कुलोत्तुंग चोल द्वितीय, कुलोत्तुंग (प्रथम) का पौत्र और विक्रमचोल का पुत्र था। इसके पिता विक्रमचोल ने इसको 1133 ई. में ही युवराज बना दिया था, क्योंकि इसके अभिलेखों में इसके शासन की गणना इसी वर्ष से की गई है। 1135 ई. में विक्रमचोल की मृत्यु के बाद कुलोत्तुंग द्वितीय चोल राजगद्दी पर बैठा।
कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150 ई.) के लेख दक्षिण अर्काट, चिंगलेपुट, तंजोर, तिरुचिरापल्ली, कडप्पा, कृष्णा तथा गोदावरी जिलों से मिले हैं, जिनमें इसके शासनकाल की अतिरंजित प्रशंसा की गई है।
इतिहासकारों का अनुमान है कि इसके शासनकाल में चोल राज्य में सामान्यतया शांति और समृद्धि बनी रही। किंतु डी.सी. गांगुली का मानना है कि कुलोत्तुंग द्वितीय को अपने शासन के अंतिम दिनों में कल्याणी के चालुक्य शासक जगदेकमल्ल के साथ संघर्ष करना पड़ा था, जिसमें कुलोत्तुंग द्वितीय को सफलता मिली थी।

कुलोत्तुंग द्वितीय का शासनकाल राजनीतिक दृष्टि से तो नहीं, किंतु साहित्यिक एवं कलात्मक दृष्टि से प्रगति एवं विकास का काल माना जाता है। इसने तमिल साहित्य को प्रोत्साहन दिया, जिसके फलस्वरूप कई तमिल ग्रंथों का प्रणयन किया गया। इसने ‘पेरियपुराण’ के लेखक शेक्किलार, कुलोत्तुंग शोलन-उला के लेखक ओट्टाकुट्टन एवं कंबल जैसे लेखकों को संरक्षण दिया था।
कुलोत्तुंग द्वितीय व्यक्तिगत रूप से शैव धर्म का अनुयायी था। इसके लेखों तथा कुलोत्तुंग चोलन उला के लेखों से पता चलता है कि इसने अपने पिता विक्रमचोल द्वारा शुरू किये गये चिदंबरम् के प्रसिद्ध मंदिर के नवीनीकरण और विस्तार के कार्य को पूरा करवाया था। इसी क्रम में इसने चिदंबरम् के नटराज के मंदिर के आँगन में प्रतिष्ठित गोविंदराज विष्णु की मूर्ति को समुद्र में फेंकवा दिया था। कहा जाता है कि रामानुज ने इस मूर्ति को समुद्र में से निकलवाकर तिरुपति में प्रतिष्ठित किया था। बहुत दिनों बाद विजयनगर के रामराय ने उस मूर्ति को अपने मूल स्थान पर पुनः प्रतिष्ठित किया था।
कुलोत्तुंग द्वितीय के एक लेख में कहा गया है कि इसके मुकुट पहनने से तिल्लैनगर की शोभा बढ़ जाती थी। इसका आशय संभवतः चिदंबरम् नगर में इसके अभिषेक कराये जाने से है। शिलालेखों में इसकी दो रानियों- पटरानी त्यागवलि और मुक्कोक्किलान का उल्लेख मिलता है।
कुलोत्तुंग द्वितीय ने अनपाय, तिरुनीर्रुच्चोल, जैसी उपाधियाँ धारण की थी। इसने संभवतः 1150 ई. तक शासन किया था, यद्यपि डी.सी. गांगुली जैसे कुछ इतिहासकार इसका शासनकाल 1152 ई. तक मानते हैं।
कुलोत्तुंग द्वितीय ने अपने शासनकाल में 1146 ई. में अपने पुत्र राजाधिराज द्वितीय को युवराज नियुक्त कर दिया था, जो 1150 ई. में इसकी मृत्यु के बाद चोल राज सिंहासन पर आसीन हुआ।
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