उत्तर-गुप्तों की भाँति मौखरि भी सम्राट गुप्तवंश के सामंत थे और गुप्तों के पतन के बाद उन्होंने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। मौखरि मूलतः गया के निवासी थे, जो सम्राट गुप्त राजवंश के समय में उत्तर-गुप्तवंशीय गुप्तों की तरह ही सामंत थे। कालांतर में उन्होंने कन्नौज में अपना राज्य स्थापित कर लिया और मगध के स्थान पर कन्नौज उत्तर भारत की राजनीति का केंद्र बन गया। स्रोतों से पता चलता है कि इस वंश के लोग तीसरी सदी में अधिकतर उत्तर प्रदेश के कन्नौज और राजस्थान के बड़वा क्षेत्र में फैले हुए थे।
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मौखरि वंश के ऐतिहासिक स्रोत (Historical Sources of Maukhari Dynasty)
मौखरि वंश के इतिहास के निर्माण में साहित्यिक और पुरातात्त्विक दोनों स्रोतों से सहायता मिलती है। साहित्यिक स्रोतों में बाणभट्ट की रचना हर्षचरित महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि यह मुख्यतः वर्धन वंश का इतिहास प्रस्तुत करती है, किंतु प्रसंगतः मौखरी शासकों का भी उल्लेख मिलता है। इसमें अवंतिवर्मा, ग्रहवर्मा आदि के शासनकाल की घटनाओं का वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ से वर्धन-मौखरि संबंध और मालव शासक देवगुप्त द्वारा ग्रहवर्मा की हत्या का ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अलावा आर्यमंजुश्रीमूलकल्प से भी इस वंश के इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है। पुरातात्त्विक स्रोतों में अभिलेख एवं मुद्राएँ उल्लेखनीय हैं जो भारत के विभिन्न स्थानों से पाये गये हैं।
हरहा लेख: उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के हरहा नामक स्थान से प्राप्त इस लेख की खोज 1915 में एच.एन. शास्त्री ने की थी। यह लेख मौखरि नरेश ईशानवर्मा के पुत्र सूर्यवर्मा द्वारा खुदवाया गया था। इसमें इस वंश के चार राजाओं- हरिवर्मा, आदित्यवर्मा, ईश्वरवर्मा तथा ईशानवर्मा के शासनकाल की घटनाओं का उल्लेख मिलता है।
जौनपुर लेख: यह लेख जौनपुर (उ.प्र.) में अटाला मस्जिद के दरवाजे पर खुदा हुआ है। इसमें इस वंश के प्रथम तीन शासकों- हरिवर्मा, आदित्यवर्मा तथा ईश्वरवर्मा का नाम एवं उनकी उपलब्धियों का वर्णन मिलता है।
असीरगढ़ मुद्रालेख: इस वंश के पाँचवें शासक शर्ववर्मा के शासनकाल का एक ताम्र-मुद्रालेख असीरगढ़ (बरार) से मिला है। इस मुद्रा के आधार पर कुछ विद्वान् मौखरियों का प्रभाव-क्षेत्र दक्षिण भारत में भी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।
बराबर तथा नागार्जनी के लेख: गया जिले के बराबर एवं नागार्जुनी पहाड़ियाँ से मौखरियों के तीन लेख मिले हैं। इनमें तीन राजाओं- यज्ञवर्मा, शार्दूलवर्मा तथा अनंतवर्मा के नाम मिलते हैं। संभवतः ये बिहार की मौखरि शाखा से संबंधित थे।
बड़वा यज्ञ-यूप लेख: राजस्थान के बड़वा नामक स्थान से यज्ञ-यूप पर खुदे हुए कुछ लेख मिले हैं, जिससे पता चलता है कि राजस्थान में भी मौखरियों की एक शाखा विद्यमान थी।
सोहनाग लेख: सोहनाग (देवरिया, उत्तर प्रदेश) नामक स्थान से भी एक लेख प्राप्त हुआ है जिससे मौखरियों के संबंध में कुछ सूचनाएँ मिलती हैं।
इसके अलावा नालंदा मुद्रालेख, वाराणसी से प्राप्त इलिया गाँव का लेख, एक नेपाली अभिलेख तथा उत्तर-गुप्तों के अफसढ़ लेख से भी मौखरियों के इतिहास-लेखन में सहायता मिलती है।
मुद्राएँ: फैजाबाद के भिटौरा नामक स्थान से मौखरि-मुद्राओं का एक ढ़ेर मिला है। कुछ मुद्राओं पर राजाओं के नाम के साथ तिथियाँ भी अंकित हैं, जो तिथि-निर्धारण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
मौखरियों की उत्पत्ति (Origin of Maukharis)
मौखरियों के प्रारंभिक इतिहास और उत्पत्ति के संबंध में कोई स्पष्ट सूचना नहीं है। प्राचीन भारत में कई मौखरि कुल भारत के विभिन्न भागों में शासन कर रहे थे। मौखरियों की एक शाखा ई.पू. की दूसरी सदी में गया क्षेत्र में रहा करती थी। गया से प्राप्त एक मुहर पर मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में ‘मोखलिनम्’ शब्द उत्कीर्ण मिला है। इससे न केवल मौखरियों की प्राचीनता सिद्ध होती है, वरन् यह भी पता चलता है कि प्रारंभ में मौखरि भी एक स्वायत्तशासी गणराज्य था। उनकी एक अन्य शाखा राजपूताना क्षेत्र में रहती थी। मौखरियों की एक तीसरी शाखा, जिसमें सुप्रसिद्ध ईश्वरवर्मा हुआ, स्पष्टतः उत्तर प्रदेश के बाराबंकी, फैजाबाद और जौनपुर क्षेत्र में शासन करती थी। हर्षचरित के अनुसार मौखरि कन्नौज से संबद्ध थे।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कन्नौज प्रारंभ से ही मौखरियों की राजधानी थी। दिनेशचंद्र सरकार के अनुसार प्रारंभ में मौखरि लोग गुप्त सम्राटों की ओर से गौड़ शासकों के विरुद्ध लड़ा करते थे, किंतु छठी शताब्दी के मध्य तक गुप्त साम्राज्य ढह गया और इसी व्यवस्था में मौखरियों ने बिहार तथा उत्तर प्रदेश के विस्तृत क्षेत्रों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
मौखरि लेखों तथा साहित्यिक ग्रंथों में ‘मौखरि’ तथा ‘मुखर’ शब्दों का उल्लेख मिलता है। हर्षचरित में इन्हें ‘मुखरवंशः’ तथा कादंबरी में ‘मौखरिवंश’ कहा गया है। बराबर गुहा अभिलेख में अनंतवर्मा ने अपने कुल को ‘मौखरिणाम् कुलम्’ कहा है। हरहा लेख में मौखरि राजाओं को ‘मुखराः क्षितीशः’ कहा गया है। पतंजलि के महाभाष्य में भी ‘मुखर’ शब्द का उल्लेख मिलता है। कय्यट, वामन तथा जयादित्य ने ‘मौखरि’ शब्द की व्युत्पत्ति की व्याख्या करते हुए बताया है कि यह एक पितृमूलक शब्द है। इससे लगता है कि मौखरि मुखर नामक आदि पुरुष की संतान थे, इसलिए वे मौखरि कहे गये। उन्हें लेखों में सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया गया है। हरहा लेख के अनुसार ‘मौखरि वैवस्वत के वरदान से उत्पन्न अश्वपति के सौ पुत्रों में से एक थे’–
सुतशतंलेभे नृपोश्वपतिर्वैवस्वताद्यद् गुणोदितम्।
तत्प्रसूता दुरितवृत्तिरुधे मुखराः क्षितीशाः क्षतारयः।।
मौखरियों का राजनीतिक इतिहास (Political History of Mokharis)

स्रोतों से पता चलता है कि गुप्तकाल में उत्तर प्रदेश और बिहार में दो मौखरि कुल गुप्तों के सामंत के रूप में शासन कर रहे थे। बिहार की मौखरि शाखा के तीन अभिलेख बराबर और नागार्जुनी की पहाड़ियाँ से मिले हैं। इनमें इस शाखा के तीन राजाओं का नाम मिलता है- यज्ञवर्मा, शार्दूलवर्मा और अनंतवर्मा। इनके शासनकाल की घटनाओं के संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं है।
बड़वा यज्ञयूप लेख से पता चलता है कि तीसरी शताब्दी ई. में मौखरियों की एक अन्य शाखा राजस्थान में भी शासन कर रही थी। वे संभवतः शकों या नागों के सामंत थे।
मौखरियों की एक शाखा उत्तर प्रदेश के कन्नौज में शासन कर रही थी, जो इतिहास में सर्वाधिक प्रसिद्ध है। वस्तुतः मौखरियों का उदय मगध से हुआ था, जहाँ वे गुप्त सम्राटों के अधीनस्थ सामंत थे। गुप्तों की आपसी कलह और दुर्बलता का लाभ उठाकर उन्होंने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया और कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।
आरंभिक मौखरि शासक (Early Mokhari Ruler)
कन्नौज के मौखरि वंश का प्रथम शासक हरिवर्मा था। पता चलता है कि हरिवर्मा 510 ई. में शासन कर रहा था। हरहा लेख में उसकी शक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि ‘उसका यश चारों समुद्रों तक व्याप्त था (चतुस्समुद्रातिक्रान्तकीर्तिः) तथा वह शत्रुओं के लिए ज्वालामुख के समान था। किंतु लेख में उसकी ‘महाराज’ उपाधि से लगता है कि वह सम्राट गुप्तवंश का सामंत था। हरिवर्मा वर्णव्यवस्था का संस्थापक तथा प्रजा के कष्टों को दूर करने वाला था। इस वंश का दूसरा नरेश आदित्यवर्मा था। असीरगढ़ लेख के अनुसार उसकी माता का नाम भट्टारिकादेवी जयस्वामिनी था। लेखों में उसकी उपाधि ‘महाराज’ मिलती है जो उसकी सामंत स्थिति का द्योतक है। उसका वैवाहिक संबंध उत्तर-गुप्तवंशीय राजकुमारी हर्षगुप्ता के साथ हुआ था।
ईश्वरवर्मा कन्नौज के मौखरि वंश का तीसरा राजा था। वह छठी शताब्दी ई. के द्वितीय चतुर्थांश में राज्य करता था। जौनपुर लेख में उसकी प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वह राजाओं में सिंह के समान (क्षितिभुजांसिंह) था, जिसने धारा (मालवा), आंध्र एवं रैवतक को पराजित किया था। ईश्वरवर्मा अपने राज्य का अधिक विस्तार नहीं कर सका और उसका शासन केवल कन्नौज तक ही सीमित रहा। इसकी भी उपाधि ‘महाराज’ मिलती है जो उसकी सामंत स्थिति का परिचायक है। संभवतः उत्तर-गुप्त वंश की राजकुमारी उपगुप्ता के साथ उसने विवाह किया था। इस प्रकार ईश्वरवर्मा के समय तक मौखरियों तथा उत्तर-गुप्तों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध बना रहा।
ईशानवर्मा (Ishanavarma)
कन्नौज के मौखरि राजवंश का चौथा शासक ईशानवर्मा (550-574 ई.) निःसंदेह एक प्रभुत्वशाली शासक था क्योंकि उसने न केवल ‘महाराजाधिराज’ की पदवी धारण की, अपितु अपने नाम के सिक्के भी चलाये। महाराजाधिराज की उपाधि और सिक्कों का प्रचलन उसकी स्वतंत्र राजनीतिक स्थिति का परिचायक है। वस्तुतः गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद इस मौखरि शासक ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की।

ईशानवर्मा ने गुप्त साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर खड़े होकर स्वयं को महाराज घोषित किया था। उसी समय उत्तर-गुप्तों ने भी कुमारगुप्त के नेतृत्व में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। दोनों राजवंश समान रूप से महत्त्वाकांक्षी थे, इसलिए मौखरियों और उत्तर-गुप्तों के बीच तीन पीढ़ियों से चला आ रहा मैत्री-संबंध शत्रुता में परिणत हो गया। मौखरि वंश की कीर्ति, शक्ति, वैभव और राज्य की सीमाओं में निरंतर वृद्धि ने उत्तर-गुप्त शासकों को सशंकित कर दिया।
हरहा लेख में कहा गया है कि ‘उसने आंध्राधिपति को, जिसकी सेना में सहस्त्रों मतवाले हाथी थे, जीतकर, शूलिकों को, जिनकी सेना में छलांग मारने वाले असंख्य घोड़े थे, युद्धभूमि में परास्त कर तथा गौड़ों का स्थल-भूमि के साथ संबंध छुड़ाकर भविष्य में समुद्र का आश्रय लेने के लिए बाध्य करते हुए अपने सिंहासन को जीता’-
जित्वान्ध्राधिपतिं सहस्त्रागणितत्रोधाक्षरद्वारणम्,
व्यावल्गन्नियुतातिसंख्यतुरगान्भक्त्वा रणेशूलिकाम्।
कृत्वा चार्यातमौचितस्थल भुवो गोंडान्समुद्राश्रयान्
अध्यासिष्ट नतक्षितिशचरणः सिंहासनं यो जिती।।
इन पराजित शक्तियों में आंध्रों की पहचान पूर्वी दकन के विष्णुकुंडिन वंश से की गई है। हेमचंद्र रायचौधरी आंध्र-अधिपति की पहचान विष्णुकुंडिनवंशी माधववर्मन् द्वितीय से, रमेशचंद्र मजूमदार माधववर्मा प्रथम से करते हैं। रमाशंकर त्रिपाठी का मानना है कि यह आंध्र नरेश विष्णुकुंडिन वंश का इंद्रवर्मा या विक्रमेंद्रवर्मा था। शूलिकों की पहचान रायचौधरी ने चालुक्यों से की है। सुधाकर चट्टोपाध्याय के अनुसार शूलिकों से तात्पर्य श्वेत हूणों से है जो उस समय उत्तरी-पश्चिमी भारत में विद्यमान थे। रमाशंकर त्रिपाठी का विचार है कि शूलिकों की पहचान बृहत्संहिता एवं मारकंडेय पुराण के ‘शौलिक’ से की जानी चाहिए, जो कलिंग, विदर्भ और चेदि के दक्षिण-पश्चिम में निवास करते थे। शूलिक संभवतः बंगाल के समुद्रतट पर आधुनिक मिदनापुर जिले के समीप राज्य कर रहे थे। गौड़ बंगाल के समुद्रतट पर रहते थे। हरहा लेख से पता चलता है कि इस मौखरि नरेश ने गौड़ों को अपने उचित अधिकार-क्षेत्र में रहने के लिए बाध्य कर दिया था।
हरहा लेख के अनुसार ईशानवर्मा ने संभवतः हूणों को भी पराजित किया था। लेख से पता चलता है कि ‘उसने भूमिरूपी टूटी हुई नौका को ऊपर उठा लिया और सैकड़ों राजसी गुणरूपी रस्सियों से उसे चारों ओर से बांधकर ऐसे समय में डूबने से बचा लिया, जब वह कलिकाल के झंझावत से डगमगा कर रसातलरूपी समुद्र में बैठने जा रही थी’–
प्रविशतीः कलिमारुतघट्टिता क्षितिरलक्ष्य रसातल वारिधौ।
गुणशतैरवबध्य समन्ततः स्फुटित नौरिव येन बलाद्धृता।।
ईशानवर्मा के हूण-विजय की पुष्टि उसके सिक्कों से भी होती है जो हूण शासक तोरमाण के सिक्कों से मिलते-जुलते हैं। ईशानवर्मा की इन विजयों के फलस्वरूप मौखरि राज्य की सीमाएँ पूर्व में मगध तक, दक्षिण में मध्य प्रांत और आंध्र तक, पश्चिम में मालवा तथा उत्तर-पश्चिम में थानेश्वर राज्य तक पहुँच गई थीं।
गुप्त साम्राज्य अपने अंतिम समय में पूरब की ओर से होने वाले आक्रमणों और विद्रोहों से त्रस्त था, इसलिए मौखरि तथा उत्तर-गुप्त उनकी ओर से संघर्ष में भाग लेते थे। ईश्वरवर्मा के समय तक मौखरि तथा उत्तर-गुप्त साथ-साथ गुप्त सम्राटों की ओर से समुद्रतटीय शत्रुओं से लड़ रहे थे। इस प्रकार प्रारंभ में उत्तरगुप्त और मौखरि बंगाल में साथ-साथ लड़े, किंतु जब ईशानवर्मा अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर ‘महाराजाधिराज’ बन गया, तो उत्तर-गुप्त शासक बहुत क्षुब्ध हुए और फिर संघर्ष का सिलसिला चल पड़ा।
अफसढ़ लेख से पता चलता है कि कुमारगुप्त और ईशानवर्मा के बीच भीषण युद्ध हुआ था। लेख से पता चलता है कि ‘कुमारगुप्त ने राजाओं में चंद्रमा के समान ईशानवर्मा की सेना को युद्धक्षेत्र में उसी प्रकार मथ डाला, जिस प्रकार लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए मंदर पर्वत के द्वारा क्षीरसागर का मंथन किया गया था’-
भीमः श्रीशानवर्माक्षितिपतिशशिनः सैन्यदुग्धोवसिन्धुः।
लक्ष्मीसंप्राप्तिहेतुः सपवि विमथितो मन्दरीभूय येन।।
लेख की भाषा से स्पष्ट है कि इस युद्ध में ईशानवर्मा पराजित कर दिया गया और विजेता कुमारगुप्त ने मगध पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। ईशानवर्मा के जीवन की यह पहली और अंतिम पराजय थी।
ईशानवर्मा वैदिक धर्म का पोषक था। हरहा लेख के अनुसार उसके समय में तीनों वेद पुनः जागरूक हो उठे थे (यस्मिन्शासति च क्षिति क्षितिपतौ जातेग भूयस्त्रो)। उसने समाज में वर्णाश्रम धर्म को प्रतिष्ठापित किया था।
शर्ववर्मा (Sarvavarma)
ईशानवर्मा के बाद उसका पुत्र शर्ववर्मा मौखरि वंश का शासक हुआ। हरहा से प्राप्त लेख से पता चलता है कि सूर्यवर्मा नामक ईशानवर्मा का छोटा भाई था, जिसकी मृत्यु संभवतः ईशानवर्मा के काल में ही हो गई थी। असीरगढ़ मुद्रालेख में शर्ववर्मा को ‘महाराजाधिराज’ कहा गया है। यह लेख विंध्य क्षेत्र पर उसके आधिपत्य का सूचक है। पश्चिम में उसके राज्य का विस्तार थानेश्वर राज्य की पूर्वी सीमा तक था।
संभवतः शर्ववर्मा ने अपने पिता ईशानवर्मा की पराजय का बदला लेने के लिए उत्तर-गुप्त शासक कुमारगुप्त के उत्तराधिकारी दामोदरगुप्त पर आक्रमण किया। अफसढ़ लेख से पता चलता है कि इस युद्ध में दामोदरगुप्त मूर्च्छित हो गया, तदन्तर सुरवधुओं ने उसका वरण किया था। अधिकांश इतिहासकारों का अनुमान है कि युद्ध में दामोदरगुप्त मारा गया और मगध पर मौखरियों का अधिकार हो गया। देववर्णार्क लेख से ज्ञात होता है कि शर्ववर्मा ने मगध क्षेत्र में स्थित वारुणीक ग्राम दान में दिया था। यह दान इस बात का प्रमाण है कि मगध उसके साम्राज्य में सम्मिलित था। हर्षचरित में दामोदरगुप्त के पुत्र महासेनगुप्त को ‘मालवराज’ कहा गया है। इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि दामोदरगुप्त के बाद उत्तर-गुप्तों का राज्य केवल मालवा तक ही सीमित रह गया था। इस प्रकार शर्ववर्मा ने एक विस्तृत प्रदेश पर लगभग 586 ई. तक शासन किया।
मौखरियों और उत्तर-गुप्तों की इस शत्रुता का प्रदर्शन इनके सिक्कों पर भी मिलता है। दामोदरगुप्त ने जो सिक्के प्रचलित किये, उसमें उसने अपना मुख दाहिनी ओर मोड़ रखा था, जो मौखरियों के प्रति विरोधभाव को प्रदर्शित करता है। मौखरि शासक अपने सिक्कों पर बाईं ओर मुख मोड़े रहते थे।
अवंतिवर्मा (Avantivarma)
शर्ववर्मा के बाद उसका पुत्र अवंतिवर्मा शासक हुआ जो इस वंश का सबसे शक्तिशाली एवं प्रतापी राजा था। नालंदा लेख में उसे ‘महाराजाधिराज’ कहा गया है। उसी समय थानेश्वर के पुष्यभूतिवंश के साथ मौखरियों का मैत्री-संबंध स्थापित हुआ जो तत्कालीन इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इससे हूणों तथा उत्तर-गुप्तों का सामना करने में मौखरि वंश के राजाओं को बड़ी सहायता मिली। मुद्राराक्षस से पता चलता है कि उसने म्लेच्छों (हूणों) को पराजित किया था। उसके राज्य में कन्नौज के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार का एक बड़ा भाग सम्मिलित था। हर्षचरित में उसकी प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि ‘उसके काल में मौखरि वंश समस्त राजाओं का सिरमौर एवं भगवान् शिव के चरण-चिन्हों की भाँति समस्त संसार में पूजित था’ (धरणीधराणां च मूर्ध्निस्थितो माहेश्वरः पादन्यास इव सकलभुवननमस्कृतो मौखरवंशः)। सुधाकर चट्टोपाध्याय के अनुसार इस समय उत्तर-गुप्त मौखरियों की अधीनता स्वीकार करते थे और महासेनगुप्त अवंतिवर्मा का सामंत था।
ग्रहवर्मा (Grahvarma)
अवंतिवर्मा का उत्तराधिकारी ग्रहवर्मा (600 ई.-605 ई.) मौखरि वंश का अंतिम शासक था। हर्षचरित के अनुसार ‘वह पृथ्वी पर सूर्य की भाँति सुशोभित था’ (ग्रहवर्मा नाम ग्रहपत इव गां गतः)। ग्रहवर्मा का उल्लेख किसी लेख में नहीं मिलता है और उसके इतिहास के लिए हर्षचरित के साक्ष्य पर ही निर्भर रहना पड़ता है। ज्ञात होता है कि उसका विवाह थानेश्वर के राजा प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री से हुआ था। इस वैवाहिक संबंध से उत्तर भारत के दो प्रसिद्ध राजवंश- वर्धन तथा मौखरि एक सूत्र में जुड़ गये। इस विवाह संबंध के विरुद्ध मालवा के उत्तर-गुप्तवंशी नरेश देवगुप्त तथा बंगाल के गौड़वंशी शासक शशांक ने एक राजनीतिक गुट बना लिया। हर्षचरित से पता चलता है कि प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात् मालवा के उत्तर-गुप्तवंशी राजा देवगुप्त ने कन्नौज नरेश ग्रहवर्मा की हत्या कर दी और राज्यश्री को कन्नौज के कारागार में डाल दिया। हर्षचरित में देवगुप्त का नाम नहीं मिलता है, उसे केवल ‘मालवा का दुष्ट शासक’ कहा गया है। बाँसखेड़ा लेख में उसके नाम का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। यह देवगुप्त संभवतः उत्तर-गुप्त नरेश महासेनगुप्त की पहली पत्नी से उत्पन्न पुत्र अथवा उसका चचेरा भाई था, जिसने महासेनगुप्त की मृत्यु के बाद मालवा पर अधिकार कर लिया था। ग्रहवर्मा की मृत्यु के साथ ही मौखरि वंश के इतिहास का अंत हो गया।
ग्रहवर्मा के बाद मौखरियों का इतिहास थानेश्वर के वर्धन वंश के इतिहास से जुड़ा है। राज्यश्री के बड़े भाई राज्यवर्धन ने मालवा पर आक्रमण कर देवगुप्त को पराजित किया। किंतु इस जीत के बाद ही गौड़ शासक शशांक ने धोखे से राज्यवर्धन की हत्या कर दी।
मौखरि वंश का अंत (The End of the Maukhari Dynasty)
नालंदा मुद्रालेख एवं हर्षचरित से पता चलता है कि अवंतिवर्मा कोएक अन्य पुत्र ‘सुव’ या ‘सुच’ (सुचंद्रवर्मा) था। संभवतः अवंतिवर्मा की मृत्यु के बाद मौखरि साम्राज्य दो भागों में बँट गया जिनमें एक का केंद्र कन्नौज था, जहाँ ग्रहवर्मा का शासन था और दूसरा मगध का राज्य था जहाँ अवंतिवर्मा का दूसरा पुत्र ‘सुच’ (सुचंद्रवर्मा) शासन करता था। लगता है कि मगध में ग्रहवर्मा के छोटे भाई सुचंद्रवर्मा ने अपनी स्वतंत्रता स्थापित कर ली थी क्योंकि नालंदा लेख में वह अपने को अवंतिवर्मा का उत्तराधिकारी तथा ‘महाराजाधिराज’ कहता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार ग्रहवर्मा की मृत्यु के समय सुचंद्रवर्मा अल्पवयस्क था, जो हर्ष की मृत्यु के बाद शासक हुआ और उत्तर-गुप्तवंशी आदित्यसेन का समकालीन था। आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में भी ग्रहवर्मा के बाद ‘सुव्र’ नामक शासक का उल्लेख मिलता है जिसका समीकरण इतिहासकारों ने ‘सुच’ (सुचंद्रवर्मा) से किया है। जो भी हो, सुचंद्रवर्मा मौखरि वंश का अंतिम शासक था। उसने लगभग 664 ई. तक शासन किया।
एक नेपाली अभिलेख से पता चलता है कि भोगवर्मा नामक मौखरि शासक उत्तर-गुप्तवंशी आदित्यसेन का दामाद था। संभवतः वह सुचंद्रवर्मा का पुत्र रहा होगा। उसे ‘मौखरि कुल का मुकुटमणि’ कहा गया है। मौखरि वंश का एक लेख वाराणसी के इलिया गाँव से भी मिला है जिसमें मनोरथवर्मा नामक एक शासक का उल्लेख है। संभवतः उसने भोगवर्मा के बाद शासन किया होगा। इसके बाद मौखरि इतिहास से ओझल हो गये।