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बाबर के आक्रमण के समय भारत
बाबर के आक्रमण के समय भारतवर्ष की लगभग वही दशा थी जो 11वीं शताब्दी में तुर्क आक्रमणकारियों के समय थी। तुगलक सुल्तानों के समय से ही दिल्ली सल्तनत के विघटन की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी थी जब मुहम्मद बिन तुगलक के काल में विजयनगर और बहमनी के राज्यों की स्थापना हुई थी। तैमूर के भयंकर विनाश ने विघटन की इस प्रक्रिया को और तीव्र कर दिया।
लोदी सुल्तानों का राज्य आंतरिक रूप से दुर्बल हो चुका था क्योंकि लोदियों में दृढ़ता एवं राजनीतिक एकता की कमी थी। अंतिम लोदी सुल्तान इब्राहिम लोदी के काल तक दिल्ली सल्तनत की सीमाएँ सिकुड़कर दिल्ली, आगरा, दोआब, जौनपुर तथा बिहार तक ही सीमित रह गई थीं।
दिल्ली के अतिरिक्त भारत के अन्य क्षेत्रों में अनेक स्वतंत्र राज्य स्थापित हो गये थे और इन राज्यों में आपसी प्रतिद्वंद्विता और संघर्ष का वातावरण था। इस समय भारत में कोई ऐसी राजनीतिक शक्ति नहीं थी जो बाबर जैसे आक्रमणकारी का सफलतापूर्वक सामना करने का साहस करती। तत्कालीन राजनीतिक स्थिति के संबंध में बाबर अपनी आत्मकथा ‘तुजुके बाबरी’ में लिखता है कि ‘जब मैंने हिंदुस्तान को विजित किया तो यहाँ पाँच मुसलमान तथा दो काफिर बादशाहों का शासन था। इन लोगों को बड़ा सम्मान प्राप्त था और यह स्वतंत्र रूप से शासन करते थे। इनके अतिरिक्त, पहाड़ियों तथा जंगलों में छोटे-छोटे राज्य एवं राजा थे, किंतु उनको कम आदर और सम्मान मिलता था।’
बाबर ने जिन पाँच मुसलमान राज्यों का उल्लेख किया है, वे दिल्ली, गुजरात, बहमनी, मालवा तथा बंगाल हैं। हिंदुओं के दो राज्यों के अंतर्गत वह विजयनगर तथा मेवाड़ के राज्यों का उल्लेख करता है। किंतु इन उपर्युक्त राज्यों के अतिरिक्त भी भारत में अनेक राज्य थे, जिनका उल्लेख बाबर ने नहीं किया है। बाबर के आक्रमण के समय भारत में निम्नलिखित राज्य स्थित थे-
दिल्ली
बाबर के आक्रमण के समय दिल्ली सल्तनत भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य था, लेकिन इसकी सीमाएँ बहुत संकुचित थीं। इस राज्य में पंजाब, ग्वालियर, दिपालपुर, दोआब, जौनपुर, तिरहुत तथा बिहार सम्मिलित थे। बाबर के आक्रमण के समय अफगान सुल्तान इब्राहिम लोदी का शासन था। इब्राहिम में एक योग्य सैनिक के गुण तो थे, लेकिन वह क्रोधी, अहंकारी और संदेही प्रवृत्ति का था। उसने अमीरों पर कठोर नियंत्रण रखने तथा उन्हें अनुशासित करने का प्रयास किया, जिससे अमीरों के साथ उसके संबंध अच्छे नहीं रह गये थे। उसने केवल संदेह के आधार पर राज्य के वरिष्ठ तथा सम्मानित अफगान अमीरों को मरवा दिया। उसकी निर्दयता तथा अत्याचार के कारण अनेक अफगान अमीरों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उसके चाचा आलम खाँ लोदी ने दिल्ली के सिंहासन पर अपने अधिकार का दावा किया और उसे विद्रोही अमीरों का समर्थन भी प्राप्त था।
बिहार में दुरिया खाँ लोहानी, जो दिल्ली सल्तनत के अधीन एक गवर्नर था, विद्रोही अफगान सरदारों को अपने यहाँ शरण देने लगा। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र बहार खाँ लोहानी ने अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया।
इसी प्रकार, जौनपुर में नासिर खाँ तथा मारूफ खाँ फारमूली के नेतृत्व में अफगान दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र होना चाहते थे। इस राजनीतिक अराजकता के दौर में इब्राहिम लोदी के लिए एक विदेशी आक्रांता का सामना करना एक अत्यंत दुष्कर कार्य था।
यद्यपि पंजाब भी दिल्ली सल्तनत का ही एक अधीनस्थ प्रांत था, किंतु वास्तव में यह दिल्ली सल्तनत का नाममात्र का ही अंग था। सुल्तान इब्राहिम लोदी के व्यवहार से असंतुष्ट होकर दौलत खाँ लोदी दिल्ली से अपना संबंध-विच्छेद कर स्वतंत्र होने का प्रयास कर रहा था। उसने 1525 ई. में विद्रोह कर दिया और बाबर को दिल्ली पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया। इस प्रकार भारत का द्वार बाबर जैसों के लिए खुला हुआ था जिसका उसने पूरा लाभ उठाया ।
सिंध और मुल्तान
सुल्तान मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में दिल्ली सल्तनत के विघटन की प्रक्रिया आरंभ हो गई थी और विभिन्न क्षेत्रों में अनेक सरदार अपनी शक्ति को बढ़ाकर दिल्ली से अपना संबंध-विच्छेद कर स्वतंत्र राज्यों की स्थापना करने लगे थे। उसी समय सिंध भी दिल्ली सल्तनत से अलग हो गया तथा यहाँ सुभरा राजवंश की स्थापना हुई थी। किंतु सोलहवीं सदी के आरंभ (1516 ई.) में कंधार के गवर्नर शाह अरघुन ने सिंध पर अधिकार कर लिया और सूमरा राजवंश का पतन हो गया। उसके उत्तराधिकारी शाह हुसैन ने मुल्तान पर भी अधिकार कर लिया। बाबर के आक्रमण के समय सिंध और मुल्तान पर अरघुन वंश का शाह हुसैन राज्य कर रहा था।
कश्मीर
यह पंजाब के उत्तर-पश्चिम में स्थित एक मुस्लिम राज्य था। इस स्वतंत्र राज्य की स्थापना 1339 ई. में शाह मिर्जा ने की थी। जैनुल आबदीन कश्मीर के शासकों में सर्वश्रेष्ठ था। उसके शासनकाल में इस राज्य ने काफी प्रगति की। इसी कारण उसे ‘कश्मीर का अकबर’ कहा जाता है। किंतु 1470 ई. में उसकी मृत्यु के पश्चात् कश्मीर में अव्यवस्था एवं अशांति फैल गई और इस राज्य की शक्ति क्षीण हो गई थी।
मालवा
बाबर के आक्रमण के समय मालवा में खिलजी वंश का महमूद द्वितीय शासन कर रहा था। मालवा फिरोज तुगलक के काल में दिल्ली सल्तनत से पृथक् हो गया और वहाँ के तुगलक सूबेदार दिलावर खाँ गोरी ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करके गोरी राजवंश की स्थापना की थी। 1435 ई. में गोरी वंश के स्थान पर खिलजी वंश की स्थापना की गई थी। महमूद द्वितीय 1512 ई. में गद्दी पर बैठा था। उसके शासनकाल में राज्य की संपूर्ण शक्ति मेदिनीराय के हाथों में थी। उसने राज्य के समस्त उच्च पदों पर राजपूतों को नियुक्त किया। इसका विरोध करने के लिए राज्य के मुस्लिम अमीरों ने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह द्वितीय को मालवा पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस संघर्ष में मेदिनीराय मेवाड़ के राजपूत शासक राणा सांगा की सहायता से विजयी हुआ और महमूदशाह द्वितीय को बंदी बना लिया गया, जिसे बाद में राणा सांगा ने मुक्त कर दिया। इसके बाद भी मालवा और मेवाड़ में संघर्ष चलता रहा] जिससे मालवा की शक्ति कम हो गई थी। बाबर अपनी आत्मकथा ‘तुजुके बाबरी’ में लिखता है कि ‘यहाँ के शासक खिलजी सुल्तान कहलाते हैं। किंतु राणा साँगा ने उसे पराजित करके इस राज्य के अधिकांश भाग पर अपना अधिकार जमा लिया था। अब यह वंश भी शक्तिहीन हो गया था।’
गुजरात राज्य
1401 ई. में गुजरात के गवर्नर जफर खाँ ने दिल्ली सल्तनत से अपना संबंध-विच्छेद कर अपने आपको स्वतंत्र घोषित किया और सुल्तान मुजफ्फरशाह की पदवी धारण की थी। इस प्रकार तैमूर के आक्रमण से उत्पन्न अराजकता की स्थिति का लाभ उठाकर जफर खाँ ने गुजरात में एक स्वतंत्र मुस्लिम राज्य की स्थापना की थी। यद्यपि वहाँ अनेक शक्तिशाली सुल्तानों ने शासन किया, किंतु सुल्तान महमूद बेगड़ा (1458-1511 ई.) इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था। उसने चंपानेर, जूनागढ़ तथा कच्छ को जीतकर राज्य का विस्तार किया और पुर्तगालियों को भी राज्य से बाहर निकालने का प्रयत्न किया। 1511 ई. में महमूद बेगड़ा की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी मुजफ्फरशाह द्वितीय गुजरात का शासक हुआ। उसने इब्राहिम लोदी के चाचा और दिल्ली के सिंहासन के दावेदार आलम खाँ को शरण दिया था। मुजफ्फरशाह द्वितीय को मालवा तथा मेवाड़ के स्वतंत्र राज्यों के साथ संघर्ष करना पड़ा। 1526 ई. में उसकी मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र बहादुरशाह गुजरात का सुल्तान हुआ। उसने बाबर के पुत्र मुगल सम्राट हुमायूँ से युद्ध किया और उसके विरोधी मिर्जाओं को शरण दी थी।
भारत पर तुर्क आक्रमण: महमूद गजनवी
खानदेश
ताप्ती नदी की घाटी में स्थित खानदेश राज्य की स्थापना मलिक राजा फारूकी ने की थी। किंतु आरंभ से ही खानदेश तथा गुजरात के शासकों के मध्य संबंध अच्छे नहीं रहे। इसका कारण गुजरात के सुल्तानों का खानदेश पर अधिकार करने की महत्वाकांक्षा थी। 1508 ई. में खानदेश के सुल्तान दाऊद के पश्चात वहाँ उत्तराधिकार का युद्ध प्रारंभ हो गया और सिंहासन के प्रतिद्वंद्वी दावेदारों ने गुजरात और बहमनी के सुल्तानों की सहायता से सिंहासन पर अधिकार करने का प्रयास किया। अंत में, गुजरात के सुल्तान महमूद बेगड़ा का उम्मीदवार आदिलशाह तृतीय खानदेश के सिंहासन पर बैठा। 1520 ई. में उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र मुहम्मद प्रथम के नाम से सिंहासन पर बैठा जो बाबर के आक्रमण के समय खानदेश का शासक था। उसकी सत्ता नाममात्र की थी और वह गुजरात की अधीनता स्वीकार करता था।
बंगाल राज्य
इस समय बंगाल में हुसैनी वंश का स्वतंत्र राज्य था। सुल्तान अलाउद्दीन हुसैनशाह (1493-1519 ई.) इस वंश का प्रथम सुल्तान था। उसने अपनी योग्यता के बल पर बंगाल की सीमा का विस्तार किया। सुल्तान अलाउद्दीन को दिल्ली के सुल्तान सिकंदर लोदी के साथ भी युद्ध करना पड़ा क्योंकि उसने जौनपुर के हुसैनशाह को शरण दी थी। अंत में, सिकंदर लोदी ने बंगाल के शासक अलाउद्दीन हुसैन की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार कर ली। बाबर का समकालीन बंगाल का शासक अलाउद्दीन हुसैन का पुत्र नुसरतशाह था जो 1519 ई. में गद्दी पर बैठा था। इस योग्य सुल्तान के काल में बंगाल में शांति और समृद्धि बनी रही। वह बंगाली साहित्य का संरक्षक और विद्वानों का आश्रयदाता था।
मेवाड़ राज्य
बाबर के आक्रमण के समय मेवाड़ राजस्थान का एक शक्तिशाली राजपूत राज्य था, जिसकी राजधानी चित्तौड़ थी। बाबर के आक्रमण के समय मेवाड़ में राणा संग्रामसिंह का शासन था, जिसे इतिहास में ‘राणा सांगा’ के नाम से भी जाना जाता है। इस महत्वाकांक्षी महान योद्धा ने अपनी विजयों से मेवाड़ को एक शक्तिशाली राज्य बना दिया था। वह राजपूत शक्ति का आगरा और दिल्ली में भी विस्तार करना चाहता था, इसलिए दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी के साथ उसके संबंध अच्छे नहीं थे। इस राजनीतिक शत्रुता के कारण उसने बाबर को एक पत्र भी लिखा था जिसमें उसने बाबर को भारत आने तथा दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था। बाबर अपनी आत्मकथा में लिखता है कि ‘जब हम लोग काबुल में ही थे, तो राणा सांगा के दूत ने उपस्थित होकर उसकी ओर से निष्ठा प्रदर्शित की थी और यह निश्चय किया था कि सम्मानित बादशाह उस ओर से देहली के समीप पहुँच जाये तो मैं (राणा सांगा) इस ओर से आगरा पर आक्रमण कर दूँगा।’ संभवतः राणा सांगा को आशा थी कि बाबर के आक्रमण से लोदी सल्तनत पूर्ण रूप से दुर्बल हो जायेगी और आगरा, दिल्ली पर राजपूत नियंत्रण स्थापित हो जायेगा।
बहमनी राज्य
दक्षिण भारत में यह राज्य बरार से दक्षिण में कृष्णा नदी तक विस्तृत था। इस स्वतंत्र मुस्लिम राज्य की स्थापना सुल्तान मुहम्मद तुगलक के शासनकाल (1347 ई.) में अलाउद्दीन बहमन शाह ने की थी। इस वंश के शासक क्रूर और धर्मांध थे और उनका दक्षिण के हिंदू राज्य विजयनगर से सदैव युद्ध चलता रहता था। 1481 ई. में प्रधानमंत्री महमूद गवां की हत्या के बाद बहमनी राज्य का विघटन आरंभ हो गया। बहमनी राज्य का अंतिम राजा कलीमुल्लाशाह था जिसकी 1527 ई. में मृत्यु के साथ बहमनी राज्य भी समाप्त हो गया।
बाबर के आक्रमण के समय बहमनी राज्य पाँच स्वतंत्र राज्यों में विभाजित हो चुका था- बरार में इमादशाही राजवंश, अहमदनगर में निजामशाही राजवंश, बीजापुर में आदिलशाही राजवंश, गोलकुंडा में कुतुबशाही तथा बीदर में बरीदशाही राजवंश। इन पाँचों राज्यों में भी पारस्परिक विद्वेष और शत्रुता के कारण अकसर युद्ध होते रहते थे। इस प्रकार बाबर के आक्रमण के समय बहमनी राज्य की शक्ति भी समाप्त हो गई थी।
विजयनगर राज्य
यह राज्य कृष्णा नदी के दक्षिण में था। विजयनगर के स्वतंत्र हिंदू राज्य की स्थापना मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में हरिहर और बुक्का नामक दो भाइयों ने की थी। बाबर अपनी आत्मकथा ‘तुजुके बाबरी’ में जिन दो हिंदू राज्यों का उल्लेख करता है, उनमें विजयनगर राज्य भी एक है। जिस समय बाबर ने भारत पर आक्रमण किया, उस समय विजयनगर में कृष्णदेवराय का शासन था जिसने बहमनी के सुल्तान को पराजित किया था।
प्रारंभ में विजयनगर एक शक्तिशाली राज्य था और पुर्तगाली यात्री पेइज तथा ईरानी राजदूत अब्दुर्ज्जाक ने विजयनगर के वैभव तथा राजा की शक्ति का विवरण दिया है। किंतु बहमनी के सुल्तानों से लगातार संघर्ष में उलझे रहने के कारण उसकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी। बाबर के आक्रमणों के समय विजयनगर एक शक्तिहीन राज्य था ।
इन राज्यों के अतिरिक्त भी सुदूर उत्तर में कश्मीर और पूरब में उड़ीसा के राज्य थे, किंतु इनका भारत की राजनीति में कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं था।
इस प्रकार बाबर के आक्रमण के समय भारत राजनैतिक रूप से विघटित था। दिल्ली सल्तनत की प्रतिष्ठा एवं गौरव का अंत हो चुका था। उत्तरी भारत में अनेक छोटे-छोटे स्वतंत्र राज्य स्थापित हो चुके थे जिनमें पारस्परिक संघर्ष चल रहा था। लगभग यही दशा दक्षिण भारत की भी थी। भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा अरक्षित थी और आक्रमणकारियों को रोकने वाली कोई शक्ति नहीं थी। इसके अलावा, राजनीतिक वैमनस्य, षड्यंत्र और शत्रुता इन राज्यों में व्यापक रूप से फैली चुकी थी। राजनीतिक नैतिकता का स्तर इतने निम्न स्तर पर पहुँच गया था कि दौलत खाँ लोदी और आलम खाँ लोदी ने बाबर को दिल्ली पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया। यह विचित्र बात है कि उत्तर-पश्चिम सीमा की सुरक्षा लोदी सुल्तान का कर्त्तव्य था और उसी के सीमा अधिकारी आक्रमणकारी से आमंत्रित कर रहे थे। बाबर जैसे योग्य, वीर एवं महत्वाकांक्षी सैनिक के लिए यह स्वर्ण अवसर था जिसे वह खोना नहीं चाहता था। दिल्ली, गुजरात एवं मांडू जैसे विशाल राज्यों में ऐसा एक भी उच्चकोटि का शासक नहीं था जो उसके विरुद्ध खड़ा होने में समर्थ होता। राणा सांगा एवं दौलत खाँ के निमंत्रण के बाद बाबर भारतीय विजय के लिए लालायित हो गया। उसके भाग्य ने उसका साथ दिया और उसे भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना का श्रेय प्राप्त हुआ।
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