मुहम्मद गोरी के आक्रमण और भारत में तुर्क सत्ता की स्थापना (Invasions of Muhammad Ghori and Establishment of Turk Power in India)

मुहम्मद गोरी के आक्रमण : भारत में तुर्क सत्ता की बुनियाद (Muhammad Ghori’s Invasions : The foundation of Turk Power in India)

गोर गज़नवी साम्राज्य और हेरात के सल्जूक साम्राज्य के मध्य दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में एक छोटा-सा पहाड़ी क्षेत्र था। यह क्षेत्र इतना दूरस्थ और अलग-थलग था कि बारहवीं सदी के अंत तक छोटे-छोटे मुस्लिम राज्यों से घिरे होने के बावजूद यहाँ गैर-इस्लामी यानी एक प्रकार के महायान बौद्ध धर्म का अस्तित्व बना रहा क्योंकि हरी रूद (हरी नदी) के किनारे पहाड़ी चट्टान में तराशकर बनाया गया एक बौद्ध मठ मिला है।

ग्यारहवीं सदी के आरंभ में महमूद गज़नवी ने गोर पर आक्रमण (1110 ई.) कर उस पर अधिकार कर लिया और गोर के निवासियों को इस्लाम धर्म में दीक्षित किया। महमूद ने इस्लाम धर्म के सिद्धांतों का उपदेश देने के लिए वहाँ मुस्लिम उपदेशक नियुक्त किये, जिससे गोर का इस्लामीकरण होना आरंभ हुआ।

महमूद गजनवी का साम्राज्य प्रधानतः सैनिक शक्ति पर आधारित था। उसके उत्तराधिकारियों के आंतरिक झगड़ों और गृहयुद्धों के कारण महमूद का साम्राज्य उसकी मृत्यु के 10 वर्ष बाद ही टूटने लगा। गजनवी साम्राज्य के विभिन्न भागों में निवास करनेवाली जातियाँ, जैसे-सल्जुक तुर्क, गुज तुर्क, गोर के सूरी, अफगान कबीले सभी समय पाते ही स्वतंत्र होने और अपने-अपने साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास करने लगे। इस विकासक्रम में कुछ समय बाद ख्वारिज्म और गोर के नये साम्राज्यों का उदय हुआ। गजनी लगभग दस वर्षों तक गुज तुर्कमानों के अधिकार में रही। इसके बाद यह गोर के शासकों द्वारा अधिकृत कर ली गई। गजनवी शासक बहराम का पुत्र और दुर्बल उत्तराधिकारी खुसरवशाह तुर्कमानों की गुज जाति के एक दल द्वारा गजनी से भगा दिया गया। वह भागकर पंजाब चला आया जो उस समय उसके पूर्वजों के विस्तीर्ण साम्राज्य का एकमात्र अवशेष था।

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गोर का उत्थान और शंसबानी राजवंश 

गोर राज्य का उत्थान बारहवीं शताब्दी के मध्य में हुआ। चूंकि गोर के शासकों के एक पूर्वज का नाम शन्सब था, इसलिए मिनहाजे सिराज ने उन्हें शंसबानी नाम दिया है। शंसबानियों के प्रारंभिक सरदारों के बारे में कुछ खास ज्ञात नहीं है। उनके नाम के अंत में सूरी शब्द लगा होने के कारण कुछ लोगों ने भ्रमवश उनको अफगान मान लिया था, जबकि शंसबानी सरदार वास्तव में गोर के पूर्वी फारसी वंश के थे, जो मूलरूप में गजनी के जागीरदार थे।

गोर के शंसबानी पहले एक पहाड़ी किले के साधारण सरदार थे जिन्होंने बारहवीं सदी के मध्य में गजनवी वंश के शासक बहराम के शासनकाल में ख्याति प्राप्त की। गोर के शाह मलिक कुतुबुद्दीन हसन ने गजनी के शाह बहराम के यहाँ शरण ली थी और बहराम की एक पुत्री से विवाह किया था। किंतु शंसबानियों की बढ़ती हुई शक्ति के कारण बहराम ने विश्वासघात करके कुतुबुद्दीन हसन की हत्या कर दी। कुतुबुद्दीन के भाई सैुफुद्दीन सूरी ने क्रोधित होकर 1148 ई. में गजनी पर आक्रमण कर बहराम को नगर से बाहर कुर्रम भगा दिया। किंतु शीघ्र ही बहराम वापस आ गया और शत्रु सेना की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर संग-ए सुरख के युद्ध में सैफुद्दीन को बंदी बना लिया और उसका सिर काटकर सल्जूक संजर के पास भेज दिया।

सैफुद्दीन के छोटे भाई अलाउद्दीन हुसैनशाह ने प्रतिशोध में गजनी पर आक्रमण कर बहरामशाह को पराजित किया। अलाउद्दीन ने सात दिनों तक ग़ज़नी में भयानक लूटपाट की और नगर को जलाकर कुछ उत्कृष्ट भवनों को भी भूमिसात् कर दिया। इसके कारण अलाउद्दीन हुसैनशाह को ‘जहाँसोज़’ (विश्वदाहक) की उपाधि प्राप्त हुई। इस प्रकार अलाउद्दीन हुसैनशाह ने ग़जनवियों के अंतिम पतन तथा इस्लामी जगत की सीमा पर सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य के रूप में गोर के अभ्युदय की घोषणा की।

अपने पूर्ववर्तियों की तरह गोरियों को भी खुरासान और मर्व के समृद्ध क्षेत्रों पर नियंत्रण हेतु सल्जूकों के साथ निरंतर युद्ध करना पड़ा। अलाउद्दीन ‘जहाँसोज’ ने अपनी स्थिति सुदृढ़कर 1152 ई. में सल्जुक़ों को न केवल कर देने से इनकार कर दिया, बल्कि अकारण हेरात और बल्ख पर भी अधिकार जमा लिया। फलस्वरूप सल्जुक़ शासक अहमद संजर ने अलाउद्दीन हुसैनशाह को पराजित कर बंदी बना लिया। अलाउद्दीन हुसैन दो साल तक कैद रहा, जब तक कि सल्जुक़ संजर ने भारी फिरौती के बदले में उसे रिहा नहीं कर दिया। संजर के बंदीकरण का लाभ उठाकर अलाउद्दीन हुसैनशाह ने गोर शक्ति का विस्तार किया।

अलाउद्दीन जहाँसोज की 1161 ई. में मृत्यु हो गई। इसके बाद उसका उत्तराधिकारी सैफुद्दीन मुहम्मद गद्दी पर बैठा। सैफुद्दीन ने साम के दोनों पुत्रों- गियासुद्दीन साम तथा मुईजुद्दीन साम को मुक्त कर दिया जिन्हें अलाउद्दीन जहाँसोज़ ने क़ैद कर रखा था। सैफुद्दीन मुहम्मद ने हेरात के एक भाग पर पुनः अधिकार कर लिया, किंतु गुज़ों को बल्ख से भगाने से प्रयास में वह युद्ध करता हुआ 1162 ई. में मारा गया जिससे गजनी भी गोरियों के हाथ से निकल गया जो बारह वर्ष से उनके अधिकार में था।

सैफुद्दीन की मृत्यु के बाद उसका चचेरा भाई गियासुद्दीन 1163 ई. में गोर का शासक बना। गुजों की घटती शक्ति के कारण गियासुद्दीन ने 1173 ई. में गुज तुर्कमानों को गजनी से खदेड़ दिया और तुर्क जनजातीय परंपरा का पालन करते हुए अपने छोटे भाई शहाबुद्दीन को, जो मुइज्जुद्दीन मुहम्मद बिन साम के नाम से भी पुकारा जाता है, गजनी का शासक नियुक्त किया। इसके बाद गियासुद्दीन ने अपना ध्यान मध्य और पश्चिम एशियाई समस्याओं पर केंद्रित किया जबकि मुइज्जुद्दीन ने अपनी सारी शक्ति भारत की विजय में लगा दी, जो भारत के इतिहास में मुहम्मद गोरी के नाम से प्रसिद्ध है।

मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी 

मुहम्मद गोरी के आक्रमण और भारत में तुर्क सत्ता की स्थापना (Invasions of Muhammad Ghori and Establishment of Turk Power in India)
मुहम्मद गोरी

कहा जाता है कि मुइज्जुद्दीन मुहम्मद का जन्म 1149 ई. में खोरासन के गोर क्षेत्र में हुआ था। उनके पिता बहाउद्दीन साम प्रथम गोर क्षेत्र के स्थानीय सरदार थे। मुइज्जुद्दीन के बड़े भाई का नाम गियासुद्दीन मुहम्मद था। अपने प्रारंभिक जीवन के दौरान गियासुद्दीन और मुइज्जुद्दीऩ अपने चाचा अलाउद्दीन हुसैनशाह द्वारा कैद कर लिये गये थे, लेकिन बाद में अलाउद्दीन के पुत्र और उत्तराधिकारी सैफुद्दीन मुहम्मद ने उन्हें मुक्त कर दिया था। 1163 ई. में सैफ की मृत्यु के बाद गियासुद्दीन ने अपने छोटे भाई मुईज्जुद्दीन यानी शहाबुद्दीन मुहम्मद बिन साम को गजनी का शासक नियुक्त किया।

मुहम्मद गोरी के आक्रमणों का उद्देश्य 

प्रारंभ से ही मुहम्मद गोरी का उद्देश्य भारतीय क्षेत्रों को जीतकर भारत में साम्राज्य स्थापित करना था। उस समय लाहौर में गजनवियों का अंतिम बादशाह खुसरव मलिक राज्य करता था और मुल्तान करामतियों के अधिकार में था। गजनी का शासक होने के नाते मुहम्मद गोरी अपने को पंजाब का वैध शासक समझता था, क्योंकि पहले यह गजनी साम्राज्य का अंग था।

मुहम्मद गोरी भारतीय विजय से धन भी संचय करना चाहता था ताकि मध्य एशिया में अपने शत्रुओं, विशेष रूप से ख्वारिज्म के शाह पर विजय प्राप्त कर सके। दरअसल मध्य एशिया में गोरियों के नवोदित राज्य को ख्वारिज्म के शाह से ही सबसे बड़ी चुनौती मिल रही थी जिसने खुरासान पर अधिकार कर लिया था। इस प्रकार भारत पर आक्रमण करने और अपने साम्राज्य की स्थापना के सिवाय गोरी के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था। इसके साथ ही, मुइज्जुद्दीन गोरी अपने सैनिक विजयों से इस्लाम के यश और गौरव में वृद्धि करना चाहता था और भारत में इस्लाम का प्रचार करना चाहता था।

यह कहना कठिन है कि मुहम्मद गोरी के अभियान सुनियोजित थे या उसने प्रारंभ में ही साम्राज्य की स्थापना की कल्पना कर ली थी, किंतु इतना निश्चित है कि दो कारणों से उसका कार्य आसान हो गया। पहला कारण यह था कि उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति उसके अनुकूल थी, क्योंकि कोई ऐसी शक्तिशाली सत्ता नहीं थी जो उसका दृढ़ प्रतिरोध करती। दूसरा कारण यह कि उसके दास योग्य सेनापति थे जिन्होंने उसके कार्य को पूरे मनोयोग से पूरा किया।

मुहम्मद गोरी के आक्रमणों के समय उत्तर भारत की दशा 

मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी के आक्रमणों के समय भी संपूर्ण उत्तर भारत में विकेंद्रीकरण तथा विभाजन की परिस्थितियाँ सक्रिय थी। अनेक छोटे-बड़े राज्य एक दूसरे के कीमत पर अपनी शक्ति एवं साम्राज्य का विस्तार करने में लगे थे।

पंजाब

पंजाब और सीमांत प्रदेशों को महमूद गजनवी ने गजनी साम्राज्य में मिला लिया था। जब 1160 ई. में गुज तुर्कों ने गजनी पर अधिकार कर लिया, तो गजनवी शासक खुसरवशाह पंजाब भाग आया और लाहौर को राजधानी बनाकर शासन कर रहा था। पतनशील गजनी राजवंश 1186 ई. तक पंजाब में राज्य करता रहा था। मुहम्मद गोरी ने 1186 ई. में लाहौर पर कब्जा करके इस राजवंश को समाप्त कर दिया।

मुल्तान

उत्तरी सिंध में मुल्तान राज्य को महमूद गजनवी ने जीता था। यहाँ शिया मतावलंबी मुस्लिम शासक था। महमूद की मृत्यु के पश्चात् इन शासकों ने स्वयं को स्वतंत्र बना लिया। मुहम्मद गोरी ने 1175 ई. में इस राज्य को जीत लिया।

सिंध

निचले सिंध को सुल्तान महमूद ने जीत लिया था। लेकिन उसकी मृत्यु के बाद सिंध स्वतंत्र हो गया और सुमरा नाम की स्थानीय जाति ने पुनः सत्ता स्थापित कर ली। सुमरा लोग मुसलमान थे और संभवतः शिया मतावलंबी थे।

अन्हिलवाड़ के चालुक्य
पश्चिमी भारत (गुजरात) में चालुक्य राजपूतों का राज्य था। उनकी राजधानी अन्हिलवाड़ या अन्हिलपाटन थी। इस राजवंश का सबसे प्रतापी शासक सिद्धराज जयसिंह था। चालुक्यों का अपने पड़ोसी मालवा के परमारों, अजमेर के चौहानों और चित्तौड़ के गुहिलों से युद्ध होता रहता था। मुइज्जुद्दीन गोरी का समकालीन चालुक्य राजा मूलराज द्वितीय था।
अजमेर के चहमान

उत्तर भारत में चौहान राजवंश का उत्थान अजयपाल के शासनकाल में हुआ। चहमान अथवा चौहान राजवंश गुजरात की ओर एवं दिल्ली और मथुरा की ओर अपने राज्य का विस्तार करने का प्रयास कर रहा था। इसलिए उसे महमूद गजनवी के उत्तराधिकारियों के लूटपाट वाले आक्रमणों को झेलना पड़ रहा था।

संभवतः चौहान शासकों में महानतम विग्रहराज तृतीय था जिसने चित्तौड़ पर कब्जा कर लिया था। लगता है कि विग्रहराज ने 1151 ई. में तोमरों से दिल्ली को छीनकर चौहान राज्य शासन का विस्तार शिवालिक यानी दिल्ली तक फैली पहाड़ी श्रृंखलाओं तथा हाँसी तक कर लिया, किंतु तोमरों को अधीनस्थ शासकों के रूप में शासन करते रहने दिया। यही वह क्षेत्र था जिसको लेकर तोमरों और गहड़वालों के बीच संघर्ष होता रहता था।

विग्रहराज कवियों और विद्वानों का संरक्षक था एवं उसने स्वयं भी एक संस्कृत नाटक लिखा था। उसने अनेक भव्य मंदिर, अजमेर में एक संस्कृत महाविद्यालय एवं आनासागर तालाब बनवाये।

पृथ्वीराज तृतीय (1178-1193 ई.) चहमान वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक था जो 1177 ई. के लगभग 11 वर्ष की आयु में अजमेर के राजसिंहासन पर आसीन हुआ था। उसने 16 वर्ष की आयु में प्रशासन की बागडोर अपने हाथों में थाम ली एवं शीघ्र ही राजस्थान के छोटे-छोटे राज्यों को विजय करके विस्तारवाद की एक प्रबल नीति आरंभ की। किंतु उसका सर्वाधिक प्रसिद्ध सैनिक अभियान खजुराहो और महोबा के चंदेलों के विरुद्ध था जिन्होंने गजनवियों का कई बार प्रतिरोध किया था। इसी युद्ध में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध योद्धा महोबा की रक्षा करते हुए मारे गये जो पृथ्वीराज रासो एवं आल्हा-खंड नामक दो हिंदी महाकाव्यों के जरिये अमर हो गया है। यद्यपि दोनों परवर्ती महाकाव्यों की ऐतिहासिक सत्यता संदिग्ध है, फिर भी, पृथ्वीराज को चंदेलों पर महत्वपूर्ण विजय प्राप्त हुई। यद्यपि इस युद्ध के कारण पृथ्वीराज के राजक्षेत्र में कोई वृद्धि नहीं हुई, किंतु उसे भारी मात्रा में लूट का माल प्राप्त हुआ।

1182 ओर 1187 ई. के बीच पृथ्वीराज को अपने पुराने प्रतिद्वंद्वी गुजरात के चालुक्यों से निपटना पड़ा और ऐसा लगता है कि गुजरात नरेश भीम द्वितीय ने, जिसने पहले मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी को पराजित किया था, पृथ्वीराज को भी पराजित किया। इसके कारण पृथ्वीराज को अपना ध्यान गंगा घाटी और पंजाब की ओर केंद्रित करना पड़ा।

परंपरा के अनुसार, पृथ्वीराज और कन्नौज के गहड़वालों के बीच भी लंबा संघर्ष चला। चहमान-गहड़वाल संघर्ष का कारण गहड़वाल नरेश जयचंद की रूपवती पुत्री संयोगिता के स्वयंवर के समय पृथ्वीराज द्वारा संयोगिता का हरण और उसके बाद हुए युद्ध में पृथ्वीराज के हाथों जयचंद की पराजय को माना जाता है। यद्यपि किसी समकालीन साक्ष्य के अभाव में इस कहानी की सत्यता संदिग्ध है, किंतु दिल्ली एवं ऊपरी गंगा दोआब पर नियंत्रण हेतु चौहानों और गहड़वालों के बीच प्रतिद्वंद्विता सुविदित है। इस प्रकार अपने सभी पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण कर पृथ्वीराज ने स्वयं को राजनीतिक दृष्टि से अलग-थलग कर लिया था। इसी अदूरदर्शी नीति के कारण उसे अंत में मुहम्मद गोरी के हाथों 1192 ई. में तराइन के युद्ध में पराजित होना पड़ा।

कन्नौज के गहड़वाल

इस राजपूत वंश का राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश में था। इसकी राजधानी कन्नौज और वाराणसी थी। इस वंश का प्रतापी शासक गोविंदचंद्र था। गहड़वालों का प्रमुख योगदान यह था कि चौहानों के उत्थान के पूर्व उनके राज्य की सीमा सतलज तक थी और उन्होंने गजनवी सेनापतियों का सामना किया था, लेकिन दिल्ली और पूर्वी सतलज क्षेत्र चौहानों के पास जाने के बाद दोनों राजपूत राज्यों में शत्रुता हो गई। इस शत्रुता का लाभ मुहम्मद गोरी ने उठाया। उसने 1192 ई. में चौहानों को पराजित करने के बाद 1194 ई. गहड़वाल नरेश जयचंद को पराजित करके गहड़वाल राज्य पर अधिकार कर लिया।

बुदेलखंड के चंदेल

जैजाकभुक्ति के चंदेलों ने महमूद गजनवी का दो बार सामना किया था। इस राजवंश के शक्तिशाली राजा धंग, गंड और विद्याधर थे। चौहानों और गहड़वालों के उत्थान के बाद चंदेल राजवंश की स्थिति दुर्बल हो गई।

चंदेलों को सभी राजपूत पड़ोसी राज्यों से युद्ध करना पड़ा था। मालवा के परमार, चेदि के कलचुरि, कन्नौज के गहड़वाल शासकों से उनके युद्ध हुए थे। इस वंश का अंतिम राजा परमाल या परमार्दि था जिस पर चौहान राजा पृथ्वीराज तृतीय ने कई बार आक्रमण किया था। 1202-03 ई. में मुहम्मद गोरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने परमार्दि चंदेल की राजधानी कालिंजर पर आक्रमण करके समस्त बुदेलखंड पर अधिकार कर लिया।

चेदि के कलचुरि

चेदि या डाहाल के कलचुरि राजवंश का प्रतापी शासक गांगेयदेव (1019-1040 ई.) था। कलचुरियों का चंदेलों, परमारों और चालुक्यों से संघर्ष होता रहता था। इन युद्धों के कारण कलचुरि कभी शक्तिशाली नहीं बन सके। गांगेयदेव के पुत्र और उत्तराधिकारी लक्ष्मीकर्ण के बाद कलचुरि निर्बल हो गये। बारहवीं शताब्दी के अंत में कलचुरि चंदेलों के अधीनस्थ सामंत बन गये थे।

मालवा के परमार

मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी के भारतीय अभियानों के समय मालवा के परमार शासक अत्यंत दुर्बल थे। इस समय इस वंश का शासक चालुक्यों की अधीनता में सामंत था। 1305 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया था।

उत्तरी बंगाल के पाल

उत्तरी बंगाल पर पाल राजाओं का शासन था। कुमारपाल (1126-1130 ई.) और मदनपाल (1130-1150 ई.) के काल में पाल राज्य उत्तरी बंगाल में एक छोटा-सा राज्य रह गया था।

दक्षिण बंगाल में सेन राजवंश के प्रतापी राजा विजयसेन (1097-1159 ई) का शासन था। इस वंश के अंतिम शासक बल्लालसेन (1159-1170 ई) और लक्ष्मणसेन (1170-1203 ई.) थे। 1204 ई. के लगभग तुर्कों ने बख्तियार खिलजी के नेतृत्व में सेन राज्य पर आक्रमण करके अधिकार कर लिया था।

इस प्रकार मुइज्जुद्दीन गोरी के आक्रमण के समय भी उत्तर भारत छोटे-छोटे राज्यों मे विभक्त था। ये राज्य प्रायः प्रभुत्व स्थापित करने की आकांक्षा से परस्पर युद्ध करते रहते थे। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि निरंतर युद्धों के कारण वे दुर्बल हो गये और विदेशी आक्रमण का मिलकर सामना नहीं कर सके।

मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी के प्रारंभिक आक्रमण 

मुहम्मद गोरी के आक्रमण और भारत में तुर्क सत्ता की स्थापना (Invasions of Muhammad Ghori and Establishment of Turk Power in India)
मुहम्मद गोरी के आक्रमण और भारत में तुर्क सत्ता की स्थापना

मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी के प्रारंभिक आक्रमणों का मुख्य सैनिक उद्देश्य पंजाब एवं सिंध पर अधिकार करना था। पहले के अन्य आक्रमणकारियों से भिन्न मुहम्मद गोरी ने ज्यादा प्रचलित खैबर दर्रे के स्थान पर गोमल दर्रे द्वारा सिंध के मैदानी क्षेत्रों पर आक्रमण करने का निर्णय किया।

मुल्तान

मुइज्जुद्दीन गोरी का भारत के विरुद्ध पहला सैनिक अभियान 1175 ई. में हुआ जब उसने मुल्तान के करामाती शासकों (शिया या इस्माइली शासक) पर आक्रमण कर मुल्तान पर अधिकार कर लिया। महमूद गजनवी की मृत्यु के पश्चात् मुल्तान के करामाती शासकों (शिया या इस्माइली शासक) ने पुनः स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी। मुल्तान को पहले जीतने का एक कारण यह था कि मुहम्मद गोरी मुल्तान को अपने भावी विजयों का आधार बनाना चाहता था, दूसरे मुल्तान का करामाती शासक के धार्मिक विचार इस्लाम और बौद्ध धर्म का मिला-जुला रूप प्रस्तुत करते थे।

उच्छ

अगले वर्ष 1176 ई. में मुइज्जुद्दीन गोरी ने उच्छ पर कब्जा कर लिया। फरिश्ता के अनुसार उच्छ पर भट्टी राजपूतों का राज्य था। भट्टी रानी ने दुर्ग मुहम्मद गोरी को समर्पित कर दिया था। किंतु हबीब के अनुसार इस समय उच्छ पर भट्टी राजपूतों का नहीं, बल्कि यहाँ भी इस्माइली मुसलमानों का राज्य था।

गुजरात पर आक्रमण

मुइज्जुद्दीन गोरी ने 1178-79 ई. में मुल्तान और उच्छ होते हुए गुजरात के नेहरवाला (गुजरात) पर आक्रमण किया। इस समय गुजरात पर चालुक्य वंश के भीमदेव द्वितीय का शासन था। गुजरात के शासक ने आबू पर्वत के निकट मुइज्जुद्दीन को बुरी तरह पराजित किया। कहा जाता है कि चालुक्यों ने पृथ्वीराज से सहायता का अनुरोध किया था, किंतु गोरी और चालुक्य राज्य दोनों ही चौहानों के शत्रु थे, इसलिए पृथ्वीराज के मंत्रियों ने उसे सहायता न करने का परामर्श दिया। उस समय पृथ्वीराज केवल 12 वर्ष का था, अतः उसे इस निर्णय के लिए दोषी नहीं माना जा सकता है।

पंजाब की विजय

गुजरात अभियान की विफलता के बाद मुइज्जुद्दीन गोरी ने अपनी समस्त योजना बदल दी। 1179-80 ई. में पेशावर, उच्छ और मुल्तान जीत लेने के बाद मुहम्मद गोरी ने 1181-82 ई. में लाहौर पर आक्रमण किया और दुर्बल ग़ज़नवी शासक खुसरो मलिक ने उसके सम्मुख घुटने टेक दिये। खुसरो को लाहौर में शासन करते रहने दिया गया जबकि मुइज्जुद्दीन ने सियालकोट समेत पूरे पंजाब पर तथा समुद्र-तट तक सिंध पर अपने नियंत्रण को सुदृढ़ किया।

अंत में, 1186 ई. में मुइज्जुद्दीन पुनः पंजाब आया और ग़ज़नवी शासक को हटाकर एक किले में बंदी बनाकर कुछ वर्षों बाद उसे मौत की नींद सुला दिया। अब गोरियों और उत्तर भारत के राजपूत शासकों के बीच संघर्ष का मंच तैयार हो गया।

राजपूत राज्यों की विजय 

मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी ने राजपूत राजाओं से युद्ध आरंभ करने के पूर्व स्यालकोट से देवल तक और पेशावर से लाहौर तक के विस्तृत क्षेत्र को जीत लिया था। तीन वर्षों तक पंजाब में शक्ति को संगठित करने के बाद मुहम्मद गोरी ने भारत में और आगे की ओर अपने विजय अभियान को बढ़ाया। थोड़े समय में ही ये सैनिक कार्यवाहियाँ प्रत्यक्ष तौर पर गंगा के मैदानों में स्थित राजपूत राज्यों के विरुद्ध होने लगीं। इन आक्रमणों का सबसे अधिक दबाव चौहान शासकों पर पड़ा, जिनके अधीन अजमेर से दिल्ली तक का भू-भाग था, जो भारत का प्रवेश द्वार था।

तबरहिंद (भटिंडा) पर आक्रमण

मुहम्मद गोरी ने 1189 ई. में सतलज नदी को पार कर अचानक तबरहिंद (भटिंडा) के किले पर अधिकार कर लिया, जो चौहान राज्य में था। चौहान राजा पृथ्वीराज ने इस सामरिक महत्व के इस सीमावर्ती दुर्ग की रक्षा का कोई प्रबंध नहीं किया था। मुहम्मद गोरी इस किले पर अधिकार करने के बाद वापस चला गया। तबरहिंद के पतन की सूचना मिलते ही पृथ्वीराज ने इसके महत्त्व को समझते हुए एवं तुर्कों को अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का मौक़ा दिये बिना तुरंत तबरहिंद का घेरा डाल दिया।

तराइन का पहला युद्ध 

तबरहिंद के घेरे की सूचना पाते ही मुहम्मद गोरी वापस लौट़ा। 1191 ई. में तराइन के मैदान में मुहम्मद गोरी और पृथ्वीराज की सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ जिसमें पृथ्वीराज को पूर्ण विजय प्राप्त हुई और एक समकालीन विवरण के अनुसार एक खिलजी घुड़सवार घायल मुहम्मद गोरी को बचाकर ले भागा और उसे एक सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया। यह गोरी की दूसरी पराजय थी। पृथ्वीराज ने तबरहिंद (भटिंडा) के दुर्ग पर पुनः अधिकार कर लिया।

अपनी विजय के बाद पृथ्वीराज ने गोरी की हताश सेना का पीछा नहीं किया। संभवतः वह अपनी छावनी से बहुत दूर शत्रु प्रदेश में घुसना नहीं चाहता था अथवा उसने सोचा होगा कि गजनवियों की तरह गौरी भी पंजाब पर शासन करते हुए संतुष्ट रहेंगे। इस प्रकार, उसने तबरहिंद की घेराबंदी को मात्र एक सीमावर्ती झड़प समझा और कुछ महीनों की घेराबंदी के बाद तबरहिंद (भटिंडा) के दुर्ग पर पुनः अधिकार कर संतोष की सांस ली।

तराइन का दूसरा युद्ध

मुहम्मद गोरी के आक्रमण और भारत में तुर्क सत्ता की स्थापना (Invasions of Muhammad Ghori and Establishment of Turk Power in India)
मुहम्मद गोरी के आक्रमण

पृथ्वीराज ने मुहम्मद गोरी के साथ अपने संघर्ष को मात्र एक सीमावर्ती झड़प समझा। शायद इसीलिए उसने गोर शासक के साथ अपने भावी संघर्ष के लिए कोई तैयारी नहीं की। पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज पर राजकीय क्रियाकलापों की उपेक्षा करने और आमोद-प्रमोद में लगे रहने का आरोप लगाया गया है। हो सकता है कि यह सत्य न हो, किंतु यह सही है कि उसने गोरियों की ओर से संभावित ख़तरे को गंभीरता से नहीं लिया था। दूसरी ओर मुहम्मद गोरी अपनी असफलता से निराशा नहीं हुआ। गजनी पहुँचकर उसने अत्यंत सावधानी से युद्ध की तैयारी की और ऐसे कई अमीरों को पद से हटा दिया जो तराइन के प्रथम युद्ध में उसका पूरा साथ नहीं दे सके थे।

समकालीन इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज के अनुसार, पृथ्वीराज से बदला लेने के लिए मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी लौह-कवच और हथियारों से पूरी तरह लैस 1,20,000 सैनिकों के साथ 1192 ई. में तराइन के मैदान में आ धमका। 17वीं सदी के इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार, पृथ्वीराज की सेना में 3,000 हाथी, 3,00,000 घुड़सवार और भारी संख्या में पैदल सैनिक थे। यद्यपि ये संख्याएँ अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, किंतु इतना निश्चित है कि पृथ्वीराज द्वारा लाई गई सेना उसके प्रतिद्वंद्वी मुइज्जुद्दीन द्वारा जुटाई गई सेना से संख्या में कहीं अधिक थी। फरिश्ता भी कहता है कि पृथ्वीराज के कहने पर ‘हिंद के सभी अग्रणी रायों’ ने उसे सहायता दी थी। किंतु यह कथन संदिग्ध है क्योंकि पृथ्वीराज ने अपनी युद्धकारी सैनिकवादी नीतियों के कारण अपने सभी शक्तिशाली पड़ोसियों को अपना शत्रु बना लिया था। हो सकता है कि पृथ्वीराज की सेना में दिल्ली के शासक गोविंदराज समेत उसके कई अधीनस्थ शासक शामिल हुए रहे हों। किंतु यह मज़बूती के बजाय कमज़ोरी का स्रोत बना क्योंकि मुहम्मद गोरी की सेना के विपरीत इन सामंती सैनिक टुकड़ियों में केंद्रीय निर्देशन अथवा नेतृत्व का नितांत अभाव था।

तबकाते-नासिरी में मिनहाज बताता है कि मुइज्जुद्दीन गोरी ने नियोजित रणनीति के अनुसार अपने तीव्रगामी अश्वारोही धनुर्धरों के बल पर युद्ध किया। पृथ्वीराज पूर्णतः पराजित हुआ और युद्ध के मैदान से भाग निकला, किंतु उसका पीछा किया गया एवं हिसार जिले में सुरसती अथवा आधुनिक सिरसा के निकट पकड़ लिया गया। इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज कहता है कि उसकी तत्काल ही हत्या कर दी गई। किंतु हसन निजामी के अनुसार, पृथ्वीराज को अजमेर ले जाया गया एवं उसे शासन करते रहने दिया गया। इसकी पुष्टि मुद्रा-विषयक साक्ष्यों से भी होती है क्योंकि पृथ्वीराज के सिक्कों पर ‘श्री मुहम्मद साम’ उत्कीर्ण मिलता है।

कुछ समय बाद पृथ्वीराज ने विद्रोह कर दिया और राजद्रोह के अपराध में उसे मृत्युदंड दे दिया गया। पृथ्वीराज रासो की इस कहानी में कोई सच्चाई नहीं है कि पृथ्वीराज को गजनी ले जाया गया जहाँ उसने अपनी आँखों पर पट्टी बँधी होने के बावजूद गोरी सुल्तान को एक तीर चलाकर मार दिया और उसके बाद उसके चारण चंदबरदाई ने उसकी हत्या कर दी।

तराइन का दूसरे युद्ध का महत्व

तराइन का दूसरा युद्ध (1192 ई.) भारतीय इतिहास की एक युगांतकारी घटना है। इस युद्ध के फलस्वरूप अजमेर और दिल्ली पर तुर्कों का अधिकार हो गया। इस पराजय के परिणामस्वरूप भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग में ऐसी निराशा छा गई कि अब मुसलमानों के आक्रमणों का प्रतिरोध करने के लिए राजपूत राजाओं को एक ध्वजा के नीचे एकत्र कर लेने का दुर्दमनीय उत्साह रखनेवाला कोई भी राजपूत योद्धा नहीं रह गया। मुहम्मद गोरी विजित स्थानों को अपने विश्वासपात्र प्रतिनिधि कुतुबद्दीन की अधीनता में छोड़कर वापस लौट गया। अगले दो वर्षों में कुतुबद्दीन ने अजमेर में विद्रोह का दमन किया। बरन तथा मेरठ को जीता, और दिल्ली को तुर्क सत्ता का केंद्र बनाया।

ऊपरी गंगाघाटी में तुर्क सत्ता का फैलाव 

तराइन के द्वितीय युद्ध में मुहम्मद गोरी की विजय के बाद समस्त चौहान राज्य गोरियों के कब्जे में आ गया था। मुहम्मद गोरी ने यथार्थवादी सतर्कतापूर्ण नीति अपनाई। उसने समस्त शिवालिक क्षेत्र यानी अजमेर तक के क्षेत्र और आधुनिक हरियाणा के हिसार तथा सिरसा को अपने अधीन कर लिया। पृथ्वीराज को अजमेर की राजगद्दी वापस कर दी गई थी। पृथ्वीराज के बाद उसका पुत्र गोविंदराज एक अधीनस्थ शासक के रूप में अजमेर में कुछ समय तक शासन करता रहा। इसी प्रकार दिल्ली का राज्य तोमरवंश को सौंप दिया गया था। इंद्रप्रस्थ में उसने अपने सहायक कुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में एक सेना रखी थी जिसका काम हिंदू शासको से संधि की शर्तों को मनवाना था। इस व्यवस्था के बाद मुहम्मद गोरी गजनी लौट गया।

अजमेर और दिल्ली के विद्रोहों को दबाने के लिए ऐबक ने 1192 ई. में दिल्ली की ओर बढ़कर उस पर कब्जा कर लिया। मेरठ एवं बरन (आधुनिक बुलंदशहर) पर 1192 ई. में कब्जा कर लिया गया। दिल्ली का तोमर राजा कुछ समय और गद्दी पर बना रहा, किंतु 1193 ई. में राजद्रोही गतिविधियों में शामिल होने के कारण उसे शासन से हटा दिया गया। दिल्ली की स्थिति तथा उसकी ऐतिहासिक परंपरा के कारण तुर्कों ने उसे अपनी राजधानी बनाया। जहाँ एक ओर यह शक्ति के केंद्र पंजाब के पड़ोस में स्थित था, वहीं यह पूर्व की ओर अभियानों को संचालित करने के लिए भी एक सुविधाजनक केंद्र भी था।

पृथ्वीराज के भाई हरिराज को, जो राजपूत प्रतिरोध का नेतृत्व कर रहा था, पराजित कर अजमेर पर भी कब्जा कर लिया गया। अपनी पराजय का प्रायश्चित करने के लिए हरिराज चिता में जलकर मर गया। अब अजमेर को एक तुर्की अधिकारी के अधीन कर दिया गया। पृथ्वीराज के पुत्र गोविंद को हटाकर रणथम्भौर भेज दिया गया।

गहड़वाल राज्य की विजय

दिल्ली क्षेत्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात तुर्कों ने कन्नौज के गहड़वाल राज्य को जीतने की योजना बनाई जो उस समय देश का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य था। ऊपरी दोआब में मेरठ, बरन (आधुनिक बुलंदशहर) एवं कोइल (आधुनिक अलीगढ़) के क्षेत्र, जो उन दिनों डोर राजपूतों के अधीन थे, तराइन के द्वितीय युद्ध के तुरंत बाद तुर्कों द्वारा अधिकृत कर लिये गये थे, यद्यपि डोरों ने कड़ा मुकाबला किया था। इस क्षेत्र का भारी सामरिक महत्त्व था, किंतु गहड़वाल शासक जयचंद उनकी सहायता करने नहीं आया था। अपने को सुरक्षित मानने की गलती करते हुए उसने मुइज्जुद्दीन के हाथों पृथ्वीराज की पराजय पर दीवाली मनाई थी और दरबार में जश्न मनाया गया था।

चंदावर का युद्ध

1194 ई. में मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी ने एक बार फिर यमुना नदी को पार किया और 50,000 घुड़सवारों के साथ कन्नौज और बनारस की ओर बढ़ा। आधुनिक इटावा जिले में कन्नौज के निकट चंदावर का युद्ध हुआ। समकालीन साहित्यिक ग्रंथों के अनुसार इस युद्ध में जयचंद की सेना में 80,000 कवचबद्ध सैनिक, 30,000 घुड़सवार, 3,00,000 पैदल सैनिक, 2,00,000 तीरंदाज़ एवं बहुत सारे हाथी थे। इस युद्ध में जयचंद पराजित हुआ और मारा गया। भारी नर-संहार और लूटपाट के बाद असनी के किले (फ़तेहपुर) से गहड़वाल राज का ख़ज़ाना लूट लिया गया। गहड़वालों की पहले की राजधानी वाराणसी को भी लूटा गया एवं अनेक मंदिर नष्ट कर दिये गये। इसके बाद तुर्कों ने अपने सैनिक अड्डों को बनारस, असनी जैसे महत्वपूर्ण नगरों में स्थापित किया। लेकिन राजधानी कन्नौज पर 1198 ई. तक अधिकार नहीं किया जा सका।

बयाना और ग्वालियर

अगले वर्ष 1195-96 ईस्वी में मुइज्जुद्दीन ने सामरिक महत्व के बयाना के किले पर कब्जा किया। ग्वालियर को भी, जो इस क्षेत्र का सबसे सुदृढ़ किला था, घेर लिया गया, किंतु डेढ़ वर्षों की घेराबंदी के बाद ही कहीं जाकर यहाँ के शासक को क़िले का समर्पण करने के लिए विवश किया जा सका और बहाउद्दीन तुगरिल को सैनिक अधिकारी नियुक्त किया।

बुदेलखंड की विजय

मुहम्मद गोरी के वापस लौटने के बाद उसके सहायक कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1197-98 ई. में बदायूं पर और 1198 ई. में कन्नौज पर कब्जा किया। 1202 ई. में उसने कालिंजर, महोबा, एवं खजुराहो व बुदेलखंड के चंदेल राजा को पराजित किया जो उस क्षेत्र में गहड़वालों के बाद सर्वाधिक शक्तिशाली शासक थे।

इस प्रकार तराइन और चंदावर के युद्धों ने गंगा घाटी में तुर्की शासन की नींव डाली। छिटपुट उपद्रवों को छोड़कर इस क्षेत्र में तुर्क शासन का व्यापक स्तर पर कोई प्रतिरोध नहीं हुआ। इन विजयों के परिणामस्वरूप तुर्क साम्राज्य की सीमा बिहार तक पहुँच गई। ऊपरी गंगा घाटी एवं पूर्वी राजस्थान से आगे के क्षेत्र में विस्तार करने के लिए दो ओर से प्रयास किये गये-पश्चिम में गुजरात एवं पूर्व में बिहार और बंगाल।

गुजरात की विजय
पश्चिम में मुहम्मद गोरी के दास ऐबक ने गुजरात में अन्हिलवाड़ा पर आक्रमण किया, जिसका मुख्य कारण वहाँ के राय से प्रतिशोध लेना था जिसने पूर्व में एक राजपूत विद्रोह में सहायता की थी जिसके कारण ऐबक को अजमेर में तब तक शरण लेनी पड़ी थी जब तक कि गजनी से भेजी गई सेना ने आकर उसकी सहायता नहीं की। राय पराजित हुआ और अन्हिलवाड़ा कर कब्जा कर लिया गया, किंतु इस पर तुर्कों का नियंत्रण अधिक समय तक नहीं रह सका। इसने भारत में तुर्की सत्ता की परिसीमा को स्पष्ट कर दिया और यह दर्शा दिया कि वे अभी इतना मज़बूत नहीं हो गये थे कि अपनी सैनिक संक्रियाओं के केंद्र दिल्ली से बहुत दूर के स्थानों पर अपनी पकड़ बनाये रह पाते।
बिहार और बंगाल

बिहार और बंगाल को विजय करने का श्रेय तुर्क सेनापति इख्तयारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी को है। कहते हैं कि उसी ने बिहार के उदंतपुर, नालंदा, विक्रमशिला विद्याकेंद्रों को लूटकर जलाया था। 1204-05 ई. में उसने सेन राजधानी नादिया पर आक्रमण किया। सेन राजा लक्ष्मणसेन ने रक्षा की कोई तैयारी नहीं की थी और आक्रमणकारियों ने आसानी से राजधानी पर कब्जा कर लिया।

फरवरी, 1202 ई. में अपने बड़े भाई गियासुद्दीन मुहम्मद की मृत्यु के बाद मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी गोर तथा दिल्ली का शासक बन गया। परंतु 1204 ई. में वह ऑक्सस नदी के तट पर ख्वारिज्म के शाह से पराजित हुआ और अंदखुर्द में शत्रुओं से घिरने के बाद बड़ी मुश्किल से अपनी राजधानी पहुँच पाया। मुइज्जुद्दीन की यह अपकीर्तिकर पराजय उसके मन में खटकती रही, किंतु वह अपने शत्रुओं- ख्वारिज्म के शाह अलाउद्दीन मुहम्मद और करा-खिताइयों से युद्ध आरंभ नहीं कर सका।

मध्य एशिया में मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी की पराजय और मृत्यु की अफवाह के कारण भारतीय साम्राज्य के पश्चिमी प्रदेशों में रहने वाली सभी उपद्रवी जनजातियों ने विद्रोह कर दिया। नमक के पहाड़ के एक सरदार रैसाल ने खोकरों व अन्य जनजातियों को साथ लेकर चेनाब और झेलम के मध्यवर्ती क्षेत्रों को लूटना आरंभ कर दिया। मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी ने नवंबर, 1205 ई. में विद्रोही जनजातियों और खोकरों को बुरी तरह पराजित किया। किंतु पंजाब से गजनी लौटने के रास्ते में 15 मार्च 1206 ई. को सिंधु नदी के किनारे दमयक नामक स्थान पर खोकरों ने उसकी हत्या कर दी।

मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी का मूल्यांकन 

निःसंदेह मुहम्मद गोरी उत्तर भारत में तुर्क सल्तनत का वास्तविक संस्थापक था। यद्यपि उसमें महमूद गजनवी के समान सैनिक प्रतिभा नहीं थी, लेकिन उसका राजनीतिक दृष्टिकोण अपेक्षाकृत रचनात्मक था और उसमें कार्य को पूरा करने की पर्याप्त लगन और क्षमता थी। एक कुशल राजनीतिज्ञ के समान उसने भारत की विकेंद्रित राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर तुर्की साम्राज्य की नींव डाली।

मुहम्मद गोरी जानता था कि मध्य एशिया में ख्वारिज्म के शाह के विरुद्ध उसे सफलता नहीं मिल सकती है, इसलिए उसने अपनी संपूर्ण शक्ति भारत की विजय में लगा दी थी। इस प्रकार भारत में तुर्क सत्ता का वास्तविक संस्थापक यही मुहम्मद गोरी ही था। मुहम्मद गोरी के कुछ सिक्के भी मिले हैं जिनके एक ओर नंदी की आकृति और देवनागरी में ‘पृथ्वीराज’ तथा दूसरी ओर घोड़े की आकृति और ‘मुहम्मद बिन साम’ टंकित है।

मुइज्जुद्दीन गोरी में परिस्थितियों को समझने के अतिरिक्त पर्याप्त दृढ़ इच्छा-शक्ति और अद्भुत कर्मठता थी। विपरीत परिस्थितियों में भी उसने धैर्य रखा और अंतिम रूप से पराजय को स्वीकार करने के लिए वह तैयार नहीं होता था। एलफिंस्टन ने लिखा है कि मुहम्मद गोरी की भारतीय विजय सुल्तान महमूद की विजयों से अधिक महत्वपूर्ण है और ईरान में भी अधिक महत्त्वपूर्ण हुई होती यदि परिस्थितियाँ अनुकूल होतीं।’’

मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी मानव चरित्र का सूक्ष्म पारखी था। भारत में मुहम्मद गोरी की अधिकांश सफलता उसे ऐबक, एल्दौज और तुगरिल सदृश दासों के कारण प्राप्त हुई थी। मुहम्मद गोरी ने सदैव अपने बड़े भाई गियासुद्दीन के प्रति निष्ठा रखी, यह उस युग का एक दुर्लभ मानवीय गुण था। विख्यात दार्शनिक और विद्वान फखरूद्दीन राजी और प्रतिष्ठित कवि निजामी उरुजी गोरी दरबार को अलंकृत करते थे।

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