इटली का एकीकरण (Unification of Italy)

इटली का एकीकरण

राष्ट्रीयता एक ऐसी भावना है जो एक क्षेत्र विशेष के लोगों को सहज और संपृक्त ढंग से जोड़ देती है। जन्मभूमि के प्रति प्रेम, जिसका इतिहास हजारों साल पुराना है, धीरे-धीरे सोलहवीं शताब्दी तक राष्ट्रप्रेम में बदल गया और उस पूरे क्षेत्र को जन्मभूमि कहा जाने लगा, जहाँ भाषा, अतीत और सांस्कृतिक मूल्य प्रायः अभिन्न थे। पुनर्जागरण के बाद यूरोप में जब राष्ट्रीय राजतंत्र की प्रतिष्ठा हुई और राष्ट्रीय भाषा तथा साहित्य का विकास हुआ तो राष्ट्र और देश पर्यायवाची माने जाने लगे।

फ्रांसीसी राज्यक्रांति ने राष्ट्रवाद को न केवल सफल बल्कि गरिमामय भी बनाया। नेपोलियन ने इसी राष्ट्रवाद के सहारे शक्ति अर्जित कर सारे यूरोप को रौंद डाला जिससे धीरे-धीरे यूरोप के अन्य क्षेत्रों में भी राष्ट्रीय चेतना सबल होने लगी। नेपोलियन के पतन के बाद जिन क्षेत्रों में राष्ट्रीय चेतना का प्रसार हुआ उनमें इटली और जर्मनी प्रमुख थे।

मेटरनिख इटली को ‘एक भौगोलिक अभिव्यक्ति’ कहा करता था और यह सही भी था कि उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में इटली कई छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था। किंतु यह भी सही है कि इस समय इटली भारत की तरह भौगोलिक दृष्टि से एक सुपरिभाषित इकाई था। उत्तर में आल्पस पर्वत और तीन तरफ से सागरों से घिरे यूरोप के मध्य दक्षिण में स्थित यह प्रायद्वीप पूर्णतः सुरक्षित था। इटली के मुख्य रूप से तीन भाग थे- इटली के उत्तर-पश्चिमी भाग में पीडमांट-सार्डीनिया का राज्य था, जो सबसे शक्तिशाली था। इसके पूरब में लोम्बार्डी तथा उसके पूरब में वेनेशिया के प्रदेश थे। लोम्बार्डी के दक्षिण में टस्कनी था। टस्कनी तथा उत्तरी राज्यों के बीच तीन छोटे-छोटे रजवाड़े- मोडेना, परमा, लूसिया थे। इनके शासकों को ड्यूक कहा जाता था। प्रायद्वीप के मध्य में इटली में पोप का शासन था। दक्षिण इटली में नेपल्स और सिसली के राज्य थे, जहाँ 1735 ई. से ही बूर्बो वंश का शासन था। किंतु इसी विघटन के बीच से संगठन और एकीकरण के बीज प्रस्फुटित हुए। कभी आंतरिक प्रयासों तथा कभी बाह्य परिस्थितियों के प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणामों के कारण इटली संगठन की ओर बढ़ता गया।

एकीकरण में नेपोलियन की भूमिका

इटली में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने का श्रेय नेपोलियन बोनापार्ट को है। नेपोलियन की विजययात्रा में सबसे पहले इटली ही रौंदा गया था, लेकिन इटली ही सबसे पहले क्रांति की उपलब्धियों से परिचित भी हुआ। नेपोलियन ने पहले इटली में गणतंत्र की स्थापना की और सम्राट बनने के बाद अनेक छोटे-बड़े राज्यों को समाप्त कर उन्हें केवल तीन भागों में बाँट दिया और सारे इटली में एक ही प्रकार के नियम-कानून लागू किये। इस प्रकार इटली में बाहर से थोपी गई व्यवस्था ने परोक्ष रूप से एकता की पृष्ठभूमि तैयार की। यद्यपि वह व्यवस्था नेपोलियन के पतन के बाद भंग हो गई, किंतु इसका परोक्ष प्रभाव इटली के एकीकरण में कारगर सिद्ध हुआ।

इटली के एकीकरण में बाधाएँ

नेपोलियन के पतन के बाद प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने वियेना कांग्रेस में इटली के देशभक्तों के मंसूबों पर पानी फेर दिया। इटली को फिर छोटे-छोटे सामंती राज्यों में बाँट दिया गया। लोम्बार्डी और वेनेशिया पर आस्ट्रिया का प्रभाव स्थापित हो गया। राजनीतिक रूप से विघटित इटली सामाजिक रूप से भी टूट गया। अधिकांश राज्यों में सामंती और निरंकुश शासन सथापित हो गया और प्रतिक्रियावादी ताकतें किसी भी तरह के परिवर्तन का गला घोंटने के लिए कटिबद्ध थी।

इटली के एकीकरण के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा थी- इटली की गरीब, अशिक्षित और पिछड़ी हुई जनता। उसकी मूल समस्या रोजी-रोटी की थी, इसलिए एकीकरण से उसका कुछ लेना-देना नहीं था। प्रबुद्ध और मध्यमवर्ग के लोग बिना जनता को साथ लिए कुछ कर नहीं सकते थे। विभिन्न राज्यों के शासक भी एकीकरण के विरोधी थे क्योंकि एकीकरण से उनकी स्वतंत्र सत्ता समाप्त हो जाती।

इटली का एक हिस्सा आस्ट्रिया के कब्जे में था और वह कहीं भी किसी परिवर्तन को अपने हक में नहीं समझता था। यथास्थिति का सबसे बड़ा पहरेदार और रक्षक मेटरनिख बराबर इटली पर नजर रखता था। स्वयं पोप एकीकरण का विरोधी था क्योंकि इटली के शासक के रूप में सारे इटली की राजनीतिक सत्ता सिमट जाती और पोप का प्रतिद्वंद्वी पैदा हो जाता। यूरोप के अन्य कैथोलिक देश भी पोप के समर्थक और इटली में परिवर्तन के विरुद्ध थे। मेटरनिख के नेतृत्व में इन सभी शासकों ने हर तरह की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगा रखा था।

इटली के एकीकरण के विभिन्न चरण

इटली के नगर ही पुनर्जागरण के केंद्र थे। पुनर्जागरणकालीन सांस्कृतिक चेतना और मानवतावाद ने ही इटली में राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि तैयार की। इसी समय से अनेक देशभक्त अपने देश को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने का सपना देखने लगे थे। फ्रांस की क्रांति तथा अपने अतीत की गरिमा से प्रेरित राष्ट्रवादियों ने अनेक क्रांतिकारी दलों की स्थापना की, जिनमें गिबर्टी द्वारा स्थापित कारबोनरी नामक गुप्त संस्था सबसे प्रसिद्ध थी। नेपल्स में शुरू हुई यह संस्था धीरे-धीरे इटली में फैलती जा रही थी। यद्यपि इस संस्था का संगठन बहुत दृढ़ नहीं था, फिर भी नेपोलियन के काल में और उसके कई वर्षों बाद तक इस क्रांतिकारी संगठन ने शासकों की नींद हराम कर रखी थी।

जोसेफ मेजिनी

इटली के एकीकरण का जनक जोसेफ मेजिनी (1807-1872 ई.) को माना जाता है, जो इतालवी राष्ट्रवाद का मसीहा था। मेजिनी का जन्म 22 जून 1805 ई. में सार्डीनिया के जेनेवा में हुआ था। वह फ्रांस की राज्यक्रांति से बहुत प्रभावित था। मेजिनी का कवि हृदय मुक्ति की आकांक्षा से ओत-प्रोत था। उसने अपनी कविताओं को स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता के आदर्शों का वाहक बनाया। वह एकीकृत इटली के उदय का सपना देखनेवाले इतालवी छात्रों तथा बुद्धिजीवियों के लिए एक अक्षय प्रेरणास्रोत था, इसीलिए उसे ‘इटली की आत्मा’ कहा जाता है।

मेजिनी कारबोनरी का सदस्य था और 1830 ई. के विद्रोह में सक्रिय रूप से भाग लेने के कारण उसे गिरफ्तार कर लिया गया था। उसकी रचनाओं को खतरनाक समझकर उसे देश-निकाला की सजा दी गई। उसे अपने जीवन के शेष चालीस वर्ष स्विट्जरलैंड, ब्रिटेन और फ्रांस में बिताने पड़े। इंग्लैंड और फ्रांस में भटकता मेजिनी बराबर अपने प्रेरणाप्रद लेखों, पुस्तिकाओं तथा इश्तिहारों से इटली के नौजवानो में स्वतंत्रता का बिगुल फूँकता रहा। वह गणतंत्र का समर्थक था और अन्य लोगों को भी स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाता था।

मेजिनी का विश्वास था कि इटली के एकीकरण के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध विदेशी आधिपत्य और हस्तक्षेप है। उसने आस्ट्रिया को इटली से बाहर निकलने और इटली में गणतंत्र की स्थापना का लक्ष्य बनाकर एक संस्था ‘युवा इटली’ की नींव डाली। युवा इटली के पास इटली के भविष्य की कल्पना थी और उसे प्राप्त करने के लिए सुनिश्चित कार्यक्रम था। फलतः 1833 ई. तक इस संगठन के सदस्यों की संख्या 60 हजार तक पहुँच गई। यंग इटली की प्रेरणाप्रद भूमिका का प्रमाण इसी से मिलता है कि सारी दुनिया में राष्ट्रीय परिवर्तन के लिए इस तरह की संस्थाएँ शुरू हुईं, जैसे भारत में यंग बंगाल, तुर्की में यंग टर्की आदि।

बाद में इटली के एकीकरण का आंदोलन काफी विस्तृत और विविध हो गया और वह मेजिनी की योजनाओं, तरीकों और लक्ष्यों से भटकता गया। किंतु इटली में एक राष्ट्रीय चेतना और संघर्ष की मानसिकता प्रसारित करने में मेजिनी पूरी तरह सफल रहा।

नव गुयल्फ आंदोलन

मेजिनी को सारे संसार की जनता से सहानुभूति थी। किंतु गणतंत्र का हिमायती होने के कारण इटली के उदारवादी उसे खतरनाक अतिवादी मानते थे। मेजिनी-विरोधी विचारधाराओं वाले कुछ लोग नव गुयल्फ आंदोलन में शामिल थे। नव गुयल्फ आंदोलन (Neo Guelph Movement) का नेता एक पादरी विंसेंजो जियोबर्ती (1801-52 ई.) था जिसने 1843 ई. में अपनी पुस्तक ‘इटली की नैतिक और नागरिक श्रेष्ठता’ (दि सिविल एंड मॉरल प्राइवेसी ऑफ द इटालियंस) में पोप की अध्यक्षता में इटली के राज्यों के संघ की वकालत की थी। किंतु पोप का राज्य तो इटली का सबसे भ्रष्ट राज्य था, इसलिए जिओबर्ती के मत को अधिक महत्व नहीं मिल सका।

नरमपंथी

इटली के एकीकरण के लिए आंदोलन करनेवाला एक तीसरा गुट भी था, जो अपने को नरमपंथी कहता था। इनका विचार था कि सारे राज्यों का सार्डीनिया में विलय हो जाए तो एक शक्तिशाली और संगठित राजतंत्र के रूप में इटली का प्रादुर्भाव निश्चित है। यद्यपि यह विचार भी सबको स्वीकार्य नहीं था और शुरू में इसे अधिक महत्व नहीं मिला। किंतु बाद में इटली का एकीकरण इसी रास्ते पर ही चलकर संभव हुआ।

एकीकरण के आरंभिक प्रयास

नेपोलियन के शासनकाल में कुछ लोगों को इटली के एक सूत्र में आबद्ध होने तथा एक राज्य में उदित होने की कुछ आशा बँधी थी। किंतु 1815 ई. में मेटरनिख ने वियेना कांग्रेस के माध्यम से इटली को ‘मात्र एक भौगोलिक अभिव्यक्ति’ बना दिया।

एकीकरण को लेकर 1820 ई. में जब नेपल्स में विद्रोह हुआ तो मेटरनिख ने चतुर्मुख संघ की आड़ में अत्याचार किया और सारे यूरोप के क्रांतिकारियों को सबक सिखाना चाहा कि अब क्रांति के दिन लद गये हैं।

फ्रांस में जब 1830 ई. की क्रांति हुई तो इटली में फिर विद्रोह शुरू हो गये। पोप की रियासतों में उग्र प्रदर्शन हुए, पारमा और माडेना के राज्यों से उसके शासक निकाल दिये गये। लेकिन मेटरनिख ने एक बार फिर विद्रोह का कठोरतापूर्वक दमन कर दिया। क्रांति दब तो गई, लेकिन यह भी स्पष्ट हो गया कि बिना व्यापक संगठन और योजना के इटली में नये युग का सूत्रपात असंभव है।

1848 ई. की क्रांति के पहले इटली में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आरंभ हो गया था। 1846 ई. में पिअस नवम के पोप निर्वाचित हुआ, जिसके उदारवादी होने की ख्याति भी थी। उसने इटली में परिवर्तन चाहने वालों से सहानुभूति दिखाते हुए राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया और प्रशासन में कई तरह के सुधार किया। उसके इस कदम का अन्य राज्यों में भी अनुसरण किया और इटली में उत्साह की एक लहर दौड़ पड़ी। स्थानीय नरेश फर्डिनेंड द्वितीय को बाध्य होकर अपने राज्य में संविधान लागू करना पड़ा। इसके बाद टस्कनी के शासक को भी संविधान लागू करना पड़ा। सार्डीनिया में अल्बर्ट ने स्वयं एक संविधान लागू किया। पीडमांट में भी सेंसर समाप्त कर दिया गया और एक उदार संविधान लागू किया गया। नेपल्स ने भी इसी नीति का अनुसरण किया।

1848 ई. की क्रांति के बाद

1848 ई. की क्रांति के बाद सारा इटली धधक उठा। देशभक्तों ने इसे निर्णायक घड़ी मानकर अंतिम और निर्णायक संघर्ष शुरू करना चाहा। लोम्बार्डी के मिलान नगर में आस्ट्रिया द्वारा तंबाकू पर लगाये गये कर के विरोध में एक प्रकार से ‘तंबाकू दंगे’ शुरू हो गये। इन घटनाओं से प्रोत्साहित होकर सार्डीनिया के उदारवादियों ने आस्ट्रिया के आधिपत्य से मुक्ति के लिए स्वतंत्रता की लड़ाई का एलान कर दिया। चार्ल्स अल्बर्ट को संघर्ष का नेतृत्व अपने हाथों में लेना पड़ा। अल्बर्ट के आह्वान पर इटली के सभी राज्य आस्ट्रिया के खिलाफ एकजुट होने लगे। टस्कनी, नेपल्स, पीडमांट और पोप की रियासत से लोम्बार्डी में सहायता भेजी जाने लगी। मेटरनिख भाग चुका था। उसके पतन के बाद आस्ट्रिया स्वयं संकट में था। सारे इटली में पहली बार आंदोलनों का स्वरूप राष्ट्रीय हो चुका था। लगता था सफलता अवश्य मिलेगी, लेकिन अभी देर थी।

बूढ़े आस्ट्रियाई फील्ड मार्शल राडेस्की ने अन्य स्थानों से सेनाएँ लाकर इटली में लगा दीं और इटली के राज्यों में फूट पड़ने का इंतजार करने लगा। थोड़े ही दिनों में लोम्बार्डी से अन्य राज्यों ने सेनाएँ वापस बुला लीं। सार्डीनिया के नेतृत्व में इटली के सैनिकों ने काफी कठिन स्थिति में युद्ध किया, किंतु अंत में वे पराजित हुए। उत्तरी इटली पर एक बार फिर आस्ट्रिया का प्रभुत्व स्थापित हो गया। एक बार फिर आस्ट्रिया को अपने क्षेत्रों में प्रतिक्रांति का दौर चलाने का अवसर मिल गया।

पोप ने घटनाओं का रुख देखकर सुधार वापस ले लिये क्योंकि वह किसी भी तरह कैथोलिक आस्ट्रिया से युद्ध के लिए तैयार नहीं था। कुछ रोमन लोगों ने पोप पायस नवम् के शासनतंत्र से क्षुब्ध होकर खून खराबा शुरू कर दिया। एक कट्टरपंथी गणतंत्रवादी ने प्रधानमंत्री काउंट रौरुसी की नवंबर 1848 ई. में हत्या कर दी, जिससे भयभीत होकर पोप भाग खड़ा हुआ और रोम में एक बार फिर गणतंत्र की स्थापना हो गई। किंतु फ्रांस के राष्ट्रपति लुई नेपोलियन ने अपने देश की कैथोलिक जनता की तुष्टि के लिए पोप और उसकी रियासत के रक्षार्थ एक सेना रोम भेजकर पोप को पुनर्स्थापित कर दिया। टस्कनी में भी गणतंत्र की घोषणा की गई थी, लेकिन आस्ट्रियाई सेना ने उसे भी उखाड़ फेंका। इस प्रकार 1848 ई. के मध्य तक इटली के सभी विद्रोह कुचले जा चुके थे और आस्ट्रिया की इटली पर पकड़ पहले से भी अधिक मजबूत हो गई थी। किंतु इटली के एकीकरण की आकांक्षा खत्म नहीं की जा सकी थी। इटली ऊपर से शांत हो गया, लेकिन ऐसा था नहीं।

1848-49 ई. की क्रांतिकारी घटनाओं से इटली के देशभक्तों को यह स्पष्ट हो गया कि इटली का एकीकरण सार्डीनिया के नेतृत्व में ही हो सकता है। इससे भी महत्वपूर्ण सबक यह मिला कि बिना किसी अन्य यूरोपीय शक्ति की सहायता से इटली को आस्ट्रियाई आधिपत्य से मुक्त होने की आशा नहीं की जा सकती है।

विक्टर इमैनुअल

सारे इटली में क्रांति और प्रतिक्रांति के दौर आते-जाते रहते थे। लेकिन पीडमांट के शासक चार्ल्स अलबर्ट ने सुधारों का क्रम बंद नहीं किया था और आस्ट्रिया से समझौते के लिए भी राजी नहीं हुआ था। आस्ट्रिया की सेनाओं से कई बार परास्त होने के बाद उसने पुत्र विक्टर इमैनुएल (1820-1878 ई.) के पक्ष में अपने पद का त्याग कर दिया।

पीडमांट का नया शासक विक्टर इमैनुअल (1820-1878 ई.) राष्ट्रीयता और लोकतंत्रवाद का समर्थक था। सारे इटली की आँख इस युवा और उत्साही शासक पर लगी थी। उसने 1848 ई. के संविधान को लागू रहने दिया, हालाँकि आस्ट्रिया ने इसको रद्द करने की माँग की थी। यद्यपि जनता ने विक्टर इमैनुअल को ‘एक ईमानदार राजा’ की उपाधि दी थी, लेकिन वास्तव में इटली का उद्धारक एक व्यावहारिक और दूरदर्शी राजनेता कावूर था जिसे 1852 ई. में विक्टर इमैनुअल ने अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया।

केमिल बेंसो कावूर

काउंट कावूर का जन्म 1810 ई. में ट्यूरिन के एक जमींदार परिवार में हुआ था। कावूर अपने समय का सबसे योग्य प्रशासक और नेता सिद्ध हुआ। उसने यूरोप और इटली में कई बार यात्राएँ की थीं और वह विशेष रूप से इंग्लैंड और फ्रांस की संस्थाओं से बहुत प्रभावित था। 1848 ई. में जब कावूर देश की संसद का सदस्य बना, तो उसने इटली के एकीकरण की एक सुनिश्चित रूपरेखा तैयार की और सुनियोजित ढंग से काम करना आरंभ किया। उसने तय कर लिया कि इटली का एकीकरण पीडमांट के शासक के नेतृत्व में ही होगा। इसीलिए सबसे पहले पीडमांट को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाना जरूरी था। 1852 ई. में प्रधानमंत्री बनते ही उसे अपने विचारों को क्रियान्वित करने का मौका मिला।

कावूर ने सार्डीनिया-पीडमांट को एकीकरण का नेतृत्व प्रदान करने के लिए उसे मजबूत बनाने का प्रयास किया और उसे प्रगति, कार्यक्षमता, सुशासन का नमूना बनाने की कोशिश में लग गया। जिस समय उसके हाथ में सत्ता आई उस समय पीडमांट कर्ज में लदा हुआ था और अर्थतंत्र लड़खड़ा रहा था। कावूर ने किफायत करने के बदले पूँजी लगाकर आर्थिक विकास की नीति अपनाई। कृषि और उद्योग को राजकीय संरक्षण तथा सहायता दी गई। व्यापार के क्षेत्र में ‘खुला छोड़ दो’ की नीति का अनुसरण करते हुए दूसरे देशों से व्यावसायिक संधियाँ की गईं। राज्य में बड़े पैमाने पर रेलें बिछाई गईं, सड़कों, पुलों और अन्य जनहित के निर्माण-कार्य आरंभ किये गये। सेना, कानून और बैंक-संबंधी नियमों में अनुकूल सुधार किये गये। धीरे-धीरे राज्य में समृद्धि के लक्षण उभरने लगे और न केवल घाटे का बजट संतुलित हो गया बल्कि बचत भी होने लगी। उसने लामारमोरा नामक कुशल सेनापति की सहायता से सेना को पुनर्संगठित कर आर्थिक शक्ति को सैनिक शक्ति में परिवर्तित कर दिया। अब समान लक्ष्य तथा विविध विचारों के लोग, भावनाप्रधान तथा गणतंत्रवादी कवि मेजिनी, उत्साही सैनिक और क्रांतिकारी गैरीबाल्डी और कुशल राजनेता कावूर मिलकर इटली के एकीकरण के लिए सचेष्ट हो गये।

कावूर जानता था कि देश का एकीकरण बिना किसी विदेशी सहायता के संभव नहीं है। कावूर की विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य आस्ट्रिया के विरुद्ध विदेशी सहायता जुटाना था। पूर्वी समस्या उलझ जाने के कारण कालासागर के तट पर क्रीमिया का युद्ध (1853-56 ई.) चल रहा था। दूरदर्शी और चतुर कूटनीतिज्ञ कावूर ने रूस के विरुद्ध लड़ती हुई इंग्लैंड तथा फ्रांस की सेनाओं की मदद के लिए अपने सैनिक भेज दिये। यद्यपि युद्ध निर्णायक सिद्ध नहीं हुआ, किंतु युद्ध के बाद पेरिस के सम्मेलन में आस्ट्रिया के विरोध के बावजूद कावूर को भी आमंत्रित किया गया। पेरिस में कोई फैसला तो नहीं हुआ, किंतु कावूर ने इटली की समस्या को अंतर्राष्ट्रीय समस्या बना दिया और आस्ट्रिया से प्रतिद्वंद्विता रखनेवाले राज्यों ने सहानुभूति दिखानी शुरू कर दी। इस तरह एक प्रखर कूटनीतिक चाल से कावूर ने अपने लक्ष्य की ओर एक निर्णायक कदम रख दिया। इसीलिए कहा जाता है कि ‘इटली का जन्म क्रीमिया के कीचड़’ में हुआ था।

फ्रांस का समर्थन

कावूर कहा करता था: ‘हम चाहें या न चाहें, हमारा भाग्य फ्रांस पर निर्भर करता है।’ उसे नेपोलियन की मानसिकता का पता था। दूसरी ओर नेपोलियन को भी इटली में दिलचस्पी थी। बोनापार्ट परिवार इटली को अपनी खानदानी जायदाद समझता था। युवावस्था में नेपोलियन कारबोनारी का सदस्य रह चुका था। वह राष्ट्रीयता के सिद्धांत को एक कारगर उपकरण मानता था और एक जाति, भाषा और धर्म के लोग एक राज्य में रहें, इसमें उसकी सहानुभूति और नीति दोनों ही शामिल थीं। वह यह भी जानता था कि उसके चाचा नेपोलियन ने आस्ट्रिया पर विजय से ही अपनी महिमा की पृष्ठभूमि तैयार की थी। वह यह भी जानता था कि फ्रांसीसी जनता गरिमा की भूखी है और यदि उसे विजय मिलती है और फ्रांस की सीमाओं का थोड़ा भी विस्तार हो पाता है तो उसकी स्थिति मजबूत हो जायेगी। इसीलिए उसने कावूर के आस्ट्रिया-विरोध का समर्थन किया।

प्लाम्बियर्स समझौता

 स्थिति अनुकूल देखकर कावूर ने चुपके से जून 1858 ई. में नेपोलियन से प्लाम्बियर्स नामक स्थान पर भेंट की। कोई औपचारिक संधि तो नहीं हुई लेकिन नेपोलियन आस्ट्रिया के विरुद्ध पीडमांट की सैनिक मदद करने को तैयार हो गया, बशर्ते कि आस्ट्रिया को आक्रामक करार दिया जा सके। इस मदद के बदले कावूर ने नेपोलियन को को नीस और सेवाय का प्रदेश देने का वादा किया। इस प्रकार व्यावसायिक ढंग से समझौते की शर्तें तय हुईं। कावूर जानता था कि फ्रांस को निमंत्रण देना खतरनाक साबित हो सकता है, लेकिन उसके पास यह जोखिम उठाने के अलावा फिलहाल कोई और चारा भी नहीं था।

इटली के एकीकरण का प्रथम चरण

फ्रांस की मदद का आश्वासन पाकर कावूर आस्ट्रिया को युद्ध करने के लिए भड़काने लगा। आस्ट्रिया ने स्थिति बिगड़ती देख अन्य देशों का ध्यान आकर्षित किया। इंग्लैंड ने दोनों के बीच मध्यस्थता का प्रस्ताव किया। लेकिन 23 अप्रैल 1859 ई. को आस्ट्रिया ने पीडमांट को चेतावनी दे दी कि तीन दिन के अंदर वह अपना निःशस्त्रीकरण कर दे, अन्यथा उसके विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी जायेगी। कावूर को मुँह माँगी मुराद मिल गई। उसने कहा कि ‘पासा पलट गया है और हम नया इतिहास बनाने जा रहे हैं।’ कावूर ने आस्ट्रिया की चेतावनी की अवहेलना की तो अप्रैल 1859 ई. में आस्ट्रिया ने पीडमांट-सार्डीनिया पर आक्रमण कर दिया।

पीडमांट-आस्ट्रिया युद्ध

कावूर के उकसाने पर आस्ट्रिया को मजबूरन युद्ध के मैदान में उतारना पड़ा। प्लाम्बियर्स वादे के मुताबिक नेपोलियन तृतीय ने भी पीडमांट की ओर से अपनी सेना भेज दी। 1859 ई. के पीडमांट-आस्ट्रिया युद्ध में पीडमांट को सफलता मिलने लगी। 4 जून 1859 ई. को मजेंटा की जीत के बाद इटली की रियासतों में क्रांतिकारी आंदोलन भड़क उठे और वहाँ के शासकों में भगदड़ मच गई। 24 जून 1859 ई. को साल्फेरिनो के युद्ध में आस्ट्रिया की पराजय के बाद लोम्बार्डी पर भी पीडमांट का कब्जा हो गया और वेनेशिया का पतन निकट दिखने लगा। एक बार तो ऐसा लगा कि पीडमांट-सार्डीनिया के नेतृत्व में इटली का एकीकरण हो जायेगा। किंतु तभी ढुलमुल नेपोलियन युद्ध से अलग हो गया। नेपोलियन को लगा कि इटली का एकीकरण फ्रांस के लिए अच्छा नहीं होगा। फ्रांस के कैथोलिक भी इटली में पोप की सत्ता खत्म हो जाने की संभावना से असंतुष्ट थे। नेपोलियन ने 11 जुलाई, 1859 ई. को आस्ट्रिया के सम्राट से विलाफ्रांका में भेंट की और ज्यूरिख की संधि कर ली। फ्रांस और आस्ट्रिया की संधि के अनुसार लोम्बार्डी तो सार्डीनिया को मिल गया, किंतु वेनेशिया पर आस्ट्रिया का ही कब्जा माना गया। नेपोलियन ने नीस और सेवाय लेने के लिए दबाव नहीं डाला क्योंकि समझौता पूरा नहीं हुआ था।

एकीकरण के इस चरण में नेपोलियन के विश्वासघात से कावूर की सारी योजनाएँ ध्वस्त हो गई थीं। उसने अकेले लड़ाई जारी रखने का प्रयास किया, लेकिन इमैनुएल तैयार नहीं हुआ। फलतः कावूर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

एकीकरण का दूसरा चरण

आस्ट्रिया-पीडमांट युद्ध के दौरान मध्य इटली के राज्यों-परमा, मोडेना तथा टस्कनी की जनता इतनी उग्र हो चुकी थी कि वह अपने सामंती शासकों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। इन रियासतों में क्रांति परिषदें स्थापित हो गई थीं और वे पीडमांट में विलय के लिए आतुर थीं। इसी बीच इंग्लैंड में जून 1859 ई. में पार्मस्टन की सरकार बनी, जो इटली के एकीकरण के पक्ष में थी। इंग्लैंड ने प्रस्ताव किया कि इन रियासतों को अपने भाग्य का स्वयं निर्णय करने दिया जाए।

कावूर ने छः महीने अलग रहने के बाद जनवरी 1860 ई. में पुनः प्रधानमंत्री बनते ही नेपोलियन से सौदा किया कि यदि मध्य इटली के राज्य सार्डीनिया-पीडमांट को मिल जायेंगे तो फ्रांस को नीस और सेवाय के प्रदेश दे दिये जायेंगे। 1860 ई. में मोडेना, परमा और टस्कनी जैसे मध्य इटली के राज्यों में लोकनिर्णय के लिए मतदान हुआ और प्रायः सर्वसम्मति से सभी राज्यों ने पीडमांट में और नीस तथा सेवाय ने फ्रांस में विलय को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार मध्य इटली के राज्यों का भी एकीकरण हो गया। लेकिन इटली के हाथ से नीस और सेवाय निकल जाने पर गैरीबाल्डी ने कावूर से कहा था: ‘तुमने मुझे अपनी ही मातृभूमि में परदेसी बना दिया है।’

इटली के एकीकरण का तीसरा चरण

इटली अधिकांशतः संगठित हो चुका था, लेकिन दक्षिण के प्रदेश नेपल्स, सिसली और पोप की रियासत का एक हिस्सा अब भी अलग था। वेनेशिया पर आस्ट्रिया का कब्जा था। कावूर इन राज्यों को कूटनीति के सहारे एकीकृत करना चाहता था, लेकिन दक्षिणी इटली के राज्यों के एकीकरण का श्रेय उत्कट देशभक्त गैरीबाल्डी को मिला। इसीलिए गैरीबाल्डी को ‘इटली के एकीकरण की तलवार’ कहा जाता है।

ग्यूसेप गैरीबाल्डी

गैरीबाल्डी का जन्म 1807 ई. में नीस में हुआ था, गैरीबाल्डी मेजिनी से बहुत प्रभावित था, इसलिए जब कावूर ने नीस फ्रांस को दे दिया तो उसे दुःख हुआ था। वह इटली के हितों के प्रति समर्पित था और उसे मुक्त करने के लिए उसने कई बार जोखिम उठाकर विद्रोह किया था और एक बार तो पकड़े जाने पर उसे मौत की सजा दी गई थी। कैद से भागकर वह बारह वर्षों तक अमेरिका में रहा और लातिनी अमेरिकी लोगों के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेता रहा। 1848 ई. में आस्ट्रिया के विरुद्ध वह बड़ी बहादुरी से लड़ा। रोम में फ्रांसीसी सेना से लड़ते हुए उसने अपनी पत्नी तक गँवा दी थी। किसी तरह वहाँ से बचकर वह फिर अमेरिका गया और न्यूयार्क से धन कमाकर इटली लौटा। 1856 ई. में वह कावूर का अनुयायी हो गया और मतभेदों के बावजूद उसने इटली के कल्याण के लिए कावूर का साथ देने का फैसला किया।

गैरीबाल्डी ने ‘लालकुर्ती’ नाम से 1150 विश्वस्त और सरफरोश अनुयाइयों की एक सेना का गठन किया जो ‘दि थाउजैंड’ के नाम से प्रसिद्ध थी। जब 1860 ई. में सिसली में विद्रोह हुआ तो गैरीबाल्डी ने अपने लालकुर्ती दल के सहयोग से दक्षिणी राज्यों के विरुद्ध अभियान शुरू कर दिया। गैरीबाल्डी ने अपने अदम्य उत्साह, कौशल और राजा से असंतुष्ट जनता के अपूर्व सहयोग से कई भयानक युद्धों के बाद अगस्त 1860 ई. में सिसली और नेपल्स पर अधिकार कर लिया। 6 सितंबर 1860 ई. को सिसली और नेपल्स का शासक फ्रांसिस द्वितीय देश छोड़कर भाग गया। नेपल्स और सिसली का संपूर्ण राज्य सार्डीनिया में मिला लिया गया। नेपल्स के राजमहल में विक्टर इमैनुएल को संयुक्त इटली का शासक घोषित किया गया।

कावूर अपना काम एक दूसरे देशभक्त इटैलियन के हाथों पूरा होते देख संतुष्ट तो था, लेकिन जब गैरीबाल्डी ने रोम पर हमले की योजना बनाई तो वह चौकन्ना हो गया क्योंकि रोम में फ्रांस की सेना पोप की रक्षा के लिए तैनात थी। कावूर को भय था कि कहीं नेपोलियन हस्तक्षेप न कर दे। इसके अलावा, उसे यह भी संदेह था कि कहीं गैरीबाल्डी के अनुयायी गणतंत्र के समर्थक न हो जायें। इसलिए गैरीबाल्डी के कुछ करने के पहले ही कावूर ने सार्डीनिया की सेना की एक टुकड़ी को दक्षिण की ओर भेज दी। यह सेना पोप की रियासत को जीतती हुई गैरीबाल्डी की सेना से जाकर मिल गई। विजित क्षेत्रों में हर जगह जनमत संग्रह के बाद भारी बहुमत से लोगों ने पीडमांट में विलय का निर्णय किया।

18 फरवरी 1861 ई. तक रोम के आसपास के इलाकों तथा वेनेशिया को छोड़कर संपूर्ण इटली में एक ही सत्ता कायम हो गई। विक्टर इमैन्युएल को नये इटली का राजा ‘किंग ऑफ इटली’ घोषित किया गया।

कुछ ही दिनों बाद 6 जून 1861 ई. को कावूर की मृत्यु हो गई। कावूर औपचारिक रूप से एकीकरण संपन्न होते नहीं देख सका, लेकिन इटली उसके जीवन में यथार्थ बन चुका था। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री पामर्स्टन ने उसे भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए कहा था: ‘कावूर की बुद्धि, उत्साह और देशभक्ति ने असंभव को भी संभव बनाया है और हमेशा उसके जीवन से लोगों को शिक्षा मिलती रहेगी।’

इटली के एकीकरण का चौथा एवं अंतिम चरण

इटली के एकीकरण के चौथे और अंतिम चरण में बाह्य शक्तियों ने सहायता पहुँचाई। उत्तर में जर्मनी के एकीकरण का प्रयास भी समानांतर रूप से चल रहा था। प्रशा का चांसलर बिस्मार्क भी कावूर की तरह आस्ट्रिया को जर्मनी का मुख्य दुश्मन समझता था। उसने आस्ट्रिया को पराजित करने की योजना में इटली को भी शामिल कर लिया। जब प्रशा के बिस्मार्क ने 1866 ई. में आस्ट्रिया के खिलाफ युद्ध शुरू किया तो एमैनुअल ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए दक्षिण से वेनेशिआ पर आक्रमण कर दिया। फलतः आस्ट्रिया की सेनाएँ बँट गईं और 1866 ई. में सडोवा के युद्ध में आस्ट्रिया को पराजय का मुँह देखना पड़ा। प्रशा के साथ संधि हुई तो अन्य शर्तों के साथ आस्ट्रिया ने वेनेशिया इटली को वापस कर दिया। अक्टूबर 1866 ई. में वेनेशिया पीडमांट-सार्डीनिया में मिला लिया गया।

इधर फ्रांस में नेपोलियन की स्थिति बिगड़ती जा रही थी और रोम में उसकी सेना की हालत भी अच्छी नहीं थी। जब फ्रांस-प्रशा के बीच 1870 ई. में सेडान का युद्ध शुरू हुआ तो नेपोलियन को अपनी सेना रोम से वापस बुलानी पड़ी। इस अवसर का लाभ उठाकर इटली के सेनापति केडोनी ने 20 सितंबर 1870 ई. को रोम पर अधिकार कर लिया। एमैनुअल ने फौरन रोम में प्रवेश किया। इसके बाद रोम में जनमत संग्रह कराया गया जिसमें विक्टर एमैनुअल को 40 हजार से भी अधिक मत मिले जबकि पोप को मात्र 46 मत मिल सके। अंततः रोम को भी सीर्डीनिया-पीडमांट में मिलाकर उसे संयुक्त इटली की राजधानी बनाया गया। विक्टर एमैनुएल ने घोषित किया: ‘‘हमारी राष्ट्रीय एकता पूर्ण हो गई, अब हमारा कार्य राष्ट्र को महान् बनाना है।’’ इस तरह इटली ने अपने इतिहास के नये दौर में प्रवेश किया।

पोप ने असंतुष्ट होकर अपने आपको महलों में सीमित कर लिया और इस नये राज्य से कोई संबंध रखने से इनकार कर दिया। यह स्थिति पचासों वर्ष तक बनी रही और कोई समझौता नहीं हो सका। 1922 ई. में जब मुसोलिनी ने अपनी फासिस्ट सत्ता को मजबूत करने के लिए पोप से समझौता किया तो पोप के महलों को एक स्वतंत्र देश की मान्यता प्रदान कर दी। इस तरह दुनिया के सबसे छोटे और एकमात्र पुरुष राज्य, जहाँ एक भी महिला नागरिक नहीं है, का जन्म हुआ। कुछ छोटे-छोटे प्रदेश सीमाओं पर अब भी थे जिन्हें इटली अपना समझता था। इसलिए आंदोलन भी चलता रहा जिससे फासिज्म के विकास को बड़ी मदद मिली। लेकिन वास्तव में एकीकृत और सुगठित इटली राज्य का जन्म 1870 ई. में ही हो चुका था।

इस प्रकार 1815 ई. में असंभव लगने वाली बात लगभग 50 वर्षों के बाद ही सच्चाई बन गई। यद्यपि इटली के एकीकरण में तात्कालिक स्थितियों का भी बहुत हाथ था, किंतु मेजिनी के आदर्शवादी मसीही कार्यकलापों, कावूर के सुनियोजित कूटनीतिक प्रयोगों और गैरीबाल्डी की दुस्साहसिकता से इटली एक हो गया। यह सही कहा गया है कि ‘मेजिनी इटली की आत्मा, कावूर बुद्धि और गैरीबाल्डी हाथ की तरह थे। एमैनुएल स्वयं शरीर था।’

इन्हें भी पढ़ सकते हैं-

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख तत्त्व 

मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य

अठारहवीं शताब्दी में भारत

बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनैतिक दशा 

विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन

भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण 

भारत पर ईरानी और यूनानी आक्रमण 

आंग्ल-सिख युद्ध और पंजाब की विजय 

नेपोलियन बोनापार्ट 

प्रथम विश्वयुद्ध, 1914-1918 ई. 

पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि 

द्वितीय विश्वयुद्ध : कारण, प्रारंभ, विस्तार और परिणाम 

भारत में राष्ट्रवाद का उदय

यूरोप में पुनर्जागरण पर बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

प्राचीन भारतीय इतिहास पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

बौद्ध धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

सिंधुघाटी की सभ्यता पर आधारित क्विज 

राष्ट्र गौरव पर आधारित क्विज