मनसबदारी व्यवस्था (Mansabdari System)

मनसबदारी प्रथा मंगोल सरदार चंगेज खाँ द्वारा प्रतिपादित दशमलव प्रणाली पर आधारित थी। भारत में सेना में दशमलव प्रणाली का प्रचलन तुर्कों के समय से ही था। जिस अधिकारी के अंतर्गत 10 सवार होते थे, वह ‘सरखेल’ कहलाता था; 1000 घुड़सवारों का नेता ‘अमीर’ और 10 हजार घुड़सवारों का नेता ‘मलिक’ कहा जाता था। सिकंदर लोदी तथा इब्राहीम लोदी के शासनकाल में मलिकों के अंतर्गत सैनिकों की संख्या 12 हजार तक पहुँच गई थी। बाबर और हुमायूँ के काल में मनसबदारी प्रथा थी या नहीं, इस संबंध में अभी तक कुछ ज्ञात नहीं है। शेरशाह के काल में शुजाअत खाँ का वर्णन मिलता है, जो 10 हजार सवारों का अमीर था। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत की स्थापना से लेकर शेरशाह के काल में मनसबदारों के अधीन 10 से लेकर 12 हजार तक सैनिक होते थे, जिसमें घुड़सवार और पैदल दोनों ही सम्मिलित थे। मुगल प्रशासन में सर्वप्रथम अकबर ने मनसबदारी प्रथा 1577 ई, में आरंभ की, यद्यपि अकबर के शासनकाल के 19वें वर्ष (1575 ई.) में पहली बार मनसब प्रदान किये जाने का संकेत मिलता है।

‘मनसब’ अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थं होता है-‘श्रेणी’ अथवा ‘पद’। ‘मनसब’ शब्द किसी शासकीय अधिकारी तथा सेनापति की स्थिति का बोध कराती थी। अकबर ने अपने प्रत्येक सैनिक और असैनिक अधिकारी को कोई-न-कोई मनसब (पद) दिया था। ‘मनसब’ से अधिकारी का पद, स्थान और वेतन निर्धारित होता था। सभी मनसबदारों को एक घुड़सवार के लिए दो घोड़े रखने अनिवार्य होते थे। किसी भी मनसबदार को ‘जात’ पद के अनुसार ही ‘सवार’ रखने की अनुमति थी। मनसब के आधार पर ही अधिकारियों के वेतन और भत्ते निर्धारित होते थे।

मनसबदारी व्यवस्था का उद्देश्य
  1. मुगल साम्राज्य का सुदृढीकरण करना।
  2. मुगल अभिजात्य एवं कुलीन वर्ग को प्रशासन में शामिल करना और इसके माध्यम से राज्य के प्रति उनकी वफादारी सुनिश्चित करना।
  3. सैनिक-असैनिक सेवाओं का कुशलतापूर्वक संचालित करना।
जात और सवार

मनसबों के वर्गीकरण के लिए ‘जात’ और ‘सवार’ विशेषणों का प्रयोग किया गया है। यद्यपि 1593 ई. तक केवल ‘जात’ का प्रयोग किया गया, किंतु 1594 ई. में मनसबदारी व्यवस्था ‘जात’ पद के साथ ‘सवार’ का पद भी दिया जाने लगा। ‘जात’ और ‘सवार’ के संबंध में इतिहासकारों के विभिन्न मत हैं। ब्लॉकमैन के अनुसार ‘जात’ का अर्थ सैनिक पद से तथा ‘सवार’ का अर्थ घुड़सवारों की संख्या से था जो मनसबदार को रखनी पड़ती थी। आर.पी. त्रिपाठी का मानना है कि ‘जात’ का अर्थ सवारों की वास्तविक संख्या से था और ‘सवार’ एक अतिरिक्त सम्मान था, जिसके अनुसार अतिरिक्त भत्ता मिलता था। किंतु अब्दुल अजीज के अनुसार ‘जात’ के अंतर्गत मनसबदार को एक निश्चित संख्या में हाथी, घोड़े, भारवाहक पशु तथा वाहन रखने पड़ते थे, जबकि ‘सवार’ घुडसवारों की वास्तविक संख्या प्रकट करता था। दूसरे शब्दों में, ‘जात’ शब्द से व्यक्ति के वेतन तथा पद की स्थिति का बोध होता था, जबकि ‘सवार’ शब्द से घुङसवार दस्ते की संख्या का बोध होता था, जो किसी मनसबदार को अपने अधीन रखने का अधिकार होता था।

मनसबदारों की नियुक्ति

मनसबदारों की नियुक्ति सम्राट स्वयं करता था और उसकी इच्छा रहने तक वे पद पर बने रह सकते थे। इस व्यवस्था में ‘मीरबख्शी’ मनसबदारों की सूची सम्राट के सम्मुख प्रस्तुत करता था और मनसबदारों को जागीर आवंटन करने का कार्य ‘दीवान-ए-आला’ करता था। मनसब 10 से लेकर 12 हजार तक प्रदान किये गये थे। अकसर सात हजार का मनसब राजघराने के लोगों या बहुत ही महत्त्वपूर्ण और विश्वसनीय सरदारों, जैसे- राजा मानसिंह, मिर्जा शाहरुख और मिर्जा अजीज कोका को ही दिया गया था। ने शहजादा सलीम को 12 हजार का मनसब प्रदान किया था। मनसबदारों को किसी भी प्रशासनिक, सैनिक पद पर या बादशाह के व्यक्तिगत सेवा में रखा जा सकता था।

500 से 2500 तक के मनसबदार ‘अमीर’ कहलाते थे और इससे ऊपर के मनसबदारों को ‘अमीरे आजम’, ‘खाने आजम’ एवं ‘खानेखाना’ आदि उपाधियों से सम्मानित किया जाता था। सबसे ऊँची सैनिक उपाधि- ‘खानेजमाँ’ थी। इसके पश्चात ‘खान-ए-खाना’। किंतु यह दोनों पद सामान्यतः एक ही व्यक्ति को दिया जाता था। अधीनस्थ राजा भी मनसबदारी व्यवस्था के अंतर्गत थे क्योंकि अकबर ने उन्हें भी मनसब प्रदान किये थे।

अकबर ने अपने संपूर्ण मनसब को ‘अल्लाह’ शब्द की गणना के योग अर्थात् 1$30$30$5= 66 श्रेणियों में विभाजित किया था, किंतु अबुल फजल ने केवल 33 श्रेणियों का ही उल्लेख किया है। ‘मनसबदार’ का पद आनुवंशिक नहीं होते थे। मनसबदार की मृत्यु या पदच्युति के बाद यह स्वतः समाप्त हो जाता था।

मनसबदारों की श्रेणियाँ

जात’ से किसी मनसबदार के वेतन और उसकी पदानुक्रम स्थिति का पता चलता था, जबकि ‘सवार’ पद से उसके सैनिक उत्तरदायित्व का बोध होता था। मनसबदार का पद बिना ‘सवार’ के हो सकता था, किंतु बिना ‘जात’ के नहीं। ‘सवार’ की संख्या ‘जात’ की संख्या से किसी भी स्थिति में अधिक नहीं हो सकती थी। वह ‘जात’ की संख्या के बराबर अथवा उससे कम हो सकती थी।  ‘जात’ की संख्या समान होने पर भी ‘सवार’ की संख्या के आधार पर 5,000 और उससे नीचे के मनसबदारों की तीन श्रेणियाँ थीं-

  1. प्रथम श्रेणी के मनसबदार वे थे, जिनकी ‘सवार’ संख्या और ‘जात’ संख्या बराबर होती थी, जैसे- 5,000 जात/5,000 सवार।
  2. द्वितीय श्रेणी मनसबदारों की ‘सवार’ संख्या उनकी ‘जात’ संख्या के आधे अथवा आधे से अधिक होती थी, जैसे- 5000 जात/3,000 घुङसवार।
  3. तृतीय श्रेणी में मनसबदारों की ‘सवार’ संख्या उनकी ‘जात’ संख्या के आधे से कम होती थी, जैसे- 5,000 जात / 2000 घुङसवार।
मनसबदारों का वेतन

मुग़ल मनसबदारों को बहुत अच्छा वेतन मिलता था। उन्हें प्रायः नकद में वेतन दिया जाता था, किंतु कभी-कभी जागीर का राजस्व भी वेतन के स्थान पर दे दिया जाता था। मनसबदारों को वेतन के रूप में दी गई जागीर ‘तनख्वाह जागीर’ कहलाती थी। राजपूतों को उन्हीं के क्षेत्रों में दी गई जागीर ‘वतन जागीर’ कहलाती थी। जागीरदारी व्यवस्था इक्तादारी व्यवस्था से अलग थी, क्योंकि जागीरदारी में मनसबदार को प्रशासनिक अधिकार प्राप्त नहीं होता था, जबकि इक्तादारी व्यवस्था में इक्तादारों को राजस्व एवं प्रशासनिक दोनों अधिकार प्राप्त होते थे।

मनसबदार को अपनी व्यक्तिगत आय और वेतन से ही अपने स्वयं के अधीन घुड़सवारों और घोड़ों का खर्च चलाना पड़ता था। इसके बावजूद अकबर के काल में मनसबदार बहुत सुखी और ठाट का जीवन गुजारते थे। प्रथम श्रेणी के पंचहजारी मनसबदार को 30,000 रुपये प्रतिमास, द्वितीय श्रेणी के पं्चहजारी को 29,000 रुपये प्रति मास और तृतीय श्रेणी के पं्चहजारी को 28,000 रुपये प्रति मास वेतन मिलता था। मनसबदारों के अधीन जो सवार होते थे, उनमें से कुछ अस्पह (एक घोड़े वाले), कुछ दो अस्पह (दो घोड़े वाले) और कुछ सेह अस्पह (तीन घोडे़ वाले) होते थे, जिन्हें क्रमशः 15 रुपये, 20 रुपये तथा 25 रुपये मासिक वेतन मिलता था। इसके अतिरिक्त, मनसबदार को प्रत्येक सवार के लिए दो रुपये प्रति मास के हिसाब से अतिरिक्त वेतन भी मिलता था।

मनसबदारी व्यवस्था से लाभ

मनसबदारी व्यवस्था मुगल प्रशासनिक व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण में सहायक सिद्ध हुई। वस्तुतः यह ब्रिटिश सिविल सेवा के इस्पाती ढ़ाँचा के समान एक संगठित एवं वफादार प्रशासनिक वर्ग का निर्माण हुआ जिससे मुगल साम्राज्य की आवश्यकताएँ पूरी हुईं। अकबर को मनसबदारी व्यवस्था से अनेक लाभ हुए-

  1. इस व्यवस्था से सेना की कुशलता में वृद्धि हुई। मनसबदार प्रायः अपनी जाति अथवा कबीले के व्यक्तियों को ही नियुक्त करते थे, जिससे वे अपने मनसबदार के प्रति निष्ठावान होते थे तथा कुशलतापूर्वक कार्य करते थे।
  2. मनसबदारों को उनकी योग्यता के आधार पर पदोन्नति दी जाती थी। यदि कोई मनसबदार गलत कार्य करता था, तो उसके मनसब में कटौती की जाती थी अथवा उसे मनसब से वंचित भी किया जा सकता था। अतः मनसबदार अपने मनसब में वृद्धि के लिए बादशाह को अपनी सेवाओं द्वारा प्रसन्न करने का प्रयास करते थे।
  3. राजपूत वर्ग को शासन में शामिल करने में आसानी हुई क्योंकि मनसबदारी व्यवस्था उच्च पद और सम्मान से जुड़ी थी।
  4. शासन के केंद्रीकरण की प्रवृति में वृद्धि हुई क्योंकि मनसबदारों की नियुक्ति, पदोन्नति एवं अवनति सम्राट द्वारा की जाती थी और उन्हें साम्राज्य के किसी भी क्षेत्र में कार्य करने हेतु नियुक्त किया जा सकता था। इस दृष्टि से यह अखिल भारतीय केंद्रीय सेवाओं के समान थी।
  5. मनसबदारों के वर्ग में विभिन्न क्षेत्र तथा वर्ग के लोगों को स्थान मिला, जिससे एकीकरण की भावना को प्रोत्साहन मिला।
  6. मनसबदारों की जीवन-शैली एवं रुचियों के कारण व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ावा मिला, साथ ही उनकी आर्थिक संपन्नता से विभिन्न कलाकारों, लेखकों के संरक्षण से क्षेत्रीय कला, साहित्य, भाषा एवं लोकसंगीत को प्रोत्साहन मिला।
  7. मनसबदारी व्यवस्था ने राजनीतिक, प्रशासनिक क्षेत्र के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्र को भी प्रभावित किया और समन्वयवादी संस्कृति के विकास में अपनी भूमिका निभाई।
मनसबदारी व्यवस्था के दोष
  1. मनसबदारी व्यवस्था में सवारों की नियुक्ति मनसबदारों द्वारा की जाती थी, जिससे उनकी निष्ठा बादशाह के प्रति न होकर मनसबदारों के प्रति होती थी और मनसबदार के विद्रोह करने पर वे उसी का साथ देते थे।
  2. मनसबदारों के सैनिकों की कार्य-क्षमता एवं कुशलता अलग-अलग होती थी, जिससे उनके सैनिकों में ताल-मेल स्थापित नहीं हो पाता था। मनसबदारों को जब किसी अभियान में भेजा जाता था, तो उनमें पारस्परिक सामंजस्य नहीं हो पाता था।
  3. जागीरदारों के स्थानांतरण के कारण मनसबदारों का ध्यान कृषि के विकास पर नहीं रहा। राजस्व प्राप्ति ही मुख्य लक्ष्य था। इससे कृषकों के शोषण में वृद्धि हुई। फलतः किसान खेत छोड़कर भागने लगे, जिससे उत्पादन में गिरावट आई और मुगल राजकोष पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

कुल मिलाकर मनसबदारी व्यवस्था अकबर की एक मौलिक सोच थी और इसके माध्यम से उसने मुगल सत्ता को सुदृढ़ किया, किंतु मुगल साम्राज्य के विस्तार के साथ ही जागीरदारी का संकट उत्पन्न हुआ, जिससे मुगल साम्राज्य कमजोर हुआ और उसके पतन का मार्ग प्रशस्त हुआ।

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