राजेंद्र चोल द्वितीय (Rajendra chola II, 1052-1064 AD)

राजेंद्र चोल द्वितीय (Rajendra chola II, 1052-1064 AD)

राजेंद्र चोल द्वितीय (1052-1064 ई.) अपने भाई राजाधिराज (1044-1054 ई.) की कोप्पम के युद्ध में मृत्यु के बाद चोल राजगद्दी पर बैठा। इसे ‘राजेंद्रदेव चोल’ भी कहा जाता है। इसका जन्म राजेंद्र चोल प्रथम और उसकी पत्नी मुक्कोकिलन आदिगल से हुआ था।

एक राजकुमार के रूप में, राजेंद्र ने पांड्य नाडु और श्रीविजय के कई विद्रोहों के दमन में मदद की थी। इसने अपने पिता के सिंहल अभियान में पोलोन्नरुवा और रोहण की विजय में सहायता की थी।

1044 ई. में पिता राजेंद्र चोल प्रथम की मृत्यु के बाद, राजेंद्र द्वितीय अपने भाई राजाधिराज प्रथम (1044-1054 ई.) के अधीन एक सह-शासक के रूप में कार्य कर रहा था। संभवतः राजाधिराज ने अपने शासनकाल के अंतिम दिनों में इसे युवराज नियुक्त कर दिया था।

राजेंद्र चोल द्वितीय (Rajendra chola II, 1052-1064 AD)
राजेंद्र चोल द्वितीय के समय चोल साम्राज्य का विस्तार

कोप्पम युद्ध और राजेंद्र द्वितीय का राज्याभिषेक

चालुक्य शासक आहवमल्ल (सोमेश्वर प्रथम), जो स्वयं को ‘त्रैलोक्यमल्ल’ (तीन लोकों का स्वामी) कहता था, और चोल सेना के बीच 1052 ई. में कोप्पम का युद्ध हुआ, जिसमें लड़ते हुए चोल शासक राजाधिराज ने वीरगति प्राप्त की और लगा कि चोलों की पराजय निश्चित है, तभी राजेंद्र द्वितीय ने वहीं युद्धभूमि में ही अपना राज्याभिषेक कर चोल राजमुकुट को धारण किया और युद्ध को जारी रखा। अतः तमिल कवि जयंगोंडर ने कलिंगत्तुपरणि में राजेंद्र द्वितीय को ‘युद्धभूमि में ताज पहननेवाला’ शासक बताया है।

कोप्पम युद्ध का विवरण केवल चोल लेखों में मिलता है और समकालीन चालुक्य लेख इस युद्ध के संबंध में मौन हैं। बाद के लगभग 1071 ई. के एक चालुक्य लेख में केवल राजाधिराज की मृत्यु का उल्लेख मिलता है। किंतु मणिमंगलम के एक शिलालेख से पता चलता है कि युद्ध के अंत में, चालुक्य हार गये थे और चालुक्य सेना के कई अधिकारी युद्ध में मारे गये थे। 1058 ई. के तंजावुर के बृहदीश्वर मंदिर शिलालेख और ओट्टाकुट्टन के विक्रम चोलन उला में भी कोप्पम के युद्ध का उल्लेख मिलता है, जिससे ज्ञात होता है कि राजा राजेंद्र द्वितीय ने हाथी पर सवार होकर कोप्पम के युद्ध में अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की और उनके हजार हाथियों पर अधिकार कर लिया था। इस प्रकार स्पष्ट है कि राजेंद्र चोल द्वितीय ने चोलों की सत्ता और प्रतिष्ठा को पूर्ववत् बनाये रखा और उसे क्षीण नहीं होने दिया।

राजेंद्र द्वितीय का वास्तविक शासनकाल

राजाधिराज की मृत्यु के बाद 1052 ई. में प्रारंभ हुआ। जब उसने सिंहासन ग्रहण किया, तो चोल साम्राज्य अपने चरम पर था जो दक्षिण भारत से बंगाल तक और दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ क्षेत्रों तक फैला हुआ था। राजेंद्र चोल द्वितीय ने अपने पूर्ववर्ती चोल क्षेत्रों और समुद्री व्यापार पर अपना नियंत्रण बनाये रखा, जिसके कारण इसके शासनकाल में चोल साम्राज्य में शांति और समृद्धि बनी रही।

राजाधिराज की भांति राजेंद्र चोल द्वितीय ने भी अपने शासनकाल के प्रारंभिक वर्षों में अपने निकटतम संबंधियों एवं परिवार के लोगों को प्रशासन के साथ संबद्ध कर लिया। इसके मणिमंगलम लेख में इसके तेरह संबंधियों का उल्लेख मिलता है, जो विभिन्न प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किये गये थे। 1059 ई. के आसपास राजेंद्र द्वितीय ने अपने पुत्र राजमहेंद्र को युवराज नियुक्त किया, जिसने चालुक्यों के विरुद्ध मुडकारु के युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

चालुक्यों से संघर्ष

राजेंद्र द्वितीय के शासनकाल में भी चोल-चालुक्य संघर्ष चलता रहा। कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम ने कोप्पम की पराजय का बदला लेने के लिए अपने दंडनायक वलदेव के नेतृत्व में एक विशाल सेना चोल राज्य पर आक्रमण करने के लिए भेजी। चोल-चालुक्य सेनाओं के बीच मुडकारु (तुंगभद्रा और कृष्णा नदी का संगम) का भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें चालुक्य सेनापति दंडनायक वलदेव मारा गया और इरुगैयन तथा अन्य विक्कलन के साथ भाग खड़े हुए। चोल सेना की ओर से वीरराजेंद्र चोल और राजमहेंद्र ने युद्ध में भाग लिया था। राजमहेंद्र के एक लेख में कहा गया है कि राजेंद्र चोल द्वितीय ने एक हाथी की सहायता से आहवमल्ल को मुडकारु की ओर पीठ कर लेने के लिए बाध्य किया था।

वीरराजेंद्र के दूसरे वर्ष के एक लेख में कूडलसंगमम् युद्ध का विस्तृत विवरण मिलता है और कहा गया है कि राजेंद्र की सेना ने आहवमल्ल के विक्कलन तथा शिंगणन नामक पुत्रों के साथ अनेक सामंतों को पराजित किया था। अंततः उसने आहवमल्ल (सोमेश्वर) को पराजित कर उसकी पत्नियों, राजकीय कोष, गंध, छत्र, दुंदुभि, श्वेत चंवर, मकर-तोरण, पुष्पक नामक हथिनी तथा अनेक घोड़ों एवं हाथियों पर अधिकार कर लिया।

संभवतः राजेंद्र चोल द्वितीय के लेख में वर्णित मुडकारु युद्ध और वीरराजेंद्र के लेख में उल्लिखित कूडलसंगमम् युद्ध दोनों एक ही है, क्योंकि वीरराजेंद्र के लेखों में भी मुडकारु के युद्ध का वर्णन मिलता है। जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि राजेंद्र द्वितीय के शासनकाल में भी चालुक्यों को चोलों के विरुद्ध सफलता नहीं मिल सकी थी।

सिंहल में सफलता

राजेंद्र द्वितीय ने अपने पिता राजेंद्र चोल प्रथम के समय में सिंहल के विद्रोहों को दमन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। संभवतः 1055 ई. में सिंहली राजकुमार विजयबाहु प्रथम ने चोल सेना को सिंहल से खदेड़ने के लिए विद्रोह किया और पोलोन्नरुवा को जीतने का प्रयास किया। किंतु चोल सेना के जवाबी आक्रमणों के कारण उसे सफलता नहीं मिली।

इसके बाद विजयबाहु ने अपनी सेना संगठित कर संभवतः 1158 ई. में पुनः पोलोन्नरुवा पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया, किंतु पोलोन्नरुवा के चोल गवर्नर राजेंद्र द्वितीय के पुत्र उत्तमचोल ने विजयबाहु की सेना को खदेड़ दिया और पोलोन्नरुवा पर चोलों का पुनः अधिकार हो गया। इसके बाद भी, चोलों के विरूद्ध सिंहल में विक्रमबाहु ने अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष को जारी रखा।

वेंगी के साथ संघर्ष

चोल राजेंद्र द्वितीय को चालुक्यों से वेंगी में भी निपटना पड़ा। इस क्षेत्र में युद्ध का नेतृत्व चामुंडराज कर रहा था। राजेंद्र द्वितीय ने वीरराजेंद्र को वेंगी से निपटने का भी आदेश दे रखा था, जिसके तहत उसने चामुंडराज को पराजित कर उसकी लड़की की नाक काट ली। वेंगी पर अपने प्रभाव को स्थायी रूप देने के लिए राजेंद्र चोल द्वितीय ने अपनी पुत्री मधुरांतकी का विवाह वेंगीकुमार के साथ कर दिया। यह वेंगीकुमार राजेंद्र द्वितीय के नाम से जाना जाता था। यही बाद में कुलोत्तुंग प्रथम नाम से चोलों का भाग्य-विधाता बना।

इस प्रकार चोल राजेंद्र द्वितीय अपने संपूर्ण शासनकाल में अपने पुत्र एवं भाई वीरराजेंद्र के साथ चालुक्यों के साथ शक्ति-संतुलन में लगा रहा, जिसमें इसे सफलता भी मिली। इसने प्रकेसरी की उपाधि धारण की थी और संभवतः 1064 ई. तक शासन किया था। इसके बाद वीरराजेंद्र चोल राजगद्दी पर बैठा।

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