नादिरशाह का आक्रमण (Nadir Shah’s Invasion)

अठारहवीं सदी में जिस समय परवर्ती मुगलों की अयोग्यता तथा अमीरों की स्वार्थपरता के कारण मुगल साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो रहा था, फारस में दूरगामी घटनाएँ घटित हो रही थीं। फारस की ओर से पश्चिमोत्तर सीमा पर आक्रमण की आशंका सदैव बनी रहती थी। फारस का शक्तिशाली सफवी साम्राज्य का पतनोन्मुख था और उसकी राजधानी इस्फहान पर अफगानों ने कब्जा कर लिया था। फारस को अफगानों से मुक्त कराने वाला नादिर कुली था, जो इतिहास में नादिरशाह के नाम से विख्यात है। इसी नादिर शाह ने भारत पर आक्रमण कर करनाल के युद्ध में मुगलों पराजित कर साम्राज्य खोखलापन पूरी तरह स्पष्ट कर दिया।

नादिरकुली का प्रारंभिक जीवन (Early life of Nadirkuli)

नादिरकुली का जन्म 1688 में उत्तर पूर्वी ईरान के खुरासान में हुआ था। उसका पिता इमामकुली तुर्कमान जाति का एक साधारण किसान था जो भेड़ की खाल से कोट और टोपियाँ सिलकर अपने परिवार का पालन करता था। नादिर कुली को अपना आरंभिक जीवन बड़े कष्ट में बिताना पड़ा क्योंकि बचपन में ही उसके पिता की मृत्यु हो गई थी।

कहा जाता है कि नादिर और उसकी माँ को उज्बेकों (तातारों) ने कैदकर गुलाम बना लिया था। चार वर्ष बंदी जीवन में काटने के बाद नादिर किसी तरह बंदीगृह से भाग निकला और अफ्शार कबीले में शामिल हो गया। कुछ दिनों में ही वह एक सशस्त्र गिरोह का सरदार बन गया और एक स्थानीय प्रधान बाबा अलीबेग की दो बेटियों से विवाह कर लिया।

फारस में नादिरशाह का उत्थान (Nadir Shah’s Rise in Persia)

नादिर ने 1727 ई. में जब निशापुर पर अधिकार कर लिया और अफगानों को वहाँ से बाहर निकाल दिया, तो फारस की जनता ने उसका एक मुक्तिदाता के रूप में स्वागत किया। नादिर में सैनिक योग्यता के साथ-साथ राजनीतिक दूरदर्शिता भी थी। उसने फारस के सिंहासन पर बैठने का विचार नहीं किया, बल्कि सफवी वंश के उत्तराधिकारी शाह तहमास्प का समर्थन किया। शाह तहमास्प ने भी नादिरकुली की प्रतिभा से प्रभावित होकर उसे अपनी सेना में ले लिया। शाह तहमास्प के सेनापति के रूप में नादिर ने अपने सतत सैन्य-अभियानों के बल पर न केवल अफगानों को फारस से निकाला, बल्कि उस्मानियों और रूसियों से भी फारस की रक्षा की। उसके सैनिक अभियानों की सफलता के कारण ही उसे ‘फारस का नेपोलियन’ कहा जाता है।

नादिरकुली की उपलब्धियों से प्रभावित होकर शाह तहमास्प उसको अपना आधा राज्य तो दिया ही, उसे रत्नजड़ित मुकुट के साथ-साथ अपने नाम से मुद्रा चलाने का अधिकार भी प्रदान किया और ‘तहमास्प कुली खान’ (तहमास्प का सेवक) की उपाधि भी दी।

नादिरकुली ने पूरब में अफगानों के विरूद्ध शानदार विजयें दर्ज की, लेकिन शाह तहमास्प पश्चिम में शत्रुओं से पराजित हो गया और उसे नादिर द्वारा जीते हुए कुछ प्रदेश उस्मानियों को लौटाने पड़े। इससे नादिर बड़ा क्षुब्ध हुआ। उसने 1732 ई. में जनता और दरबारियों के सहयोग से तहमास्प के छोटे बेटे अब्बास को गद्दी पर बिठा दिया। 1736 ई. में सफवी वंश के अंतिम सम्राट शाह अब्बास की मृत्यु के पश्चात् नादिरकुली नादिरशाह के नाम से फारस के सिंहासन पर बैठा और खुद को ‘शाह’ घोषित कर दिया।

नादिरशाह के आक्रमण करने के कारण (Due to Nadir Shah’s Invasion)

नादिर शाह एक महत्त्वाकांक्षी शासक था और उसने अपने पड़ोस में अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। पश्चिम की दिशा में संतुष्ट होने के बाद उसने पूरब की ओर ध्यान केंद्रित किया और 1739 ई. में भारत पर आक्रमण किया। भारत पर नादिरशाह केे आक्रमण के कई कारण थे।

एक, नादिरशाह को अपने सैनिक अभियानों को जारी रखने के लिए धन की आवश्यकता थी। वह भारत के अपार धन-संपदा से परिचित था। भारत से लूटा गया धन इस समस्या का हल हो सकता था। इसलिए भारत पर उसके आक्रमण का मुख्य उद्देश्य धन प्राप्त करना था।

दूसरे, मुगल साम्राज्य के विघटन के साथ-साथ उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर सुरक्षा-प्रबंध भी बहुत ढीले हो गये थे। नादिर को मुगल साम्राज्य की सैनिक कमजोरी का ज्ञान था। वह जानता था कि आंतरिक झगड़ों के कारण मुगल शक्ति क्षीण हो चुकी है। बाबर का उदाहरण उसके सामने था और संभवतः मुगल दरबार के कुछ अमीर भी उसे भारत आने का निमंत्रण दिये थे। समकालीन लेखक रुस्तमअली लिखता है कि ‘निजामुल्मुल्क एवं बुरहानुमुल्क ने, जो कि मुगल दल प्रधान थे, ईरानी बादशाह को नवीन साम्राज्य की नींव डालने के लिए आमंत्रित किया क्योंकि मुगलों की कमजोर स्थिति में उन्हें भोंसले और मराठों की सत्ता स्थापित होने का खतरा हो गया था।’

तीसरे, नादिर का एक प्रमुख लक्ष्य कंधार को जीतना था। उसने कंधार के अफगान शासकों को अकेला करने के उद्देश्य से मुगल सम्राट मुहम्मदशाह को पत्र लिखा कि कंधार के अफगान शासकों को काबुल में शरण न दिया जाए। मुहम्मद शाह ने ऐसा विश्वास दिलाया था, किंतु जब 1738 ई. में नादिरशाह ने कंधार पर आक्रमण किया तो वहाँ के कुछ अफगानों ने भागकर गजनी और काबुल में शरण ली थी। नादिरशाह के सैनिकों ने मुगल साम्राज्य की सीमाओं का आदर किया और अफगान भगोड़ों का काबुल और गजनी में पीछा नहीं किया।

चौथे, नादिरशाह ने भगोड़े अफगानों के बारे में मुगल सम्राट से स्पष्टीकरण के लिए अपना दूत दिल्ली भेजा। किंतु किंतु मुगल सैनिकों ने जलालाबाद में दूत और उसके साथियों की हत्या कर दी। नादिरशाह ने इसे कूटनीतिक अभद्रता माना और इसी को भारत पर आक्रमण का कारण बना लिया।

तात्कालिक कारण: नादिर के भारत पर आक्रमण का तात्कालिक कारण क्षतिपूर्ति की माँग थी। 1737 ई. में कंधार विजय के बाद उसने मुगल सम्राट से एक करोड़ रुपया क्षतिपूर्ति के रूप में माँगा था। उसने यह भी याद दिलाया था कि हुमायूँ ने ईरानी सहायता के बदले प्रतिवर्ष धन देने का वादा दिया था, जो मुगल बादशाह ने नहीं दिये थे। इस माँग का जवाब पाने के लिए नादिरशाह का दूत एक साल तक मुगल दरबार में रहा और मुगल सम्राट बराबर टाल-मटोल करता रहा। अंततः नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया।

नादिरशाह का भारत पर आक्रमण (Nadir Shah invaded India)

नादिरशाह ने सदैव यह प्रदर्शित किया था कि वह मुगल सम्राट का मित्र और शुभचिंतक था। उसने घोषणा की कि वह मुगल साम्राज्य को दक्षिणी काफिरों (मराठों) से बचाने और अफगानों को दंड देने के लिए जा रहा है।

नादिर ने 11 जून, 1738 ई. को गजनी नगर में प्रवेश किया और 29 जून, 1738 ई. को काबुल पर अधिकार कर लिया। इसके बाद खैबर दर्रा पार करके वह पेशावर पहुँचा। पेशावर के मुगल हाकिम नासिर खाँ ने बिना किसी प्रतिरोध के समर्पण कर दिया। उसके क्षमा-याचना करने पर नादिर ने उसे काबुल और पेशावर का गर्वनर नियुक्त कर दिया। इसके बाद आगे बढ़ते हुए नादिरशाह ने अटक के स्थान पर सिंधु नदी को पारकर लाहौर में प्रवेश किया।

लाहौर के मुगल गर्वनर जकारिया खाँ के पास पर्याप्त शक्ति नहीं थी और मुगल सम्राट से भी उसे कोई सहायता नहीं मिली। फलतः उसने भी बिना युद्ध किये आत्म-समर्पण कर दिया और 20 लाख रुपये तथा अपने हाथी को नजराने में देकर लाहौर का गर्वनर पद प्राप्त कर लिया।

पंजाब में अपना प्रतिनिधि नियुक्त करके नादिरशाह 16 फरवरी, 1739 ई. को सरहिंद पहुँचा। वहाँ से अंबाला, अजीमाबाद होते हुए उसने करनाल की ओर कूच किया, जहाँ उसका मुगल सेना के साथ युद्ध हुआ।

मुगल सम्राट ने काबुल या पंजाब में न तो कोई सैनिक सहायता भेजी और न ही आक्रमणकारी को रोकने का कोई प्रया किया। अभी मुगल दरबार कुछ अमीर यह मानकर चल रहे थे कि पंजाब पर अधिकार करने के बाद शाह वापस चला जायेगा। लेकिन जब नादिर दिल्ली की ओर बढ़ा तो सबके हाथ-पाँव फूल गये। आनन-फानन में मुगल सम्राट ने मराठों, राजपूतों, अफगानों सबसे सहायता माँगी, लेकिन किसी ने भी सहायता देने में कोई रुचि नहीं दिखाई। दरबार के अमीरों में भी एकता नहीं थी। निजामुल्मुल्क के पास 2,000-3,000 पैदल सैनिक थे, लेकिन उसे दक्षिण में अपने राज्य की चिंता थी। खाने-दौराँ मराठों की सहायता लेने के लिए जोर दे रहा था। अवध के नवाब सआदतखाँ को बुलाया गया। सेनापति के प्रश्न पर भी मतभेद था और अंत में सम्राट मुहम्मदशाह को स्वयं सेनापति का पद सँभालना पड़ा।

करनाल का युद्ध, 1739 ई. (Battle of Karnal, 1739 AD)

नादिरशाह के तीव्रगामी आक्रमण से मुगल सम्राट घबड़ा गया। मुगलों के पास कार्यवाही की कोई निश्चित योजना नहीं थी और न ही कोई निश्चित नेता था। मुगल सम्राट निजामुलमुल्क, कमरुद्दीन तथा खान-ए-दौराँ के साथ 80,000 की सेना लेकर आक्रमणकारी का मुकाबला करने के लिए चल पड़ा। शीघ्र ही अवध का नवाब सआदत खाँ भी उससे मिल गया। मुगलों की दुर्बलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सम्राट को यह मालूम ही नहीं था कि आक्रमणकारी कहाँ है। उसे आक्रांता का पता तब चला जब नादिरशाह के अग्रिम दस्ते के सैनिकों ने सआदत खाँ की संभरण गाड़ियों पर आक्रमण कर दिया।

24 फरवरी, 1739 ई. को नादिरशाह और मुहम्मदशाह के बीच करनाल का युद्ध लड़ा गया। शाह को इस अव्यवस्थित सेना का सामना करने में कोई कठिनाई नहीं हुई और तीन घंटे में ही युद्ध का निर्णय हो गया। नादिर की सेना मुग़लों के मुकाबले छोटी थी, किंतु अपने बारूदी अस्त्रों के कारण फ़ारसी सेना जीत गई। युद्ध में खान-ए-दौराँ घायल हुआ, जबकि सआदत खाँ बंदी बना लिया गया।

नादिरशाह से संधि-वार्ता और मुगल दरबारियों की स्वार्थपरता (Treaty Negotiations with Nadir Shah and Selfishness of Mughal Courtiers)

नादिरशाह का आक्रमण (Nadir Shah's Invasion)
मुहम्मदशाह और नादिरशाह

नादिरशाह को बड़ी सरलता से विजय प्राप्त हो गई थी। सआदतखाँ की सलाह पर दकन से निजामुलमुल्क को बुलाया गया और धन देने के लिए वार्ता प्रारंभ हुई। नादिरशाह ने बीस करोड़ रुपये की मॉँग की, किंतु अंत में निश्चित हुआ कि सम्राट शाह को पचास लाख रुपया देगा, 20 लाख तुरंत और 10-10 लाख की तीन किश्तें लौटते हुए लाहौर, अटक और काबुल में। इसी बीच घायल खाने-दौराँ की मृत्यु हो गई जिससे मीरबख्शी का पद खाली हो गया। मुगल सरदारों ने स्वार्थभाव तथा आपसी द्वेष का जो रूप इस समय दिखाया, वह शायद भारत के इतिहास में कभी देखने को नहीं मिला। अंत में सम्राट ने निजामुलमुल्क को मीरबख्शी के पद पर नियुक्त कर दिया।

सआदत खाँ स्वयं मीरबख्शी बनना चाहता था, किंतु जब वह इस पद से वंचित हो गया, तो उसने नादिरशाह से भेंटकर कहा कि आप दिल्ली पर आक्रमण करें तो आपको 20 लाख नहीं, 20 करोड़ मिल सकता है। नादिरशाह को मुगल राजनीति का आभास निजाम से पहले ही मिल चुका था। उसने निजाम से पूछा था कि आप जैसे वीर योद्धाओं के रहते मराठे मुगल साम्राज्य का इतना बड़ा भाग कैसे जीत सके थे, तो निजाम ने स्पष्ट बता दिया था कि दरबार की गुटबंदी के कारण ही यह सब हुआ है, इसलिए वह दुःखी होकर दकन चला गया था।

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दिल्ली पर फारसी शासन (Persian Rule over Delhi)

नादिरशाह का आक्रमण (Nadir Shah's Invasion)
दिल्ली में मयूर सिंहासन पर बैठे हुए नादिरशाह

नादिरशाह ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया और वह 20 मार्च, 1739 ई. को दिल्ली पहुँच गया। दिल्ली में नादिरशाह के नाम का खुतबा पढ़ा गया और उसके नाम के सिक्के जारी किये गये। मुगल राज्य समाप्त हो गया और फारसी राज्य आरंभ हो गया।

दिल्ली की लूट और कत्लेआम (Delhi’s Loot and Slaughter)

सम्राट नादिरशाह से संधि की वार्ता कर रहा था। तभी 22 मार्च, 1739 ई. को दिल्ली में नादिर के सैनिकों और गल्ले के व्यापारियों के बीच झगड़ा हो गया। इस बीच नगर अफवाह फैली कि नादिरशाह मर गया है जिससे दिल्ली में भगदड़ मच गई और फारसी सेना के 700 सैनिक मार दिये गये। इससे क्रोधित होकर नादिरशाह ने कत्लेआम की आज्ञा दे दी। यह नरसंहार पाँच घंटे तक चलता रहा जिसमें 20,000-22,000 लोग मारे गये। अंत में मुहम्मदशाह, वजीर कमरुद्दीन और निजाम के निवेदन पर यह आज्ञा वापस ली गई।

नादिरशाह दिल्ली में 57 दिन तक रहा और दिल्ली को जी भरकर लूटा। उसने सआदत खाँ से 20 करोड़ रुपये की माँग की। इस माँग को पूरा न कर पाने के कारण सआदत खाँ ने विष खाकर आत्महत्या कर ली। सआदत खाँ के उत्तराधिकारी सफदरजंग ने 2 करोड़ रुपया दिया। नादिर ने लगभग 30 करोड़ रुपया नगद और ढेर सारा सोना, चाँदी, हीरे-जवाहरात आदि प्राप्त किया। फ्रेजर का कहना है कि वह करीब 70 करोड़ का माल भारत से लूटकर ले गया, जिसमें शाहजहाँ का तख्त-ए-ताऊस और प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भी था। नादिर का मुख्य उद्देश्य अपनी सेना के लिए आवश्यक धनराशि इकठ्ठा करनी थी, जो उसे मिल गई थी। कहते हैं कि दिल्ली से लौटने पर उसके पास इतना धन हो गया था कि अगले तीन वर्षों तक उसने जनता से कोई कर नहीं लिया था।

नादिरशाह की वापसी (Return of Nadir Shah)

प्रस्थान के पूर्व नादिरशाह ने मुहम्मदशाह को अपने हाथ से मुकुट पहनाया, मुगल साम्राट घोषित किया और खुत्बा पढ़ने तथा सिक्के जारी करने का अधिकार पुनः लौटा दिया। मुगल सम्राट ने अपनी पुत्री का विवाह नादिरशाह के पुत्र नासिरुल्लाह मिर्जा से कर दिया। इसके अतिरिक्त, मुहम्मद शाह ने सिंधु नदी के पश्चिम की सारी भूमि भी नादिरशाह को दान दे दिया तथा बीस लाख रुपया वार्षिक कर देने का वादा किया। सम्राट ने यह वचन भी दिया कि नादिरशाह की सिंध के पार सेना को शिकायत का काई अवसर नहीं मिलेगा। नादिरशाह ने अमीरों को सम्राट की आज्ञा मानने का आदेश दिया और आवश्यकता पड़ने पर दिल्ली की सैनिक सहायता का वादा किया।

वापसी में नादिरशाह को अनेक कठिनाइयों का समाना करना पड़ा। मार्ग में उसे पंजाब के जाटों और सिखों ने बहुत परेशान किया और उसका कुछ सामान भी लूट लिया। लूट का यह धन अधिक समय तक उसके कोष में नहीं रहा। 19 जून 1747 में मशहद के निकट उसके अपने ही अंगरक्षकों ने नादिरशाह की हत्या कर दी और उसका साम्राज्य जल्द ही तितर-बितर हो गया।

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नादिरशाह के आक्रमण के परिणाम (Results of Nadir Shah’s Invasion)

नादिरशाह का आक्रमण मुगल साम्राज्य के लिए भीषण आघात था। इस आक्रमण से आर्थिक हानि के साथ साम्राज्य के पतन की गति तेज हो गई। इस आक्रमण से देश को भीषण आर्थिक क्षति उठानी पड़ी। नादिरशाह लगभग 30 करोड़ रुपया नकद एवं सोना चाँदी, हीरे-जवाहरात के साथ 100 हाथी, 7000 घोड़े, 10,000 ऊँट, 100 हिजड़े, 130 लेखपाल, 200 अच्छे लोहार, 300 राजगीर, 100 संगतराश और 200 बढ़ई भी ले गया। वह मयूर सिंहासन और कोहिनूर हीरा भी ले गया।

आक्रमण से मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा धूल में मिल गई। मुगल सम्राट पूर्ण रूप से शक्तिहीन हो गया और स्थानीय शासक स्वतंत्र शासकों की भाँति व्यवहार करने लगे।

नादिरशाह के आक्रमण से मुगल साम्राज्य का खोखलापन स्पष्ट हो गया जिससे मराठों की महत्वाकांक्षाओं में वृद्धि हुई और मुगल अमीर भी यह अनुभव करने लगे कि मुगल साम्राज्य को बचाने के लिए मराठों से सहयोग लेना आवश्यक है।

शक्तिशाली मुगल साम्राज्य ने यूरोपियनों पर नियंत्रण रखा था। मुगल साम्राज्य का खोखलापन स्पष्ट होने से उनकी महत्वकांक्षाओं में वृद्धि हुई। वे सुरक्षा के नाम पर सैनिक एकत्रित करने लगे और अपने केंद्रों की किलेबंदी करने लगे। यद्यपि नादिरशाह का आक्रमण मुगल साम्राज्य के पतन का कारण नहीं था, किंतु यह आघात इतना भीषण था कि मुगल सत्ता का सम्मान नष्ट हो गया और प्रांतीय अधिकारी पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो गये।

पंजाब और सिंधु क्षेत्र के पृथक् हो जाने से उत्तर-पश्चिम सीमा की सुरक्षा का प्रश्न गंभीर हो गया। नादिरशाह ने युद्ध में हल्की तोपों, जजायत, रहकला, शीघ्र चलनेवाली बंदूकों का प्रयोग किया था। यह सामरिक प्रणाली में परिवर्तन था। दुर्भाग्य से मराठों ने इस परिवर्तन से कुछ नहीं सीखा और वे सामरिक दृष्टि से पीछे रह गये। रुहेलों ने इस पर ध्यान दिया और मराठों के विरुद्ध इसका प्रयोग किया।

<दिल्ली सल्तनत : गुलाम वंश 

दिल्ली सल्तनत: सैय्यद और लोदी वंश, 1414-1450 ई. 

अठारहवीं शताब्दी में भारत

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