अपमान-जनक व्यवहार के चश्मदीद गवाह बर्नियर ने लिखा है कि ‘विशाल भीड़ एकत्र थी, सर्वत्र मैंने लोगों को रोते-बिलखते तथा दारा के भाग्य पर शोक प्रकट करते हुए देखा।’

औरंगजेब ने दाराशिकोह के कनिष्ठ पुत्र सिपिह शिकोह और मुरादबख्श के पुत्र एजिद्बख्श को भयानक प्रतिद्वंद्वी नहीं माना और उन्हें जीवनदान दे दिया। बाद में सिपिह शिकोह और एजिद्बख्श का क्रमशः औरंगजेब की तीसरी और पाँचवीं पुत्रियों के साथ विवाह हो गया।

औरंगजेब का राज्याभिषेक

औरंगजेब का दो बार राज्याभिषेक किया गया- पहली बार आगरे पर अधिकार करने के शीघ्र बाद 21 जुलाई, 1658 ई. को ओर दूसरी बार खजवा तथा देवराई की निर्णयात्मक विजयों के बाद जून 1559 ई. में, जब उसके नाम से खुतबा पढ़ा गया। औरंगजेब ने आलमगीर की उपाधि धारण की, जिसमें बादशाह और गाजी भी जोड़े गये।

शाहजहाँ की मृत्यु

औरंगजेब के राज्यारोहण के बाद शाहजहाँ को 8 वर्ष आगरे के किले में कष्टप्रद बंदी जीवन व्यतीत करना पड़ा। बंदी जीवन के दौरान शाहजहाँ की एकमात्र सहारा उसकी बेटी जहाँआरा थी। अंततः शाहजहाँ ने 22 फरवरी 1666 ई. में अंतिम साँस ली। शाहजहाँ के मृत शरीर को उसकी पत्नी मुमताज महल की कब्र (आगरा) के समीप दफना दिया गया।

उत्तराधिकार का युद्ध और धार्मिक मामले

शाहजहाँ के पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के युद्ध को मुगलों की धार्मिक नीति का एक निर्णायक मोड़ माना जाता है। इस संबंध में कई प्रकार की धारणाएँ हैं-

परस्पर-विरोधी नीतियों का युद्ध

इतिहासकारों का एक वर्ग इस उत्तराधिकार के युद्ध को दो परस्पर विरोधी नीतियों के बीच का युद्ध मानता है-धार्मिक सहिष्णुता और मुस्लिम धर्मांधता। लेनपूल के अनुसार ‘दारा लघु अकबर सिद्ध होता’ जबकि श्री राम शर्मा औरंगजेब को ‘मुस्लिम धर्मदर्शन की विजय’ घोषित करते हैं। किंतु यह मत अब अधिकांश इतिहासकारों को मान्य नहीं है।

दो समुदायों के बीच युद्ध

इतिहासकारों का एक दूसरा वर्ग इस उत्तराधिकार के युद्ध को मुख्य रूप से दो समुदायों के बीच का संघर्ष मानता है। मौलाना शिवली एम. फारूकी और आई.एच कुरैशी बताते हैं कि अकबर की सहिष्णुता की नीति से लाभ उठाकर हिंदू सुमदाय आपे से बाहर होने लगा और मुसलमानों पर अत्याचार तक करने लगा। यह वर्ग दाराशिकोह को इस्लामिक राजनीतिक समुदाय में गद्दार की संज्ञा देता है और कहता है कि उसने तो हिंदुओं के लिए द्वार पूरी तरह खोल देना चाहा था। फलतः औररंगजेब ने मुसलमानों को एकजुट कर धर्म के लिए युद्ध किया, न कि राजगद्दी के लिए।

राजनीतिक आवश्यकता

इतिहासकारों का एक तीसरा वर्ग मानता है कि युद्ध में धर्म की भूमिका तो थी और औरंगजेब के सहयोगियों को एकत्रित करने में धर्म ने युद्ध-घोष का काम किया। किंतु औरंगजेब ने केवल उत्तराधिकार युद्ध में सफलता पाने के लिएयह शोर मचाया कि पादशाह जिंदा हो या मर गया हो, दारा के अपधर्मी हरकतों से इस्लामी कानून को बचाना जरूरी है। यदि पादशाह अभी तक जिंदा भी है तो वे उसे मूर्तिपूजकों के प्रशंसकों (दारा) की दासता और अत्याचारों से मुक्त करा देंगे।

एक पाकिस्तानी इतिहासकार इफ्तिखार खान घोरी ने एक कदम आगे बढ़ते हुए इस उत्तराधिकार युद्ध को न केवल हिंदुत्व और इस्लाम के बीच वरन् शिया और सुन्नियों के बीच की लड़ाई भी बताया है। वास्तव में शहजादे औरंगजेब ने मेवाड़ के राणा राजसिंह को एक ‘निशान’ (शाहजादे का हुक्मनामा) भेजा था, जिससे पता चलता है कि औरंगजेब अपने पूर्वजों की धार्मिक नीति में परिवर्तन करने का इच्छुक नहीं था।

औरंगजेब ने इस ‘निशान’ में लिखा था कि ‘विभिन्न समुदायों और धर्मों के व्यक्तियों को शांति से और समृद्धि में जीवन-यापन करना चाहिए। किसी को एक दूसरे के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।’

यह सही है कि अपने छोटे भाई मुरादबख्श के साथ औरंगजेब ने जो ‘अहदनामा’ (समझौता) किया था, उसकी भूमिका में दाराशिकोह की भर्त्सना ‘रईस-अल-मुलाहिदा’ (अपधर्मी शहजादा) कहकर की गई थी और औरंगजेब ने उस अपधर्मी से निपटने के लिए बुरहानपुर के शेख अब्दुल लतीफ से आशार्वाद माँगा था।

किंतु ये औपचारिक घोषणाएँ मात्र थीं क्योंकि अपने आरोप-पत्र में औरंगजेब ने दारा को इस बात के लिए दोषी ठहराया था कि दारा की इच्छा औरंगजेब को निष्फल करने की या खत्म कर देने की थी। वास्तव में शाहजहाँ के परामर्शदाताओं में से दाराशिकोह को हटाने के लिए उसे अपधर्मी घोषित किया गया था। चूंकि अपधर्मी को कभी माफ नहीं किया जा सकता था, इसलिए ‘आलमगीरनामा’ का लेखक मुहम्मद काजिम बताता है कि दारा का यही अपराध उसकी हत्या के लिए पर्याप्त था। सच तो यह है कि मुगल गद्दी के दावेदारों में से किसी का व्यवहार और आचरण ऐसा नहीं था जिसके आधार पर कहा जा सके कि उत्तराधिकार का युद्ध वस्तुतः दो धार्मिक मतवादों के बीच का युद्ध था।

कुछ इतिहासकारों का कहना है कि सभी मुसलमान अधिकारियों ने बिना किसी भेदभाव के औरंगजेब की तरफदारी की और राजपूतों ने दारा शिकोह की। जबकि वास्तविकता यह है कि औरंगजेब को बड़ी संख्या में राजपूतों का सहयोग मिला था। यह कहना भी सही नहीं है कि उत्तराधिकार का युद्ध शिया और सुन्नियों का यद्ध था क्योंकि मीर जुमला और शाइस्ता खाँ औरंगजेब के पक्ष में थे और शाह नवाज खां सफवी दारा के पक्ष में था।

इसी प्रकार उमरा वर्ग में भी सभी धर्मों और प्रजातियों वाले वर्गों की वफादारी बँटी हुई थी। 23 हिंदू उमरा (11 राजपूत, 10 मराठे और 2 अन्य) औरंगजेब और मुराद के पक्ष में थे तो 24 हिंदू उमरा (22 राजपूत और 2 मराठे) दाराशिकोह के पक्ष में थे। इससे ऐसा नहीं लगता कि उमरा वर्ग धार्मिक आधार पर बँटा हुआ था।

इस प्रकार स्पष्ट है कि गद्दी प्राप्त करने के औरंगजेब के प्रयत्न हिंदुओं या राजपूतों के विरूद्ध नहीं थे। बाद के काल में भी यही नीति बनी रही क्योंकि जयसिंह और जसवंत सिंह क्रमशः दकन और गुजरात के सूबेदार के पद पर नियुक्त थे। इतना ही नहीं, राजा रघुनाथ राव को साम्राज्य का दीवान नियुक्त किया गया था। इस प्रकार उत्तराधिकार के युद्ध का उद्देश्य चाहे जो भी रहा हो, उसका धार्मिक उददेश्य कदापि नहीं था।

औरंगजेब ने भले ही दाराशिकोह के खिलाफ मुरादबख्श का समर्थन प्राप्त करने के लिए कट्टरवादी घृणा का भाव क्यों न प्रदर्शित किया हो, उसकी सर्वोच्च महत्वाकांक्षा राजगद्दी को प्राप्त करना ही था। निःसंदेह व्यक्तित्व की कसौटी पर दाराशिकोह और औरंगजेब में स्पष्ट विरोध था। दाराशिकोह में अकबर की तरह बौद्धिक रूझान था, यह एक सर्वज्ञात तथ्य है, जबकि औरंगजेब में क्रमशः कट्टरपन बढ़ता गया।

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