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सत्याश्रय, 997-1008 ई. (Satyasraya, 997-1008 AD.)
तैलप द्वितीय के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र सत्याश्रय 997 ई. में राजा हुआ। उसने ‘आहवमल्ल’, ‘अकलंकचरित्र’ तथा ‘इरिवबेडंग’ (शत्रुओं का भेदन करने में अद्वितीय) जैसे विरुद धारण किये। उसे ‘सत्तिग’ तथा ‘सत्तिम’ भी कहा गया है।
सत्याश्रय की विजयें और उपलबिधयाँ (Satyashray’s Victories and Achievements)
सत्याश्रय भी अपने पिता के समान महत्वाकांक्षी एवं साम्राज्यवादी शासक था। राजा बनने के बाद उसने अपना विजय-अभियान प्रारंभ किया। सर्वप्रथम उसने उत्तरी कोंकण के शिलाहारवंशी शासक अपराजित मृगांक को पराजित कर उसे सामुद्रिक क्षेत्र में शरण लेने के लिए विवश कर दिया, अंशुनगर को जला दिया और शिलाहार सेना के 21 हाथियों को अपहृत कर लिया।
इसके बाद उसने गुर्जरनरेश की ओर ध्यान दिया। उसका समकालीन गुर्जरराज मूलराज का पुत्र चामुंडराज (997-1006 ई.) था। 1007 ई. के लक्कुडि लेख तथा रन्न के ‘गदायुद्ध’ से पता चलता है कि सत्याश्रय ने गुर्जर राज्य को आक्रांत कर चालुक्य चामुंडराज को पराभूत किया। इन विजयों के परिणामस्वरूप समुद्रपर्यंत समस्त भू-भाग चालुक्य साम्राज्य में सम्मिलित हो गया और शिलाहार शासक चालुक्यों के सामंत बन गये
चालुक्य राजवंश (Chalukya Dynasty)
चोलों से संघर्ष: सत्याश्रय को अपने राज्यकाल में चोल शासक राजराज प्रथम के भयंकर आक्रमण का सामना करना पड़ा। चोल नरेश राजराज ने संपूर्ण दकन तथा लंका पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के बाद गंगवाडि, नोलंबवाडि पर अधिकार कर लिया था। इस प्रकार दक्षिण में राजराज और उत्तर में सत्याश्रय दोनों अपनी-अपनी शक्ति के विस्तार में संलग्न थे। इसलिए दोनों के बीच संघर्ष होना अनिवार्य था। वास्तव में दोनों के बीच कटुता का मुख्य कारण वेंगी का राज्य था क्योंकि दोनों ही आंध्र क्षेत्र में अपना-अपना प्रभाव स्थापित करना चाहते थे। इस समय वेंगी में दानार्णव के दोनों पुत्र-शक्तिवर्मा तथा विमलादित्य चोल नरेश राजराज के यहाँ शरणार्थी थे। अंततः 999-1000 ई. में राजराज ने वेंगी पर आक्रमण कर जयचोड भीम को अपदस्थ कर शक्तिवर्मा को वेंगी की गद्दी पर बैठा दिया। एक तमिल शक्ति द्वारा दक्षिण तथा पूरब से कर्णाटक राज्य को घेरने की कोशिश से सत्याश्रय का क्रोधित होना स्वाभाविक था और उसने वेंगी पर आक्रमण कर दिया।
वेंगी पर सत्याश्रय के आक्रमण की प्रतिक्रिया में चोल शासक राजराज ने अपने पुत्र युवराज राजेंद्र के नेतृत्व में एक विशाल सेना चालुक्य प्रदेशों पर आक्रमण करने के लिए भेजी। 1007-008 ई. के होट्टूर लेख से ज्ञात होता है कि युवराज राजेंद्र ने 9 लाख सैनिकों की विशाल सेना के साथ चालुक्य राज्य के दक्षिणी प्रदेशों को जीता, ऊकल्लु (धारवाड़ जिले में उंकल) के दुर्ग को अधिकृत किया और दोनवुर (बीजापुर जिले में आधुनिक दोनूर) में सैनिक शिविर लगाया। उसने चालुक्य नरेश को पराजित कर न केवल उसकी अतुल धन-संपत्ति लूटी, वरन् स्त्रियों, बालकों एवं ब्राह्मणों आदि की निर्मम हत्या की और स्त्रियों को बंदी बनाकर उनका सतीत्व भंग किया। इसकी पुष्टि राजराज के तंजौर लेख तथा राजेंद्र के लेखों से भी होती है।
तंजौर लेख में कहा गया है कि चालुक्यों से अपहृत की गई संपत्ति तंजौर के मंदिर को समर्पित कर दी गई थी। राजेंद्र के आरंभिक लेखों में भी कहा गया है कि उसने अपनी विशाल सेना की सहायता से इदितुरै-नाडु (रायचूर दोआब), बनवासी (कदंबों की राजधानी), कोल्लिपाके (आधुनिक हैदराबाद के उत्तर में स्थित कुलपक) तथा मण्णैक्कडक्कम् (मान्यखेट) पर अधिकार कर लिया। यह निर्णायक संघर्ष संभवतः तावरेयघट्ट नामक स्थान पर हुआ था। इस प्रकार सत्याश्रय की इस पराजय के परिणामस्वरूप चालुक्यों के कई नगर, जिनमें उनकी राजधानी मान्यखेट भी थी, चोलों के अधिकार में आ गये।
बादामी का चालुक्य वंश: आरंभिक शासक (Chalukya Dynasty of Badami: Early Rulers)
किंतु सत्याश्रय अपनी पराजय से निराश नहीं हुआ। उसने शक्ति-संचय कर एक बार पुनः चोलों के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया और चोल सेनापति चंदरिन को युद्ध में मार डाला। इसके बाद उसने चोल राजराज को पराजित कर पीछे खदेड़ दिया और चोलों की संपत्ति अपहृत कर ली। इसके पश्चात् सत्याश्रय ने अपने दक्षिण पड़ोसियों के विरूद्ध सैन्याभियान किया और आंध्र राज्य के आधुनिक करनूल तथा गुंटूर जिले तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया। इसकी पुष्टि 1006 ई. के बपतल लेख से होती है।
परमार और कलचुरियों से संघर्ष: चोलों के साथ-साथ सत्याश्रय को परमार शासक सिंधुराज तथा कलचुरि कोकल्ल से भी पराजित होना पड़ा था। तैलप द्वितीय ने परमार मुंज को पराजित कर परमारों के कई प्रदेशों को जीत लिया था। मुंज के बाद उसके छोटे भाई सिंधुराज ने अवसर मिलते ही सत्याश्रय पर आक्रमण कर तैलप द्वारा अपहत किये गये प्रदेशों को पुनः अधिकृत कर लिया। संभवतः दक्षिण में व्यस्त होने के कारण सत्याश्रय इस ओर ध्यान नहीं दे सका।
त्रिपुरी के कलचुरि शासक कोकल्ल द्वितीय ने भी दावा किया है कि उसने प्रतिहार राज्यपाल, गौड़ महीपाल तथा कुंतलाधिपति को पराजित किया था और कुंतल के राजा को बनवास के लिए बाध्य कर दिया था। ‘बनवास’ से तात्पर्य बनवासी से है जो चालुक्य राज्य में स्थित था और ‘कुंतलाधिपति’ संभवतः सत्याश्रय ही था। इस प्रकार सत्याश्रय को कलचुरियों से पराजित होना पड़ा था।
सत्याश्रय के सामंत: सत्याश्रय के सामंतों में बनवासी के शासक भीमरस तथा पुरिगिरे के शासक शोभनरस व कुंदमरस तथा कोंकण के शिलाहारवंशीय शासक रट्टराज के नाम मिलते हैं। इनमें कुंदमरस सबसे महत्वपूर्ण और शक्तिशाली था। कुछ इतिहासकार इसे सत्याश्रय का पुत्र मानते हैं जिसे अपदस्थ कर विक्रमादित्य पंचम् ने सत्ता प्राप्त की थी। किंतु यह मत स्वीकार्य नहीं है। सत्याश्रय की पुत्री महादेवी का विवाह नोलंब के पल्लव शासक इरिवनो लंबाधिराज के साथ हुआ था। महादेवी को विक्रमादित्य के अलूर लेख में तैलप की पौत्री, सत्याश्रय की पुत्री तथा विक्रमादित्य की भगिनी (तग्मे) कहा गया है।
सत्याश्रय जैन धर्म का अनुयायी था तथा इसका गुरु विमलचंद्र जैन दर्शन का प्रसिद्ध विद्वान् था। यह विद्वानों का उदार संरक्षक भी था। कन्नड़ काव्य ‘गदायुद्ध’ के लेखक रन्न इसके आश्रित थे। सत्याश्रय ने लगभग 1008 ई. तक राज्य किया।
पुलकेशिन् द्वितीय, 610-642 ई. (Pulakeshin II, 610-642 AD)
विक्रमादित्य पंचम, 1008-1015 ई. (Vikramaditya V, 1008-1015 AD.)
सत्याश्रय की मृत्यु के पश्चात् उसके भाई दशवर्मा का ज्येष्ठ पुत्र (भतीजा) विक्रमादित्य पंचम 1008 ई. में चालुक्य राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित हुआ। दशवर्मा के दो अन्य पुत्र अय्यण द्वितीय और जयसिंह द्वितीय थे। यह मानना सही नहीं है कि विक्रमादित्य पंचम ने सत्याश्रय के पुत्र कंदमरस को अपदस्थ कर सिंहासन प्राप्त किया था क्योंकि कंदमरस के सत्याश्रय के पुत्र होने की बात संदिग्ध है। जो भी हो, विक्रमादित्य पंचम ने मात्र छः या सात वर्ष ही शासन किया और ‘त्रिभुवनमल्ल’ तथा ‘वल्लभनरेंद्र’ की उपाधियाँ धारण की थी।
कौथेम लेख विक्रमादित्य के शासनकाल का पहला लेख है जिसमें उसे यशस्वी और दानशील शासक बताया गया है। यद्यपि इसकी किसी विशेष उपलब्धि का ज्ञान नहीं है, किंतु उसके सेनानायक केशवजिय ने कोशल (दक्षिण कोशल) पर विजय प्राप्त करने का दावा किया है। कोशल का शासक संभवतः सोमवंशीय भीमरथ महाभवगुप्त द्वितीय रहा होगा।
विक्रमादित्य के समय में कुंदमरस बनवासी एवं शांतिलगे का उपराजा था, जबकि दंडनायक बेलवोला तथा पुरिगिरे का सामंत था। 1010 ई. के एक अभिलेख के अनुसार उसकी बहिन अक्कादेवी, किसुकाड पर शासन कर रही थी। अक्कादेवी को ‘लक्ष्मी का अवतार’ कहा गया है जिसने अनेक पुण्य अवसरों पर बाह्मणों को दान दिया था। विक्रमादित्य ने 1015 ई. तक शासन किया।
अय्यण द्वितीय, 1015 ई. (Ayyan II, 1015 AD.)
विक्रमादित्य पंचम की मृत्यु के बाद 1015 ई. में उसका अनुज अय्यण द्वितीय चालुक्य सिंहासन पर बैठा। इसने मात्र एक या दो महीने तक ही शासन किया। इसका अभी तक कोई लेख नहीं मिला है। जयसिंह द्वितीय के लेखों में इसकी प्रारंभिक तिथि 1015 ई. ही ज्ञात होती है।
जयसिंह द्वितीय, 1015-1042 ई. (Jai Singh II, 1015-1042 AD.)
अय्यण द्वितीय के अल्पकालीन शासन के बाद विक्रमादित्य का भाई जयसिंह द्वितीय (सिंहदेव) 1015 ई. में चालुक्य सिंहासन पर बैठा। उसने ‘सिंगदेव’, ‘जगदेकमल्ल’, ‘त्रैलोकमल्ल’, ‘मल्लिकामोद’ तथा ‘विक्रमसिंह’ आदि उपाधियाँ धारण की थी।
जयसिंह की विजयें और उपलब्धियाँ (Jai Singh’s Victories and Achievements)
जयसिंह को अपने शासनकाल में निरंतर संघर्षों में व्यस्त रहना पड़ा। उसके राज्यारोहण के कुछ वर्ष बाद ही परमार भोज, कलचुरि गांगेयदेव तथा चोल राजेंद्र ने एक संघ बनाकर जयसिंह के विरूद्ध विभिन्न दिशाओं से अभियान शुरू किया। जयसिंह ने इन सभी शत्रुओं को पराजित कर अपने राज्य से खदेड़ने का दावा किया है।
परमारों का आक्रमण: तैलप द्वितीय के समय से ही परमारों की चालुक्यों से शत्रुता चली आ रही थी। पता चलता है कि 1020 ई. के आसपास परमार शासक भोज ने चालुक्यों के कुछ उत्तरी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया और उत्तरी कोंकण को विजित करने के उपलक्ष्य में उत्सव मनाया था। भोज के सामंत यशोवर्मा के कुलवन ताम्रपत्रों तथा भोजचरित से पता चलता है कि भोज ने कर्णाट, लाट और कोंकण पर विजय प्राप्त की थी। 1020 ई. या उसके बाद के भोज के लेखों से पता चलता है कि उसने बादामी तथा मान्यखेट से आये बाह्मणों को दान दिया था। इन साक्ष्यों से स्पष्ट है कि परमार भोज ने चालुक्य जयसिंह को पराजित कर चालुक्य राज्य के उत्तरी भागों पर अधिकार कर लिया था।
किंतु भोज की यह सफलता स्थायी न रह सकी। 1019 ई. के बेलगाँव अनुदानपत्र में जयसिंह की उपाधि ‘नृपतिभोजकमलचंद्र’ मिलती है और उसे सप्तमालवों का विजेता तथा उनके अभिमान को नष्ट करने वाला कहा गया है। 1024 ई. के मीरज ताम्रपत्रों के अनुसार जयसिंह द्वितीय ने परमार भोज को पराजित किया और कोंकण राज्य पर अधिकार कर कोल्हापुर के निकट अपना सैनिक शिविर लगाया था। उसके सहयोगी कदंबवंशीय चट्टगि (चट्ट) ने मालवा शासक को भगा दिया और गौतम गंगे (गोदावरी) जल में स्नान किया। चट्टगि की सेवाओं से प्रसन्न होकर जयसिंह ने उसे ‘अधीत्यकापाल’ की उपाधि से विभूषित किया था। जयसिंह के दूसरे सेनानायक कुंदमरस के बारे में भी कहा गया है कि उसने भोज के हाथियों को कुचल दिया था। इस प्रकार चालुक्य जयसिंह शीघ्र ही अपने सामंतों की सहायता से भोज द्वारा अधिकृत चालुक्य प्रदेशों को मुक्त कराने में सफल रहा।
चोलों के साथ युद्ध: जयसिंह द्वितीय का सबसे बड़ा शत्रु राजेंद्र चोल था। इस चालुक्य-चोल संघर्ष के कई कारण थे। एक तो, जयसिंह ने अपने राज्यारोहण के बाद उन प्रांतों पर अधिकार करने का प्रयास किया जो सत्याश्रय के समय में चोलों के अधिकार में चले गये थे। दूसरे, वेंगी के सिंहासन के लिए विमलादित्य के चोल राजकुमारी कुंदवैदेवी से उत्पन्न पुत्र राजराज नरेंद्र और सौतेले पुत्र विजयादित्य सप्तम् के बीच चलने वाला सत्ता-संघर्ष था। चालुक्य-चोल दोनों ही वेंगी के बहाने आंध्र में अपना प्रभाव-विस्तार करना चाहते थे।
संघर्ष की शुरूआत उस समय हुई जब जयसिंह ने राजेंद्र चोल की दक्षिण में व्यस्तता का लाभ उठाकर विजयादित्य सप्तम् की सहायता के बहाने न केवल रायचूर दोआब वापस ले लिया, बल्कि तुंगभद्रा पार कर दक्षिण में बेलारी तक और संभवतः गंगवाडि में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। अपदस्थ राजराज नरेंद्र ने भाग कर चोलों से सहायता की याचना की।
दक्षिण से निपटने के बाद राजेंद्र चोल ने दो सेनाएँ भेजी-एक सेना गंगावाडि, नोलंबवाडि तथा इडैतुरैवाडु (रायचूर दोआब) की ओर बढ़ी और दूसरी राजराज की सहायता के लिए वेंगी गई।
राजेंद्र चोल के 1021 ई. राजकीय तमिल प्रशस्ति में कहा गया है कि उसने मुशंकि (मास्की) के युद्ध में जयसिंह को पराजित कर तुंगभद्रा के उत्तर में भगा दिया, उसके साढ़े सात लाख के कोष को अपहृत कर लिया और पट्टपाडि पर अधिकार कर लिया। तिरूवालंगाडु लेख में भी राजेंद्र प्रथम को तैल वंश का विनाशक कहा गया है। अनंतपुर जिले के कोट्शिवरम् से प्राप्त 1022 ई. के कई तमिल और कन्नड़ लेखों में एक चोल सेनापति को ‘जयसिंहकुलकाल’ कहा गया है। इन स्रोतों से लगता है कि चालुक्यों तथा चोलों में मुशंगी, गंग तथा वेंगी प्रदेशों में कई युद्ध हुए जिसमें जयसिंह को पराजित होकर भागना पड़ा और राजराज नरेंद्र को वेंगी की गद्दी मिल गई।
किंतु मीरज ताम्रपत्रों से पता चलता है कि 1024 ई. के पहले चालुक्य जयसिंह ने न केवल चोलों को चालुक्य राज्य से बाहर खदेड़ दिया, बल्कि राजेंद्र चोल का गंगवाड़ी तथा चेर राज्य तक पीछा भी किया था। बेलगाँव लेख में जयसिंह को ‘राजेंद्रचोलरूपी राज के लिए सिंह के समान’ कहा गया है। चालुक्यराज जयसिंह के सेनापति चावनरस को ‘वलेयपत्तन विनाशक’ और ‘विजेवाड के दुर्ग के गर्व को तोड़नेवाला’ बताया गया है।
1031 ई. में विजयादित्य ने चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय की सहायता से राजराज को अपदस्थ करके वेंगी की राजगद्दी स्वयं हथिया ली और विष्णुवर्धन विजयादित्य सप्तम की उपाधि धारण की। परंतु 4 वर्ष बाद चोलनरेश राजेंद्र प्रथम की सहायता से राजराज ने विजयादित्य को पराजित करके वेंगी का राजसिंहासन पुनः प्राप्त कर लिया था। इस पराजय से भागकर विजयादित्य ने चालुक्य-दरबार में शरण ले ली, जहाँ उसके साथ राजोचित व्यवहार किया गया। लगता है कि बाद में चालुक्यों और चोलों ने आपसी सहमति से तुंगभद्रा नदी को सीमा-रेखा मान लिया।
1023 ई. के बाद जयसिंह ने यद्यपि लगभग 20 वर्षों तक शासन किया, किंतु इस शासनावधि में किसी विशेष घटना की जानकारी नहीं है। जयसिंह का शक्तिशाली सामंत बिज्जरस सांतलिगे में शासन कर रहा था। बिज्जरस को सेउण के यादव भिल्लम तृतीय, चट्टुग की पराजय, भट्ट के अधिग्रहण, तथा पट्ठरालि एवं तोरगले की विजय का श्रेय दिया गया है।
जयसिंह द्वितीय की पुत्री हम्मा अथवा आवल्लदेवी का विवाह भिल्लम तृतीय के साथ हुआ था। भिल्लम तृतीय 1025 ई. में अपने पैतृक राज्य पर शासन कर रहा था। इसकी राजधानी सिंदिनगर (सिन्नार) थी। जयसिंह की बहिन अक्कादेवी अपने पति मयूरवर्मादेव के साथ बनवासी, बेलवोल तथा पेलिगिरे में शासन कर रही थी। वह युद्ध में भैरवी के समान शौर्य प्रदर्शित करती थी।
इस प्रकार जयसिंह द्वितीय के समय चालुक्य साम्राज्य में दक्षिण में वर्तमान शिमोगा, तंगपुर, अनंतपुर तथा कडप्पा शामिल थे। इसकी पूर्वी सीमा का विस्तार हैदराबाद के उत्तर-पश्चिम कुलपक तक हो गया था। 1028 ई. तथा इसके बाद के अनेक लेखों से पता चलता है कि चालुक्यों की राजधानी अभी मान्यखेट ही थी क्योंकि चोल लेखों में मान्यखेट का उल्लेख तो है किंतु कल्याणी का कोई संकेत नहीं मिलता है।
जयसिंह की दो रानियों का उल्लेख मिलता है- सुग्गलदेवी और देवलदेवी। संभवतः सुग्गलदेवी ने 1029 ई. के एक लेख में पाशुपताचार्य ब्रह्मर्षि पंडित को दान दिया था। बसव पुराण के अनुसार सुग्गलदेवी के करण ही जयसिंह ने जैनधर्म छोड़कर शैवधर्म अपना लिया था। उसकी दूसरी पत्नी देवलदेवी नोलंब राजकुमारी थी। जयसिंह द्वितीय ने 1042 ई. तक शासन किया।